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This Article is From Apr 16, 2020

क्या मध्यम वर्ग ने सांप्रदायिकता को ही सर्वोच्च प्राथमिकता और रोज़गार समझ लिया है...?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 16, 2020 09:56 am IST
    • Published On अप्रैल 16, 2020 09:56 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 16, 2020 09:56 am IST

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने कहा है कि कोरोना संक्रमण के कारण एशिया की अर्थव्यवस्था सबसे अधिक प्रभावित होने जा रही है. यहां की GDP शून्य हो सकती है. इसका मतलब है, हर किसी को मुश्किल दौर के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा. तालाबंदी से दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं नीचे चली जाएंगी, इसलिए किसी भी देश के लिए आने वाले दो-तीन वर्षों से कम समय में वापस उठ खड़ा होना संभव नहीं होगा.

आज भले ही लोग अपने-अपने देश के नेताओं का गुणगान कर रहे हैं, लेकिन ऐसी स्थिति में वे उन तथ्यों की खोज करने के लिए मजबूर होंगे, जो चीख रहे थे कि जब संकट आने वाला था, उनके देश के प्रमुख मौज-मस्ती में लगे थे. यह स्थापित तथ्य है कि कई बड़े नेताओं की लापरवाही और सनक के कारण कोरोना ने लोगों की ज़िंदगी ख़राब कर दी. जब नौकरियां जाएंगी, बाज़ार में कमाने के भी मौक़े नहीं होंगे, तो आप क्या करेंगे - थाली पीटेंगे...?

अमेरिका में अप्रैल के पहले हफ्ते में 66 लाख से अधिक लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दीं. मार्च के आखिरी दो हफ्तों से लेकर अप्रैल के पहले हफ्ते के दौरान 1 करोड़ 60 लाख लोगों की नौकरी चली गई है. बड़ी संख्या में अमेरिकी बेरोज़गारी भत्ते के लिए आवेदन कर रहे हैं. अमेरिका में लाखों भारतीय रोज़गार करते हैं. ज़ाहिर है, वे भी प्रभावित होंगे. केंद्रीय बैंक के सेंट लुईस कार्यालय के अर्थशास्त्रियों के अनुमान के अनुसार अमेरिका में पौने पांच करोड़ लोगों की नौकरियां जाएंगी. बेरोज़गारी की दर 32 प्रतिशत से अधिक होने जा रही है. 100 साल में अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने ऐसा झटका नहीं देखा होगा.

अमेरिका में आप जान सकते हैं कि हर हफ्ते कितने लोगों की नौकरियां गई हैं. भारत में यह जानना असंभव है. सरकार ने पुरानी व्यवस्था की जगह नई व्यवस्था लाने की बात कही थी, मगर दो साल से अधिक समय हो गया, विश्वगुरु देश में रोज़गार के आंकड़ों का कोई विश्वसनीय ज़रिया नहीं बन सका, कोई सिस्टम नहीं बन सका.

2019 के चुनाव से पहले एक रिपोर्ट आई थी कि नेशनल सैम्पल सर्वे के अनुसार 45 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी है. उससे जुड़े विशेषज्ञों ने इस्तीफा दे दिया और मूल रिपोर्ट कभी सामने नहीं आई. चुनाव में नरेंद्र मोदी को अप्रत्याशित समर्थन मिला और बेरोज़गारी के मुद्दे की राजनीतिक मौत हो गई. मोदी जैसे कम नेता हुए हैं, जिन्होंने बढ़ती बेरोज़गारी के मुद्दे को हरा दिया हो. मुमकिन है, इस बार भी हरा दें. कई विश्लेषणों में कहा जा रहा है कि कोरोना संकट ने नरेंद्र मोदी को पहले से मज़बूत किया है. ऐसे विश्लेषक हर मौके पर मज़बूत नेता को मज़बूत बताने की सेवा नहीं भूलते हैं.

