बिहार में पिछले एक हफ्ते में राजनीतिक घटनाक्रम ने काफी तेजी से करवटें ली हैं। इनमें सबसे अहम सोमवार की वह घोषणा रही, जिसमें दिल्ली में मंडल की राजनीति के तीन प्रतीक और यादव वोट बैंक के सिरमौर माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और शरद यादव ने नीतीश कुमार को बिहार चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा मानने की घोषणा की।
निश्चित रूप से संवाददाता सम्मलेन बुलाना जितना आसान था, उसके लिए आधार बनाना उतना ही मुश्किल। खासकर लालू यादव के लिए यह घोषणा उनके शब्दों में "जहर पीने के समान" थी, लेकिन कोई व्यक्ति अगर जहर पीने के लिए तैयार हो, तो वह उसकी मजबूरी होती है।
लालू यादव की मजबूरी थी कि अगर नीतीश के नाम की घोषणा नहीं करते तो उनके पास यादव, मुस्लिम मतदाताओं की एकमात्र बची पूंजी शायद बिखर ही नहीं जाती, बल्कि राजनीति में वह हाशिए पर भी जा सकते थे। उनकी पुरानी सहयोगी कांग्रेस खासकर राहुल गांधी ने नीतीश कुमार से कई दौर की मुलाकात के बाद मन बना लिया था कि अगर उन्हें नीतीश और लालू में से किसी एक को चुनना हो, तो वो अब नीतीश के साथ राजनीतिक संबंध और गठजोड़ बनाने में ज्यादा दिलचस्पी ही नहीं दिखाएंगे, बल्कि उन्हें चुनावी चेहरा बनाने में भी कोई संशय की स्थिति में नहीं हैं। नीतीश इस गठजोड़ के नेता बने तो ऐसा राहुल गांधी के राजनीतिक दबाव के कारण हुआ और लालू यादव को न चाहते हुए भी नीतीश कुमार को नेता मानना पड़ा।
लालू ने अपनी राजनीतिक मजबूरी और उससे ज्यादा इस सच्चाई को स्वीकार किया कि मात्र वोट बैंक से आप नेता नहीं हो सकते। आपका मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल, आपकी साफ़ छवि और आपका प्रचार-प्रसार भी इसमें एक अहम भूमिका अदा करता है।
एक तरफ लालू ने नीतीश को नेता माना, तो उसके बाद बीजेपी अब हरकत में आ गई है। अभी तक बीजेपी मानकर चल रही थी कि न तो लालू-नीतीश का गठबंधन होगा और न ही उसे अपने सहयोगियों को बहुत ज्यादा भाव देने की जरूरत होगी। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। बीजेपी के सहयोगियों जैसे उपेंद्र कुशवाहा ने सार्वजनिक बयान भी दे डाला कि एनडीए की चुनौती अब और मुश्किल हो गई है। हालांकि उनके दूसरे सहयोगी रामविलास पासवान भले सार्वजनिक तौर पर कुछ न बोलें, लेकिन अंदर-अंदर वो भी खुश हैं कि बीजेपी नेतृत्व अब बिहार विधानसभा चुनावों में हर चीज में मनमानी नहीं कर सकता।
लेकिन जब राजनीति में विरोधी चाल चलने के बाद अपनी चाल चलते हैं, तो कभी-कभी जल्दबाजी में गलती भी हो जाती है। बीजेपी ने शुक्रवार को जीतन राम मांझी के साथ समझौते का ऐलान कर कुछ यही किया है। सब जानते थे कि जीतन राम मांझी आखिर बीजेपी के साथ जाएंगे, लेकिन बीजेपी इतनी जल्दी मांझी की नैया पार करने में लग जाएगी, शायद इसका अंदाजा किसी को नहीं था।
मांझी वही राजनेता हैं, जब वह मुख्यमंत्री थे, तब उनके खिलाफ मात्र बिहार बीजेपी के शीर्ष नेता सुशील मोदी के बयानों को संकलित कर दें, तो एक किताब बन जाएगी। मांझी सरकार के 100 दिन पूरे होने पर बीजेपी ने एक पुस्तिका भी निकाली थी। मांझी सरकार का जो कार्यकाल रहा, जिसमें खुद उन्होंने माना हैं कि शुरुआती दो महीनों को छोड़कर उन्होंने नीतीश कुमार की कभी नहीं सुनी। तो क्या बीजेपी जो लालू के साथ नीतीश के जाने पर जंगल राज-2 की वापसी का नारा दे रही है, वही बीजेपी मांझी के साथ सरकार बना ले तो भविष्य में बिहार के लोगों को वही दिन फिर देखने होंगे?
मांझी अपने शासनकाल में हर दिन बड़बोले बयानों के कारण सुर्खियां बटोरते थे तो क्या अब बीजेपी भी उनकी नीतियों और उनके भाषणों का अनुसरण करेगी। मांझी घूस लेने को गलत नहीं समझते, शराब पीने पर भी उनको कोई आपत्ति नहीं, नक्सलियों के लेवी का भी उन्होंने सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था।
अब इन मुद्दों पर बीजेपी अपनी नीति बदलेगी या मांझी, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन हां, जिस नए मतदाता की बदौलत बीजेपी ने केंद्र में सत्ता हासिल की, वो मतदाता शायद बीजेपी के इस निर्णय से कभी खुश नहीं हो सकते। लेकिन बीजेपी के रणनीतिकार सफाई देते घूम रहे हैं कि मांझी महादलित समुदाय से आते हैं और उनके आने से उस समुदाय का वोट बीजेपी से जुड़ेगा और इस आधार पर उनका तर्क हैं कि बिहार में बीजेपी गठबंधन की सरकार बन सकती है।
लेकिन क्या यह भी सच नहीं हैं की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी खासकर बिहार के नेताओं को रामधारी सिंह दिनकर से संबंधित एक कार्यक्रम में जाति की राजनीति से ऊपर उठने की नसीहत दी थी। जिस मांझी से तीन बार मिलने के बाद पीएम मोदी ने अपनी मुलाकात की तस्वीर कभी सार्वजनिक नहीं की, उस मांझी के लिए बीजेपी ने अपने ही प्रधानमंत्री मोदी की नसीहत को अंगूठा तो नहीं दिखा दिया?
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को बिहार में मुस्लिम मतदाताओं को छोड़कर अधिकांश जातियों और वर्गों का वोट मिला। यहां तक कि उनके सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी से एकमात्र मुस्लिम उम्मीदवार चौधरी मेहबूब अली कैसर भी जीते, लेकिन मांझी अब जरूर मुस्कुरा रहे होंगे कि बीजेपी जो उन्हें पानी पी-पीकर अखबारों और जनता के बीच कोसती थी, उस बीजेपी की आज मजबूरी है कि वोटों के लिए उन्हीं के साथ गठबंधन करे, इसलिए बिहार में चुनाव के प्रथम दौर में यह ब्रांड मोदी की हार है और मांझी की जीत।
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This Article is From Jun 12, 2015
मनीष कुमार : मांझी को एनडीए में शामिल करना ब्रांड मोदी की हार, मांझी की जीत
Manish Kumar
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Updated:जून 12, 2015 12:41 pm IST
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Published On जून 12, 2015 12:08 pm IST
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Last Updated On जून 12, 2015 12:41 pm IST
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