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This Article is From Dec 03, 2016

भोपाल गैस त्रासदी के एक साल बाद एक और फैक्ट्री में गैस लीक हुई थी...

Kalpana
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 04, 2016 17:19 pm IST
    • Published On दिसंबर 03, 2016 18:33 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 04, 2016 17:19 pm IST
दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल ने जिस गैस त्रासदी को भोगा था, उसे इतिहास ने कैद कर लिया है. इस त्रासदी में लोगों ने जो गंवाया है, उसकी भरपाई नहीं हो सकती लेकिन आर्थिक पहलू की बात करें तो मुआवज़े की राशि को लेकर अभी भी भोपाल की सड़कों और चौराहों पर धरने और विरोध प्रदर्शन होते हैं. उस हादसे ने एक बार फिर न्याय को उसी के कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है. वहीं इसी त्रासदी के ठीक एक साल बाद ऐसी ही एक जहरीली गैस, राजधानी दिल्ली की एक कैमिकल फैक्ट्री से लीक हुई थी जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया, उसने भारतीय कानून के दायरे को बढ़ाते हुए उसे सिर्फ आदेश या निर्देश देने वाली व्यवस्था ही नहीं, बल्कि उसे जनता के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा करने वाली उत्तरदायी संस्था भी करार दिया.

मामला भोपाल गैस त्रासदी के ठीक एक साल बाद 4 और 6 दिसंबर 1985 का है जब दिल्ली की श्रीराम फूड एंड फर्टिलाइज़र्स इंडस्ट्री की एक यूनिट से जानलेवा ओलियम गैस लीक हो गई थी. दिल्ली क्लोथ मिल्स लिमिटेड की सहायक कंपनी श्रीराम दिल्ली के बीचोंबीच स्थित थी और कॉस्टिक और क्लोरीन बनाती थी. चार दिसबंर को फैक्ट्री में कुछ लापरवाहियों के चलते ओलियम गैस का टैंक फट गया जिससे हुए लीकेज की वजह से उस इलाके में रहने वाले लोगों में भगदड़ मच गई. अखबारों की रिपोर्टों के मुताबिक हादसे में कई लोग घायल हुए, वहीं कईयों की जानें गईं. अभी तक लोग इस हादसे से उभरे भी नहीं थे कि एक दिन बाद एक बार फिर पाइप से ओलियम गैस लीक हो गई. इस मामले को लेकर एक पर्यावरण संबंधित एनजीओ के एम सी मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की जिसमें उन्होंने ओलियम गैस से प्रभावित हुए पीड़ितों को मुआवज़ा देने और उस फैक्ट्री को दोबारा शुरू न किए जाने की अपील की थी.

हालांकि इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने खारिज कर दिया था और प्लांट को कुछ दिशा निर्देशों के साथ दोबारा शुरू करने की इजाज़त दे दी थी. तभी दिल्ली बार एसोसिएशन ने एक और अर्जी दायर की जिसमें इस लीकेज से जिन लोगों को नुकसान हुआ है उनके मुआवज़ा देने की अपील की गई. छोटी बेंच ने यह मामला पांच जजों की बेंच के पास भेज दिया जिसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस पीएन भगवती कर रहे थे.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस पीएन भगवती ने अपनी आत्मकथा 'माय ट्रिस्ट विद जस्टिस' में इस केस के बारे में विस्तार से लिखा है. वह लिखते हैं कि इस मामले में बेंच ने साफ किया कि कमेकिल जैसी जानलेवा या खतरनाक काम में संलग्न इंडस्ट्री को अपने दायित्व साफतौर पर पता होने चाहिए. बेंच ने कहा कि अभी तक ब्रिटिश कानून के सुनाए जिस फैसले पर अमल किया जाता रहा है उसके मुताबिक जो व्यक्ति अपनी मर्जी से कोई ज़मीन खरीदकर उसमें कुछ भी जानलेवा या खतरनाक रखता है, जिसके बाहर निकलने से लोगों को नुकसान पहुंचता है तो इसके लिए मालिक जिम्मेदार है और उसे इसका हर्जाना भरना होगा. लेकिन बेंच के मुताबिक यह फैसला काफी पुराने ढर्रे का है और काफी नहीं है. तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यव्सथा जहां सामाजिक ढांचा बदल रहा है, वहां यह फैसला साफ तौर पर इंडस्ट्री मालिक पर जिम्मेदारी तय नहीं करता, न ही इससे किसी तरह के दिशा निर्देश साफ होते हैं. भगवती की बातों का सार यह था कि इससे संबंधित कानून में स्पष्टता न होने की वजह से दोषी आसानी से बचकर निकल सकता है.

