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This Article is From May 22, 2018

कर्नाटक ने फूंक ही दिया 2019 का बिगुल...

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 22, 2018 15:12 pm IST
    • Published On मई 22, 2018 15:12 pm IST
    • Last Updated On मई 22, 2018 15:12 pm IST
मीडिया और राजनीतिक पंडितों ने पहले ही भांप लिया था कि कर्नाटक चुनाव का असर 2019 के लोकसभा चुनाव तक जाएगा. आखिर वही हुआ. बीएस येदियुरप्पा की हरचंद कोशिश नाकाम होने के बाद अब एचडी कुमारस्वामी शपथ लेने जा रहे हैं. ऐसे बानक बन गए हैं कि इस समारोह में गैर-भाजपाई दलों के नेताओं की आकाशगंगा दिखेगी, और यही अद्भुत नज़ारा 2019 के बिगुल फूंकने जैसा मौका बन सकता है. कर्नाटक चुनाव को इतना महत्व देने का तर्क यह है कि अगर यह मौका न आता, तो देश में राजनीतिक विपक्ष के एक चौपाल पर बैठने की शुरुआत पता नहीं कैसे और कब बन पाती.

यूं ही सब कुछ नहीं झोंका था BJP ने...
अब तक समझ में नहीं आ रहा था कि कर्नाटक में BJP ने अपना इतना कुछ दांव पर क्यों लगा दिया था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ लगभग पूरा केंद्रीय मंत्रिमंडल तक. कर्नाटक के स्तर पर हर किस्म के BJP नेताओं को एक साथ बांधकर झोंका गया. उधर, राहुल गांधी ने भी निसंकोच खुद को कर्नाटक में उतार दिया था. यानी कांग्रेस और BJP दोनों ने भांप लिया था कि कर्नाटक सिर्फ कर्नाटक नहीं, बहुत आगे की चीज़ है. लगता है, जनता भी यह भांप गई थी. उसने भी कर्नाटक को इतनी कांटे की टक्कर बनाकर छोड़ा कि बड़ी मुश्किल से पता चल पाया कि जनता ने अपने आदेश में लिखा क्या था. आज ज़रूर हम कहने लायक हैं कि बुधवार को जब कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह हो रहा होगा, वहां कर्नाटक से ज्यादा देश दिख रहा होगा. वैसे कर्नाटक चुनाव से पहले BJP को भी विपक्षी ध्रुवीकरण होने का अंदेशा रहा ज़रूर होगा. चुनाव के नतीजों के बाद वहां जो नज़ारा है, उसके बाद तो कोई भी कह सकता है कि BJP का अंदेशा सही था. 

कांग्रेस ने गुजरात से ही भांप लिया था...
ज़रा गौर करें तो गुजरात चुनाव भी इतना ही सनसनीखेज़ बन गया था. कांग्रेस की मौजूदगी देश में सबसे कम अगर किसी प्रदेश में थी, तो वह गुजरात में ही थी. फिर भी कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व वहां दिन-रात जूझ रहा था, ताकि BJP के अभेद्य किले को भेद सके, और चुनाव नतीजों में जब कांग्रेस वहां कांटे की टक्कर में दिखाई दी, तो कांग्रेस का उत्साह बढ़ना स्वाभाविक था. वैसे गुजरात के चुनाव मोदी सरकार के कार्यकाल के चौथे साल में हो रहे थे, यानी 2019 के एक प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में कांग्रेस को वहां शिद्दत से लगने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. बहरहाल कांग्रेस ने गुजरात का चुनाव 2019 की तैयारियों के तौर पर ही लड़ा था, और उसके बाद कर्नाटक चुनाव तो मोदी सरकार के कार्यकाल के आखिरी साल में हुआ है, सो, इसका सीधा असर अगले लोकसभा चुनाव पर पड़ना ही पड़ना है.

अब सब कुछ टिका विपक्ष के ध्रुवीकरण पर...
कर्नाटक चुनाव के दौरान तीनों मुख्य दल कुछ भी दावे करते रहे हों, लेकिन उसी दौरान यह अटकल लगाई जा चुकी थी कि वहां त्रिशंकु विधानसभा के आसार हैं. यानी खंडित जनादेश का ऐलानिया पूर्वानुमान था. लेकिन इस संभावना को वहां के चुनावी मैदान में उतरे तीनों राजनीतिक दल सार्वजनिक रूप से कतई स्वीकार नहीं कर सकते थे. हां, JDS के बारे में ज़रूर यह अटकल थी कि वह 'किंगमेकर' की भूमिका में रह सकती है. शायद इसी आधार पर उत्तर प्रदेश से मायावती JDS का समर्थन करने कर्नाटक पहुंची थीं. यह एक ऐसा संकेत था, जिसे जो समझ सका हो, वह यह अनुमान भी लगा सकता था कि एक क्षेत्रीय दल के रूप में JDS बड़ी चीज़ है. इतना ही नहीं, कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में JDS को BJP की 'बी टीम' जैसे हल्के हमलों तक ही सीमित रखा. कांग्रेस का सारा ज़ोर BJP से निपटने में ही लगा. यानी कर्नाटक चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस, खुद JDS और मायावती के व्यवहार को गौर से देखें, तो देश में विपक्षी ध्रुवीकरण के परोक्ष लक्षण देखे जा सकते थे. और आज तो ऐसे हालात बन गए हैं कि कुमारस्वामी का शपथग्रहण समारोह निकट भविष्य के विपक्षी ध्रुवीकरण का प्रस्थान बिंदु बनता दिख रहा है.

