दिल्ली में केजरीवाल सरकार है!

चुने हुए जनप्रतिनिधि और सरकार से तो अगर आप संतुष्ट नहीं तो एक नागरिक होने के नाते आप उनको या उस पार्टी को अगले चुनाव में वोट ना देकर सबक सिखा सकते हैं या नाराज़गी ज़ाहिर कर सकते हैं.

दिल्ली में केजरीवाल सरकार है!

उपराज्‍यपाल अनिल बैजल से मिलते अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया (फाइल फोटो)

मेरे इस लेख के टाइटल का अर्थ ये नहीं कि मैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बधाई दे रहा हूं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उनको सरकार चलाने के लिए बेहद महत्वपूर्ण अधिकार दे दिए हैं. बेशक केजरीवाल इस लड़ाई को काफी हद तक जीतने के लिए बधाई के पात्र हैं लेकिन बधाई के सबसे बड़े पात्र दिल्ली के वो आम लोग हैं जिन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में वोट डालकर सरकार चुनी. सुप्रीम कोर्ट से उन आम लोगों को एक बार फिर अधिकार मिल गया है कि वो अपने काम, अपनी समस्या सीधा अपनी चुनी हुई सरकार के सामने रखें, उनका समाधान करवाएं और संतुष्ट ना हों तो उनकी आलोचना करें उनसे नाराज़ हों और समीक्षा करके फैसला करें कि अगले चुनाव में किसको वोट देंगे. बीते दो साल से दिल्ली के आम लोगों के पास ये अधिकार होते हुए भी नहीं थे क्योंकि दिल्ली हाई कोर्ट ने कह दिया था कि दिल्ली में चुनी हुई सरकार नहीं बल्कि उपराज्यपाल असली सरकार हैं. तो बीते दो साल से दिल्ली में एक व्यवस्था की समस्या हो रही थी. लोग अपने विधायकों और मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री के पास जा रहे थे तो वो जनप्रतिनिधि उन लोगों को बता रहे थे कि ये काम एलजी की वजह से नहीं हो पा रहा या वो काम की मंज़ूरी उपराज्यपाल नहीं दे रहे या मोदी सरकार काम नहीं करने दे रही. अब ज़्यादातर लोग उपराज्यपाल तक तो जाते नहीं या पहुंच नहीं पाते या अगर पहुंच भी गए और फिर अपनी समस्या के समाधान या कार्रवाई से संतुष्ट नहीं तो उनके असंतुष्ट होकर या नाराज़ होकर बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

चुने हुए जनप्रतिनिधि और सरकार से तो अगर आप संतुष्ट नहीं तो एक नागरिक होने के नाते आप उनको या उस पार्टी को अगले चुनाव में वोट ना देकर सबक सिखा सकते हैं या नाराज़गी ज़ाहिर कर सकते हैं. लेकिन उपराज्यपाल से नाराज़ होकर आप क्या कीजियेगा? इसी को लोकतंत्र कहते हैं. भारत के लोकतंत्र की मूल भावना है कि यहां जनता अपना शासक खुद चुनती है और चुने हुए को ही लोकतंत्र में सबसे ज़्यादा अधिकार दिए गए हैं.

बहुत से जानकारों और अलग-अलग पॉलिटिकल पार्टी के लोगों के साथ-साथ मैंने भी हमेशा माना कि दिल्ली के अंदर या तो अलग से सरकार नहीं होनी चाहिए या फिर अगर सरकार है तो उसको अधिकार होने चहिए और उसकी सलाह ही उपराज्यपाल के लिए बाध्यकारी होनी चाहिए (कुछ आरक्षित विषयों को छोड़).

4 अगस्त 2016 को दिल्ली हाई कोर्ट ने जब अपना फैसला सुनाया और कहा कि चुनी हुई सरकार की सलाह मानना उपराज्यपाल के लिए बाध्य नहीं और एलजी ही दिल्ली के बॉस हैं तो मेरे मन में बस यही सवाल आया और मैंने ट्वीट किया कि 'दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से एक बात साफ़ नहीं - लोकतंत्र की मूल भावना है कि चुनी हुई सरकार का फैसला अंतिम होगा लेकिन हाई कोर्ट के मुताबिक एलजी का फैसला अंतिम होगा.'

मैं देश की अदालत का पूरा सम्मान करता हूं लेकिन मेरे मन मे आया ये सवाल माननीय उच्च न्यायालय पर सवाल नहीं उठा रहा था बल्कि भारतीय संविधान के प्रति मेरी समझ बता रहा था. मेरे लिए सबसे ऊपर है मेरा देश भारत. भारत में सबसे ऊपर संविधान है जो हमको लोकतंत्र की गारंटी देता है और कोर्ट हमारे अधिकार हमको दिलवाती और संविधान की रखवाली करती है.