भारत के मध्यम वर्ग ने इन सवालों को अपने व्हॉट्सऐप फॉरवर्ड कार्यक्रम का हिस्सा बनाना छोड़ दिया है. आज हर देश बता रहा है कि उनके यहां किस शहर में कितने लोगों की नौकरी गई है, सिर्फ भारत में नौकरी जाने वालों का तबका ऐसा है, जो भजन गा रहा है. मध्यम वर्ग को अफवाह वाली ख़बरें सत्य लगने लगी हैं. वह थूकने से संबंधित जैसी कितनी ही झूठी और सांप्रदायिक ख़बरों का उपभोक्ता हो गया है. हमारे देश में सर्वे की विश्वसनीय व्यवस्था होती, तो पता चलता कि तालाबंदी के दौर में लोगों ने सांप्रदायिकता को रोज़गार बना लिया है, और इसका किस रफ्तार से प्रसार हुआ है.

भारत में नौकरियां जाने की शुरुआत तो तालाबंदी से पहले हो गई थी. सेंटर फॉर मानिटरिंग इकोनॉमी ने डेढ़ हफ्ता पहले एक आंकड़ा जारी किया था. बताया था कि फरवरी के महीने में 40 करोड़ से अधिक लोगों के पास काम था, लेकिन तालाबंदी के बाद के हफ्ते में 28.5 करोड़ लोग ही रोज़गार वाले रह गए. दो हफ्ते के भीतर 11.9 करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए. उस दौर में भारत का मिडिल क्लास ट्विटर पर टास्क मांग रहा है कि उसे थाली बजाने का काम दिया जाए, ताकि विरोधियों को चिढ़ाया जा सके. हद है.

आखिर यह कैसा समाज है, जो नियम बना रहा है कि किस धर्म के ठेले वाले से सब्ज़ी ली जाएगी और किससे ब्रेड. क्या हम पतन के नए-नए रास्तों पर चलकर ही सुख प्राप्त करने लगे हैं...? क्या इस मध्यम वर्ग को इतनी-सी बात समझ नहीं आई कि मीडिया जो ज़हर फैला रहा है, उसके झूठ पर विश्वास करने की वजह क्या है...? शर्म आनी चाहिए. अगर आने लायक बची हो तो.

मध्यम वर्ग को अब अपनी सांप्रदायिकता की कीमत चुकानी होगी. छह साल के दौरान उसने अपने पूर्वाग्रहों और नफरतों के मामूली किस्सों को बड़ा किया है. अपने भीतर के झूठ को ही धर्म मान लिया है. गौरव मान लिया है. इसके दम पर हर उठने वाले सवाल की तरफ वह आंधी बनकर आ जाता है. सवालों को उड़ा ले जाता है.

अभी उसे लग रहा है कि सांप्रदायिकता ही रोज़गार है. उसी को अपनी प्राथमिकता समझ रहा है. लेकिन क्या वह इसके प्रति तब भी वफ़ादार बना रहेगा, जब उसकी नौकरी जाएगी, ग़लत फैसलों का नतीजा भुगतना पड़ेगा...? क्या तब भी वह इस झूठ से परदा उठाकर नहीं देखेगा कि भारत जनवरी, फरवरी और मार्च के महीने में क्या कर रहा था...?

अगर भारत ने एयरपोर्ट पर पांच-दस लाख यात्रियों की कठोर स्क्रीनिंग की होती और उन्हें क्वारैन्टाइन किया गया होता, तो इतनी जल्दी तालाबंदी में जाने की नौबत नहीं आती. ताइवान का उदाहरण देखिए. जो लोग विदेशों से आए हैं, उन्हीं से आप पूछ लें, एयरपोर्ट पर क्या हुआ था...? वह तबका भी तो मध्यम वर्ग का है, कभी नहीं बताएगा. क्या मध्यमवर्ग सिर्फ एक धर्म के ख़िलाफ़ गढ़ी गई झूठी ख़बरों का ही नशा करता रहेगा...? तालाबंदी के समय में उसे गीता का पाठ करना चाहिए.

जिस तरह कोरोना के कारण जीवन पर संकट वास्तविक है, उसी तरह कोरोना के कारण जीवनयापन पर संकट भी वास्तविक है. हम सभी को एक कठोर इम्तिहान से गुज़रना है. सांप्रदायिक ज़हर ने मध्यम वर्ग को डरपोक बना दिया है. उसने अकेले बोलने का साहस गंवा दिया है. भीड़ का इंतज़ार करता है. भीड़ के साथ हां में हां मिलाकर बोलता है. क्या नौकरी जाने के बाद भी वह भीड़ में घुसा रहेगा...?

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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