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This Article is From Oct 30, 2016

सत्ता की सियासत वाया ब्रांड मुलायम बनाम ब्रांड अखिलेश

Harimohan Mishra
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 04, 2016 12:43 pm IST
    • Published On अक्टूबर 30, 2016 16:39 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 04, 2016 12:43 pm IST
कोई निरा मूर्ख या धूर्त ही इस नतीजे पर पहुंचेगा कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी में कब्जे की खानदानी जंग में समाजवाद या सामाजिक न्याय की राजनीति का कोई लेनादेना है. इसका दावा तो झगड़ने वाले दोनों खेमों में से कोई कर भी नहीं रहा है. इसके विपरीत पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव, उनके छोटे भाई तथा पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव और उनके बरक्स खड़े मुलायम के बेटे, मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सबने अपने करियर और हिस्सेदारी की ही बातें की हैं. यानी यह ब्रांड मुलायम बनाम ब्रांड अखिलेश की एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ है.

ब्रांडों में यह होड़ अमूमन तभी होती है, जब अपने प्रभुत्व और हिस्सेदारी को बनाए रखने या दूसरे के वर्चस्व को तोड़ने की बारी आती है. अखिलेश ने हाल में 'उत्तर प्रदेश मेरा परिवार' का जो वीडियो जारी किया या अपने महत्वाकांक्षी लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे के कामकाज का मुआयना करने के बहाने पहली बार उससे अपने गांव सैफई गए तो उनके साथ सिर्फ पत्नी-बच्चे ही थे. इस परिवार से पिता मुलायम या चचा शिवपाल दूर हैं, जिनसे अखिलेश अपने ब्रांड के वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

असल में ब्रांड के लिए किसी साकार वस्तु या व्यक्ति या नाम का होना जरूरी है. राजनीति में ब्रांड एक नेता के इर्दगिर्द बनता है. कई बार राजनीतिक विचारधारा को भी उस नेता रूपी ब्रांड का सहारा लेना पड़ता है. फिर नेता या उसकी पार्टी विचारधारा से बड़ी हो जाती है. इसी से एक नए वर्चस्ववादी वर्ग का निर्माण होता है. इसी से कुनबे की राजनीति भी निकलती है. मौजूदा समाजवादी पार्टी को ही देखें, तो मुलायम के कुनबे के साथ यह प्रदेश भर के कुछ खास कुनबों का वर्चस्व करती है. मुलायम के कुनबे के ही करीब 22 सदस्य सीधे चुनावी राजनीति में सक्रिय हैं. अखिलेश अब इसी कुनबे में बंटवारा चाहते हैं.

आखिर मुलायम की सांध्यवेला आ चुकी है. इसलिए इस राजनीति को एक नए ब्रांड, नए नेता की दरकार है. हमारे देश में यह प्रक्रिया मुख्यधारा की ज्यादातर पार्टियों में देखने को मिलती है. जो बीजेपी इसके न होने का दावा करती है, उसमें भी ब्रांड आडवाणी को धराशायी करके ही ब्रांड मोदी स्थापित हो सका है.

ब्रांड और कुनबापरस्त राजनीति में ऐसी जंग की मिसालें कई हैं. इसके पहले धुर दक्षिण की द्रविड मुनेत्र कषगम (द्रमुक) के नेता करुणानिधि के दो बेटों स्टालिन और अलागिरी में भी ऐसी जंग चली थी. करुणानिधि फिलहाल अलागिरी को बाहर का रास्ता दिखाकर उसे कुछ शांत कर पाए हैं, लेकिन इस लड़ाई में विराम की एक वजह यह भी है कि द्रमुक के दुर्दिन चल रहे हैं. अन्नाद्रमुक की नेता जयललिता की अगर तबीयत जल्दी नहीं सुधरी और वहां कब्जे की होड़ शुरू हो गई तो द्रमुक के दिन फिर बहुर सकते हैं. दिन बहुरते ही स्टालिन और अलागिरी की लड़ाई खुलकर अपना रंग दिखा सकती है.

द्रमुक और अन्नाद्रमुक भी सामाजिक न्याय के संघर्ष से निकली पार्टियां हैं. देश में ऐसी और पार्टियों की गिनती दोहराने की जरूरत नहीं है, जो एक समय किसी खास वैचारिक संघर्ष से निकलीं और सत्ता में पहुंच चुकी हैं. सत्ता को बचाए रखने की ललक शायद उन्हें अपने परिवार पर ही भरोसा करने को मजबूर करती है. इसकी अभिव्यक्ति भी ये नेता करते रहे हैं. 2015 में बिहार में जब नीतीश कुमार द्वारा मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठाए गए जीतनराम मांझी ने बगावत का बिगुल बजा दिया, तो लालू प्रसाद यादव ने कहा कि अब नीतीश समझ गए होंगे कि हम अपनी पत्नी राबड़ी देवी को क्यों मुख्यमंत्री बनाए थे. लालू प्रसाद यादव भी समाजवाद और सामाजिक न्याय की धारा से निकले राजनेता हैं. अटकलें तो ये भी हैं कि उनके परिवार में भी विरासत की जंग छिड़ चुकी है. इसी जंग को शांत करने के लिए उन्हें बड़े बेटे तेजप्रताप को चुनाव जितवाकर मंत्री बनाना पड़ा, वरना वे विरासत छोटे बेटे तेजस्वी को ही देना चाहते थे.