यह समारोह बनेगा एक निमित्त...
यह कहना गलत होगा कि बुधवार को बेंगलुरू का नज़ारा पहले से सोचा या रचा गया मंच है. इसे परिस्थितिवश बना एक सुयोग मानना चाहिए, और यह विपक्षी ध्रुवीकरण का कोई घोषित अवसर भी नहीं है. यहां तक कि उस मौके पर मीडिया अगर किसी से विपक्षी एकता को लेकर सवाल पूछेगा, तो बहुत संभावना इसी बात की है कि सभी नेता आगे आकर बोलने में संकोच करेंगे. सभी कहेंगे कि कुमारस्वामी ने खुशी के मौके पर आमंत्रित किया था, सो बस, बधाई देने आए हैं. लेकिन यह सभी समझ रहे होंगे कि विपक्षी ध्रुवीकरण के लिए इससे बड़ा और इससे अच्छा निमित्त और कोई नहीं बन सकता था. खासतौर पर अपने-अपने आग्रहों के कड़कपन के दौर में बड़ा मुश्किल काम यही है कि कोई बिना बहाने किसी को आमंत्रित करने की पहल करे. अपने भीतर ही बात दबाकर रखने वाले ऐसे विचित्र दौर में आमंत्रित करने और आमंत्रित होने की चाह रखने वालों के लिए यह शपथ समारोह वाकई विलक्षण अवसर है.

क्या राहुल और सोनिया होंगे मुख्य आकर्षण...
अटकल लगाने का भी रोमांच होता है. बहुत से लोगों की रुचि किसी नज़ारे की पहले से कल्पना करने में होती है. ऐसे लोग ज़रूर सोच रहे होंगे कि कुमारस्वामी के इस समारोह में राहुल गांधी और सोनिया गांधी की तत्परता और देहभाषा कैसी होगी. खासतौर पर मीडिया ने राहुल गांधी को जिस तरह प्रधानमंत्री पद के एक उम्मीदवार के तौर पर चर्चा में ला दिया है, उसके बाद उनकी भाव-भंगिमाएं बारीकी से देखी जानी शुरू हो गई हैं. सोनिया गांधी UPA की अध्यक्ष के तौर पर सबकी नज़रों में होंगी. विपक्षी एकता की धुरी बनने की संभावनाएं कहीं हैं, तो वे सोनिया गांधी के पास ही सबसे ज़्यादा दिखाई देती हैं. इस समारोह में दोनों प्रकार के दृश्य बन सकते हैं, सोनिया और राहुल भी उठकर दूसरों से बात करने जाते देखे जा सकते हैं और दूसरे नेता उठकर उनके पास आते हुए भी दिख सकते हैं, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अलग-अलग खयालों के बड़े-बड़े नेताओं के बीच ये दो नेता आकर्षण के केंद्र होंगे.

जनता क्या देखेगी...
यह अवसर सबसे ज्यादा आनंदकारी जनता के लिए ही होगा. वोट देने के अलावा कुछ भी न कर पाने वाली जनता यही तो चाहती है कि उसके दुःख-दर्द से सरोकार रखने वाले नेता कभी तो आपस का छोटा-बड़ा भूलकर एक साथ बैठे दिखें. जनता तो फोटो में ही उन नेताओं को अगल-बगल बैठे देखकर खुश हो जाती है, जिनमें आपस में अनबोला हो. वैसे 'मुंडे मुंडे मतिभिन्ना' सिर्फ नेताओं में थोड़े ही है, कनार्टक की जनता ने जिस तरह का जनादेश दिया है, उससे तो यह बात खुद जनता पर भी लागू होती है. यानी बेंगलुरू पहुंचे नेता अपने व्यवहार से देश की मतिभिन्न जनता को संदेश दे सकते हैं कि अब आप लोग भी आपस में मेल-मिलाप करने लगिए.



सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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