बेटी घर से बाहर जा रही थी तभी अचानक मां ने उसे टोकते हुए कहा, 'छोटे कपड़े पहनकर बाहर मत जाना', 'दुपट्टा ढंग से लो'. यह सब सुनने के बाद बेटी से भी रहा नहीं गया उसने पलटकर जवाब दिया, 'मां क्या इन सब चीजों के बाद भी इस बात की गांरटी है कि मेरे साथ कोई अप्रिय घटना नहीं होगी, मेरी अस्मिता बरकरार रहेगी...?
महिला होना काफी सम्मान की बात है और इस सम्मान को बनाए रखना उससे भी बड़ी बात है... लेकिन आज का समाज उस सम्मान को नोचने में लगा हुआ है. कभी घरेलू हिंसा, तो कभी लूटती अस्मिता के रूप में. सम्मान के नाम पर महिलाओं को सिर्फ झूठे वादे ही नसीब हो रहे हैं.
ये दुनिया भीड़ से भरी पड़ी है. इस आबादी में भारत देश में करीब 125 करोड़ की जनसंख्या है. मजेदार बात तो यह है इतनी बड़ी आबादी के सभी लोग खुद को समझदार दिखाने का प्रयास करते हैं और समझदार बताते भी हैं, लेकिन हकीकत में कोई कितना समझदार है ये उसकी सोच जाहिर कर देती है. इंसान भले ही अनपढ़ हो, लेकिन कई बार उसकी सोच भी पढ़े-लिखे लोगों के दिमाग भर भारी पड़ जाती है. कहने को भारत को आजाद हुए 70 साल हो गए लेकिन इस देश के 'समाज' का दिमाग अभी भी गुलाम बना हुआ है. गुलाम ऐसी सोच का जो महिलाओं के हितों के बारे में सोचने का दिखावा भर करती है. मुंह पर महिलाओं के सम्मान की बात बड़े जोरों शोरों से होती है लेकिन दिमाग में जो महिलाओं के लिए 'गंदी सोच' भरी है वह लोगों के कृत्यों के जरिए वक्त-बे-वक्त उभरकर सामने आ ही जाती है.
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दिल्ली में हुए निर्भया केस के बाद महिलाओं के मन में आशा की किरण जगी थी कि अब समाज में बदलाव आएगा, लोगों की सोच बदलेगी, पर्दे की बेड़ी में बंधी ‘रानी’ कही जाने वालीं महिलाओं को अब पंख मिल सकेंगे... लेकिन देश में ढाक के तीन पात वाली कहावत आज भी अस्तित्व में है.
उन्नाव, कठुआ और ना जाने ऐसे कितने ही मामले होंगे जो सामने आए हैं और ऐसे अनगिनत मामले भी होंगे जो दबा दिए जाते हैं और सामने नहीं आ पाए. सरकार ने तो एक तरह से अपना काम करके पल्ला झाड़ लिया लेकिन असली काम तो किसी ने किया ही नहीं. दरअसल, असली काम है लोगों के दिमाग में महिलाओं के प्रति जो सोच है उसे सही करने की.
महिलाएं आज भी सुरक्षा की मांग के लिए अनशन करे तो यह बात ज़हन में उतार लेना काफी जरूरी है कि बदलाव तभी आएगा जब लोगों की सोच बदलेगी. अब सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि सोच को कैसे बदला जाए. आज के डिजिटल दौर में तकनीक इतनी भी विकसित नहीं हुई है कि लोगों की सोच को काबू किया जा सके और सोच में बदलाव लाया जा सके. कड़े कानून तो पिछले 70 साल से बन रहे हैं लेकिन महिलाओं के प्रति समाज की सोच खराब गाड़ी की तरह रूकी हुई है.
क्या वाकई बच्चे हमारी संवेदनाओं का हिस्सा हैं, या सिर्फ सियासत का!
कठुआ में एक पूजनीय स्थान पर एक 8 साल की बच्ची के साथ जो हुआ उससे काफी हद तक समाज के लोगों की अंदर की सोच का आकलन किया जा सकता है. लेकिन हद तो तब और ज्यादा हो गई जब कुछ लोग उस बच्ची के विरोध में और अपराधियों के समर्थन में नजर आए. इस तरह की सोच भी दर्शाती है कि महिलाओं का सम्मान हमारे समाज में कहां तक है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बच्ची किस मजहब की थी और इस बात से भी कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि बच्ची के साथ दरिंदगी करने वाले किस धर्म से ताल्लुक रखते हैं. गुनाह तो गुनाह है फिर चाहे उसे किसी भी धर्म के व्यक्ति ने अंजाम दिया हो.
ऐसी घटनाओं के बाद राजनीति भी अपने चरम पर देखने को मिल जाती है. क्या उन हुक्मरानों की भी संवेदनाएं राजनीति के दलदल में मर जाती हैं? आखिर किस समाज में हम जी रहे हैं ? ऐसे समाज की कल्पना तो शायद किसी ने नहीं की होगी. अगर रेप मामूली बात है तो बड़ी बात क्या होगी ? जरूरी है कि बदलाव के लिए खुद कदम आगे बढ़ाया जाए. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में उन्नाव की घटना भी आपके दिए गए एक कीमती वोट को बखूबी बयान करती है. आपका कीमती वोट भी उनकी सोच में बदलाव नहीं ला पाया, विकास और अच्छे दिन तो दूर की बात.
चिंगारी तो निर्भया के वक्त भी लगी थी और चिंगारी तो अब भी लगी है. बस इस बार यह आग बुझने ना पाए. कोशिश करनी होगी कि लोगों की सोच महिलाओं के प्रति सही की जाए. महिलाओं के प्रति जो निम्न श्रेणी की मानसिकता समाज में व्याप्त है उसे जड़ से उखाड़ फेंका जाए. शुरुआत खुद से करनी होगी, ताकि आने वाले दिनों में किसी को यह कहते हुए घबराहट ना हो कि 'मुबारक हो, बेटी हुई है'.
हिमांशु कोठारी NDTVKhabar.com में सब-एडिटर हैं...
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This Article is From Apr 17, 2018
'मुबारक हो, बेटी हुई है'
Himanshu Kothari
- ब्लॉग,
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Updated:अप्रैल 17, 2018 19:33 pm IST
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Published On अप्रैल 17, 2018 19:33 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 17, 2018 19:33 pm IST
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