पूर्व चीफ जस्टिस भगवती ने बताया है कि किस तरह इस मामले में उन्होंने और उनकी बेंच ने सामाजिक और आर्थिक बदलाव लाने के लिए मौजूदा कानून से आगे बढ़कर फैसला लिया. अपने रिटायरमेंट के एक दिन पहले चीफ जस्टिस ने इस मामले में ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए तेज़ी से बढ़ती औद्योगिक अर्थव्यव्स्था में 'सख्त दायित्व' का आदर्श स्थापित किया था. जस्टिस भगवती ने लिखा है कि 'मैं ब्रिटिश और अमेरिकी जजों और उनके फैसलों की बहुत कद्र करता हूं लेकिन मैं यह भी मानता हूं कि भारत जैसे देश में जहां गरीबी, अज्ञानता और अशिक्षा ने पैर पसार रखे हैं, वहां न्याय को एक अलग नीति और नज़रिए की भी जरूरत है.' भगवती लिखते हैं 'मैं लोगों की सेवा के लिए कानून में बदलाव लाने को गलत नहीं समझता, कानून, सामाजिक न्याय लाने का एक बहुत बड़ा हथियार है और इसलिए मैंने इस मामले में पारंपरिक कानून से अलग हटते हुए सख्त दायित्व के नए नियम लागू किए हैं.'

जस्टिस भगवती ने इस मामले में अपना फैसले सुनाते हुए कहा कि 'हम मानते हैं कि जो भी इंटरप्राइज़ ऐसी इंडस्ट्री स्थापित करना चाहता है जो कि हानिकारिक या जानलेवा सामान बनाती है तो उसका पूरा दायित्व बनता है कि इस काम को करने वाले या इस इंडस्ट्री के आसपास रहने वालों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए. इस काम में सुरक्षा के सबसे ऊंचे स्तर का ध्यान रखा जाए और इसके बावजूद किसी भी परिस्थिति में अगर किसी को कुछ भी हानि पहुंचती है तो उसका हर्जाना देने के लिए वह कंपनी पूरी तरह जिम्मेदार होगी और इस बात का बिल्कुल भी लिहाज नहीं रखा जाएगा कि कंपनी ने तो अपनी तरफ से पूरा ख्याल रखा ही था.'

इसी मामले में कोर्ट ने यह भी साफ किया कि कंपनी जितनी बड़ी होगी, हादसा होने पर उसके द्वारा हर्जाना भी उतना ही बड़ा अदा किया जाएगा. यानि बिना किसी रियायत के कंपनी की क्षमता को देखकर उस पर जुर्माना लगाया जाए ताकि इसे एक चेतावनी की तरह याद रखा जाए. इस ऐतिहासिक फैसले को आए 30 साल से ज्यादा बीत चुके हैं, कानून ने अपना काम कर दिया लेकिन इसका क्रियान्वयन कितना सफलतापूर्वक हो पाया, इसका अंदाज़ा भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को देखकर लग सकता है जो आज भी मप्र और भारत की राजधानी में विरोध प्रदर्शन करके थक चुके हैं.

कल्पना एनडीटीवी ख़बर में कार्यरत हैं.

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