लेकिन उस समय मेरी इस राय पर बहुत से मेरे पत्रकार मित्रों ने ही सवाल उठाए. कहा कि तुम एक पार्टी की भाषा बोल रहे हो. लेकिन मैंने भी कहा कि मैं अपनी समझ और अपनी राय पर कायम हूं. अब सुप्रीम कोर्ट ने भी वही कहा जो मैंने कहा था- लोकतंत्र में असली ताकत चुने हुए जनप्रतिनिधियों के पास होती है क्योंकि उनको जनता ने चुना है. चुने हुए लोग ही दिल्ली के बॉस हैं. मैं सोच रहा था कि मेरे वो दोस्त अब क्या सोच रहे होंगे?

वैसे एक कमाल की बात ये है कि अगस्त 2016 का दिल्ली हाई कोर्ट का एलजी को दिल्ली का बॉस बताने वाला आदेश केजरीवाल सरकार और एलजी दोनों ने माना लेकिन मीडिया में कोई इसको मानता नहीं दिखा. नहीं नहीं मैं कोर्ट की अवमानना की बात नहीं कर रहा बल्कि व्यवहारिक रूप से जो चीजें हुई उनकी बात कर रहा हूं.

हाई कोर्ट का फैसला था दिल्ली में एलजी ही बॉस हैं लेकिन बीते दो साल में किसी न्यूज़ चैनल या अखबार के हेडलाइन, स्टोरी या एक लाइन में आपने 'बैजल सरकार' शब्द सुना? या दिल्ली में हो रही किसी समस्या या बदइंतज़ामी के लिए उपराज्यपाल की आलोचना करते देखा? या फिर दिल्ली में अगर सरकारी स्कूल का स्तर सुधरा तो किसी ने उपराज्यपाल की तारीफ़ की? नहीं....

दिल्ली में सरकारी स्कूलों का अच्छा रिज़ल्ट आया तो केजरीवाल सरकार का नाम हुआ और शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया की सराहना हुई. दिल्ली में लगभग साढ़े तीन साल से डीटीसी के बेड़े में एक नई बस नहीं जुड़ी तो केजरीवाल सरकार पर ही सवाल उठे. बहुत लंबी लिस्ट है, आप बस अपनी याद्दाश्त पर ज़ोर डालकर देखें आपने कहीं भी मौजूदा उपराज्यपाल अनिल बैजल के नाम से 'बैजल सरकार' या पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग के नाम से 'जंग सरकार' सुनी? नहीं, हमेशा दिल्ली सरकार या केजरीवाल सरकार ही सुनी होगी. तो क्या ये मान लें कि भले ही कोर्ट का आदेश था लेकिन मीडिया चुने हुए को ही सरकार मानता था क्योंकि लोकतंत्र में सरकार चुने हुए को ही मानते हैं, नियुक्त तो राज्यपाल या उपराज्यपाल होते हैं?

खैर अब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है कि आरक्षित विषयों को छोड़कर सभी विषयों में दिल्ली में चुनी हुई सरकार का फैसला ही चलेगा और उसमें उपराज्यपाल की मंज़ूरी भी ज़रूरी नहीं होगी. हालांकि सर्विसेज विभाग पर अभी भी ठनी हुई है जिससे अफसरों की ट्रांसफर पोस्टिंग, नियुक्तियां, प्रमोशन, आदि केजरीवाल सरकार को नहीं मिल सके हैं. लेकिन बाकी जो अधिकार मिले हैं वो भी काफ़ी हैं सरकार चलाने के लिए. ये इतने अधिकार हैं कि सरकार पहले से बहुत ज़्यादा अच्छे तरीक़े से चलाई जा सकती है और ये बात खुद केजरीवाल सरकार भी मान रही है. ऐसे में दिल्ली सरकार के लिए चुनौतियां बहुत बढ़ गयी हैं क्योंकि ज़्यादा अधिकार के साथ ज़्यादा ज़िम्मेदारी भी आती है. अगर अब लोगों के काम नहीं होंगे तो फिर ये दलील देना या बहाना बनाना कि एलजी ने मंज़ूरी नहीं दी या एलजी काम मे टांग अड़ा रहे हैं या मोदी सरकार परेशान कर रही है ये आम लोगों के गले नहीं उतरने वाली क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ये बात अच्छे से जनता के बीच जा चुकी है कि दिल्ली में केजरीवाल सरकार है!

शरद शर्मा एनडीटीवी इंडिया में वरिष्ठ संवाददाता हैं.

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