कश्मीर में हमारा दूसरा दिन था। सुबह-सुबह हम पैकिंग कर तैयार थे। आबिद ने कहा था कि हाउसबोट पर एक ही दिन काफ़ी होता है। उसने हमें बाकी बचे दो दिन होटल में ठहरने की सलाह दी थी। उसके इंतजार में हम हाउसबोट के बरामदे में बैठे थे। फ़ोटो वाले और फेरी वालों ने हमें सुकून से बैठने नहीं दिया। एक के बाद एक नाव की चप्पू चलाते फेरी वाले आपको तंग कर देंगे। बावज़ूद इन सबके सुबह-सुबह डल झील बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी। बच्चे नाव पर स्कूल जा रहे थे। मक़बूल की बेटी भी स्कूल जा रही थी। उसकी छोटी बहन भी उसके साथ जाने की जिद कर रही थी।
आबिद आ गया था। मक़बूल ने हमें नाव से कार तक पहुंचाया। हमने मक़बूल से विदा ली। आबिद हमें होटल ले गया। ये होटल डल की चहल-पहल से थोड़ी दूर था। शायद उसके रिश्तेदार का था। हमें पसंद नहीं आया। पहले उसने हमें होटल पैराडाइज ले जाने का वादा किया था, जो डल के पास ही था। हमने कहा कि गुलमर्ग से लौटने पर हम होटल लेंगे। सामान सहित हम गुलमर्ग के लिए निकल पड़े। आबिद हमारे फ़ैसले से ज़्यादा खुश नहीं दिखा।
रास्ते में खेत-खलिहान तक में सेना के जवान तैनात थे। इन्हें यों खड़ा देखकर दुख भी लगा। न जाने कितने दशकों से कश्मीर में ये सब हो रहा है। न जाने कितने लोग मारे जा चुके हैं। सियासत चलाने के लिए दोनों देशों के राजनेता शायद चाहते ही नहीं कि कश्मीर समस्या का कभी कोई हल निकले।
रास्ते में उरी और सोपोर का साइन बोर्ड दिखा। हम आपस में अपने एक रिश्तेदार के बारे में बात करने लगे, जो सेना में मेजर थे और कभी उरी में तैनात थे। सेना का ज़िक्र आते ही आबिद के चेहरे का रंग बदलने लगा था। श्रीनगर से गुलमर्ग जाने के रास्ते के दोनों तरफ़ सेब के बाग और सामने हिमालय की पीर पंजाल शृंखला। अद्भुत दृश्य था। बर्फ़ से ढकी चोटियां हमें बुला रही थीं।
रास्ते में नाश्ते के लिए हम रुके तनमर्ग में। परांठे बेहद स्वादिष्ट थे। वहां हमें गाइड के झुंड ने घेर लिया। मक़बूल ने हमें बता दिया था कि गुलमर्ग में गाइड के चक्कर में मत पड़ना। आबिद ने हम से कह दिया कि वो कुछ नहीं कर पाएगा। "ये बेहद आक्रामक होते हैं। आप लोग खुद इनसे निबट लेना। वैसे वहां गाइड की ज़रुरत नहीं होती।"
दो युवा गाइडनुमा लड़के तो बस हमसे चिपक ही गए। खुद ही अपना रेट बकात जा रहे थे। "1200 रेट है। चलो 800 दे देना। चलो 400 दे देना।" आबिद ने हमें सलाह दी कि गुलमर्ग के बर्फ़ का मज़ा लेने के लिए हमें जैकेट और बूट यहीं भाड़े पर ले लेने चाहिए। गाइड पीछे-पीछे वहां भी पहुंच गए। "साल में कुछ महीने तो कमाई होती है वो भी आप लोग नहीं देते हो। इसीलिए हम पाकिस्तान में मिलने की बात करते हैं।"
इस बीच काफ़ी मोल भाव के बाद कपड़े वाला प्रति जैकेट-बूट वह 300 रुपये में देने पर राज़ी हुआ। वहीं पर हमने सफेद रंग का एक रुई का बहुत बड़ा गोला देखा। बाद में पता चला कि वो बर्फ़ है। हमारे लिए बर्फ़ का पहला दर्शन था।
जैकेट और बूट लेकर हम गाड़ी में बैठे तो वे गाइड फिर आ गए। कार का दरवाजा खोलकर बोला, "हर टूरिस्ट ऐसा ही करते रहे तो पाकिस्तान ही चले जाएंगे हम। ये ही अच्छा होगा।" ज़ाहिर है यहां के युवाओं को सब्ज़बाग दिखाए गए हैं। पाकिस्तान की खुद की हालत कितनी बुरी है, ये पूरी दुनिया जानती है, लेकिन यहां के युवाओं को इतना गुमराह कर दिया गया है कि उन्हें अपनी समस्याओं का हल पाकिस्तान में ही नज़र आता है।
मैं खुद 2006 में दो महीने पाकिस्तान रह कर आया था क्रिकेट सीरीज़ को कवर करने के सिलसिले में। तब वहां आतंक की दहशत उतनी नहीं थी, जो अब है। लेकिन तब भी वहां हर समय डर बना रहता था। तब भी पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहतर नहीं थे। आज की तो बात ही छोड़ दीजिए। एक कदम आगे और 4 कदम पीछे चलने वाले मुल्क से जुड़कर कोई कैसे सोच सकता है कि उसका भला हो सकता है। शायद ज़रूरत इस बात की है कि कश्मीर का ज़्यादा से ज़्यादा विकास किया जाए। कारखाने खुलें ताकि बेरोजगार नौजवानों को काम मिले। जब काम मिलेगा, तो उनके पास गुमराह होने के लिए समय कम मिलेगा।
This Article is From May 20, 2015
संजय किशोर की कश्मीर डायरी-6 : 400 रुपये के लिए पाकिस्तान चले जाने की धमकी
Sanjay Kishore
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Updated:मई 20, 2015 14:42 pm IST
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Published On मई 20, 2015 14:38 pm IST
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Last Updated On मई 20, 2015 14:42 pm IST
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