असली सवाल यह है कि सामाजिक न्याय के संघर्षों का यह हश्र आखिर क्यों होता है? यह भी गौर कीजिए कि यह सिर्फ हमारे देश का घटनाक्रम नहीं है. दुनिया भर में इसके बड़े उदाहरण बिखरे पड़े हैं. सबसे बड़ा उदाहरण तो सोवियत संघ के बिखरने और चीन के नव-पूंजीवाद की ओर बढ़ने का ही है. साठ के दशक में ही कई मार्क्सवादी चिंतकों ने इसकी ओर इशारा किया था. युगोस्लाविया के मार्क्सवादी चिंतक मिलोवन जिलास ने कम्युनिस्ट सत्ताओं में एक नए वर्ग की उभार का जिक्र 1957 में अपनी किताब 'द न्यू क्लास : ऐन एनालिसिस ऑफ कम्युनिस्ट सिस्टम' में किया. यह समाजवादी या सामाजिक न्याय की धाराओं के सत्ता में पहुंचने पर उनके भ्रष्ट होने की व्याख्या करता है. जिलास ने अपने अध्ययन से साबित किया कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कैसे अपनी निजी संपत्ति बनाने में जुट गए और सत्ता पर काबिज रहने वाले एक निहितस्वार्थी वर्ग बन गए. बाद में यह चीन में भी दिखा कि बड़े नेताओं और उनके परिवार का बड़े उद्योगों पर कब्जा हो गया. कभी मामूली पृष्ठभूमि से आए नेताओं के पास अकूत संपत्ति आ गई.

हमारे देश में इसकी अनेक मिसालें दिख जाएंगी. इससे किसी दल को अछूता भी नहीं माना जा सकता. हर पार्टी में कम से कम नेताओं के परिजनों के नेता बनने और चुनाव लड़कर सत्ता तक पहुंचने की मिसालें भरी पड़ी हैं. अमर सिंह जिसे मुलायमवाद कहते हैं, शायद यह वही धारा है. असल में यह मुलयामवाद बेहिचक समझौतों और सौदों की राजनीति का ही पर्याय है. इन सौदों और समझौतों के लिए कुछ बिचौलियों या दलालों की दरकार होती है, जिसमें अमर सिंह माहिर हैं. अखिलेश तो अदद चुनाव के मौके पर अपने कुनबे में छिड़ी जंग के लिए इसी 'दलाल' (अमर सिंह) को दोषी मानते हैं. अमर सिंह को खुद को सियासी दलाल कहे जाने से परहेज भी नहीं रहा है.

अमर सिंह का रसूख हर पार्टी में है. उनकी पत्नी गुजरात से हैं, इसलिए नरेंद्र मोदी से उन्होंने रिश्ता गांठ लिया है. उनकी दोस्ती दिवंगत प्रमोद महाजन से भी थी. 1999 में तो उन्होंने यह दावा भी किया था कि 'मैं वाजपेयी सरकार में वह काम भी करवा सकता हू, जो लालकृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी भी नहीं करवा सकते.' उन्होंने ही 2008 में मनमोहन सिंह सरकार को गिरने से बचाया था जब अमेरिका से एटमी करार पर वाममोर्चा ने समर्थन वापस ले लिया था.

कांग्रेस के एक मामूली कार्यकर्ता से किंग मेकर बनने तक अमर सिंह का राजनीतिक सफर एक अध्ययन का विषय है. हालांकि अब उनकी यह पारी खत्म होती लगती है. फिर भी इसी अध्ययन से यह भी निकलेगा कि कैसे विचारधाराएं गौण होती गई हैं और सत्ता और संपत्ति खड़े करने के लिए सौदेबाजियां राजनीति का अनिवार्य अंग बनती गई हैं.

अमर सिंह इकलौते नहीं हैं. हर पार्टी में उनके जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जो राजनीति की दिशा मोड़ने की ताकत रखते हैं. 'दलाल' या 'सत्ता के दलाल' सिर्फ किसी एक पार्टी तक सीमित नहीं हैं. उनकी पहुंच से दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ तक शायद ही मुख्यधारा की कोई पार्टी दूर रह गई होगी. ये दलाल कोई आज ही पैदा हो गए हैं, ऐसा नहीं है.

सत्तर के दशक से तो रजनी पटेल, ललितनारायण मिश्र, एआर अंतुले, सतीश शर्मा, प्रमोद महाजन जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जो हर तरह की राजनीतिक सौदेबाजियों को अंजाम देने की ताकत रखते रहे हैं. पहले इनका काम ज्यादातर फंड प्रबंधन हुआ करता था. लेकिन उदारीकरण के बाद के दौर में ये राजनीति का वारा-न्यारा भी करने लगे. इसी वजह से ब्रांड मुलयम बनाम ब्रांड अखिलेश की लड़ाई गहरे अध्ययन का विषय बनती है.

हरिमोहन मिश्र वरिष्ठ पत्रकार एवं टिप्पणीकार हैं...

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