भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत असीमित अधिकार मिले हैं. उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक डॉ. विक्रम सिंह ने चुनाव आयोग को 3 लीगल नोटिस देने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके रोड-शो और बाइक रैली पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की. चुनाव आयोग ने नोटिस का जवाब नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट ने मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया. देश में जब चौकीदार का शोर मचा हो और संविधान के रक्षक चुप्पी साध लें तो निरीह जनता क्या करे?
राजमहल की सुविधा वाले गैर-कानूनी चुनावी रथ
देश में रथयात्रा की शुरुआत आन्ध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने 1982-83 में की थी, जिसे भाजपा के आडवाणी ने 1990 में अखिल भारतीय विस्तार दिया. एनटी रामाराव ने अपनी पुरानी शैबरलेट गाड़ी को चैतन्यम रथ में बदलकर चालीस हजार किमी की चुनावी यात्रा तय करके सत्ता की कुर्सी हासिल कर ली थी. 37 साल बाद अब डिजीटल रथ का जमाना आ गया है जिसमें जनसेवकों के लिए राजमहल की सारी सुविधायें मिल रही हैं. मोटर-वाहन कानून और नियमों के खिलाफ कुछ राज्यों के आरटीओ द्वारा इन रथों का रजिस्ट्रेशन किया जाना गम्भीर जांच का विषय है. नोटबन्दी के बावजूद करोड़ों रुपये खर्च करके बनाये जा रहे रथों का हिसाब-किताब उम्मीदवारों के चुनावी खर्च में शामिल नहीं किया जाना, पूरे सिस्टम के लिए एक चुनौती है.
रोड शो यानी सड़कों में रैली
थिंक टैंक सीएएससी द्वारा प्रकाशित 'Election on The Roads' पुस्तक में ऐसी अनेक रैलियों का विवरण दिया गया है, जिन्हें विपक्ष द्वारा शासित राज्यों में अनुमति नहीं मिली. चुनावी सभा के लिए पुलिस और प्रशासन की अनुमति लेनी होती है. इन कानूनी जंजालों से बचने के लिए नेताओं ने रोड-शो का शॉर्टकट अपना लिया. रथ में स्टार प्रचारक और वाहनों के काफिले का टीवी में सीधे प्रसारण करवा कर चुनावी फ़िज़ा बनाने का नया मैनेजमेंट अब सभी पार्टियों को रास आने लगा है. चुनाव आयोग द्वारा इस बारे में लम्बे-चौड़े नियम बनाये गये हैं. रोड-शो छुट्टियों के दिन या ऐसे समय ही होना चाहिए, जिससे आम जनता को असुविधा नहीं हो. स्कूल, हॉस्पिटल, ब्लड-बैंक और अन्य जरूरी सुविधाओं के इलाके में रोड-शो नहीं हो सकता. रोड-शो के काफिले में दस से ज्यादा गाड़ियां नहीं हो सकती और इनका पूर्व विवरण प्रत्याशी द्वारा चुनाव अधिकारियों को दिया जाना जरूरी है. रोड-शो के दौरान आधी सड़क में यातायात सुचारू रूप से जारी रहना चाहिए. संसद और चुनाव आयोग द्वारा बनाये गये कानूनों का हमारे माननीय जनप्रतिनिधि यदि पालन नहीं करें, तो रोड-शो में पिसती जनता क्या करे?
बाइक रैलियों का डराता हुजूम
दिल्ली में पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर आम जनता के लिए ऑड-ईवन जैसे प्रयोग किये जाते हैं, लेकिन नेताओं के उपर कोई आचार-संहिता लागू नहीं होती. चुनावी रैली में लाने के लिए पहले लोगों को हजार-पांच सौ रुपये देने पड़ते थे. भारत विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है तो फिर चुनावी समर्थकों को भी अब बाइक से नवाजा जाने लगा है. देश में करोड़ों लोगों का सीट बेल्ट और हैलमेट नहीं पहनने पर चालान होता है पर चुनावी झंडे लिए झूमते बाइकर्स पर कोई भी नियम क्यों नहीं लागू होता? सुशासन के नाम पर बनी आम आदमी पार्टी ने मुम्बई से 2011 में बाइक रैली की शुरुआत की. हरियाणा में भाजपा द्वारा एक लाख बाइकों की रैली से चुनावी शक्ति प्रदर्शन का ट्रेंड अब दिल्ली समेत देश के सभी हिस्सों में लोकप्रिय हो गया है. खरबों रुपये के निवेश से खरीदी गई बाइकों में अरबों रुपये का जलता पेट्रोल पर्यावरण के साथ संवैधानिक व्यवस्था को भी आहत कर रहा है, फिर भी देश के सभी चौकीदार चुप हैं!
बेहाल जनता क्या करे
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की चुनाव प्रचार और रोड शो के दौरान ही हत्या हुई थी. इन घटनाओं के बावजूद लखनऊ के रोड शो में प्रियंका गांधी को सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ की अनुमति क्यों मिली? वीवीआईपी सुरक्षा वाले नेताओं के उपर सरकारी खजाने से खरबों रुपये खर्च होते हैं, तो फिर रोड-शो के दौरान उनकी सुरक्षा से समझौता क्यों होता है? चुनाव आयोग द्वारा जारी सभी नियम वेबसाईट पर उपलब्ध हैं, तो फिर उनका पालन क्यों नहीं होता? टीएन शेषन नाम के अकेले अधिकारी ने चुनावी व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की जो पहल की थी, उसे अब सामूहिक प्रयास से अंजाम तक पहुंचाने की जरुरत है. चुनावों के बारे में अभी तक प्रतिद्वंद्वी नेताओं की शिकायत पर ही चुनाव आयोग द्वारा कार्रवाई करने का रिवाज है. इन चुनावों में आम जनता यदि सही मायने में चौकीदार बन जाये तो रोड-शो और बाइक रैली पर चुनाव आयोग को रोक लगानी ही पड़ेगी.
(विराग गुप्ता सुप्रीम कोर्ट के वकील और 'Election on The Roads' पुस्तक के लेखक हैं)
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