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This Article is From Apr 01, 2015

नया दौर से बीआरटी तक, हारना बस को ही है - रवीश कुमार

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    अप्रैल 01, 2015 20:03 pm IST
    • Published On अप्रैल 01, 2015 19:20 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 01, 2015 20:03 pm IST

दिल्ली से बीआरटी की विदाई तय सी हो गई है। खानपुर से मूलचंद के बीच बना बीआरटी कोरिडोर जब से अस्तित्व में आया है, विरोध ही हो रहा है। छह किमी से भी कम दूरी के इस गलियारे को जाना तो कश्मीरी गेट तक था मगर वहां तक गलियारा गया ही नहीं। जब भी विरोध उठा इस मांग के साथ इसे खत्म किया जाए। इस बात के साथ नहीं कि इसे सुधारा जाए।

2008 से 2014 के बीच दिल्ली में बीआरटी का इतिहास यही बताता है। इस पूरे विरोध की बुनियाद में कार बनाम बस ही था लेकिन अब जब विरोध कामयाबी के करीब पहुंच चुका है यह दलील दी जा रही है कि इसे कार बनाम बस का मुद्दा मत बनाइये।

बीआरटी को कामयाब बनाने के लिए किसी नेता ने इच्छा शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया। दिल्ली में बीआरटी की शुरूआत अगर दक्षिण दिल्ली से न हुई होती तो शायद आज इसकी स्थिति कुछ और होती। तब किसी का ध्यान भी नहीं जाता कि बीआरटी का क्या हो रहा है। यहां के रसूखवाले कारचालकों की आवाज़ बस वालों से कहीं ज्यादा है। मगर इसे खत्म करने से पहले सोचना चाहिए कि बीआरटी और इसके जैसी योजनाओं का मूल मकसद क्या है। यही न कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विस्तार हो। पूरी दुनिया में इस बात पर सहमति है कि अलग-अलग प्रकार के पब्लिक ट्रांसपोर्ट का विकास किया जाए ताकि शहर की निर्भरता कारों पर कम हो सके।

कारों ने हमारे शहर को लील लिया है। कार ज़रूरी हैं लेकिन क्या कोई चीज़ इतनी ज़रूरी हो जाएगी कि हम पूरी धरती को इसी से पाट देंगे। दिल्ली के गली मोहल्ले में चले जाइये, पार्किंग को लेकर तनाव फैला हुआ है। घर के सामने कार हटाते ही वहां पत्थर रख देते हैं ताकि शाम को लौट कर अपनी कार पार्क कर सकें। घरों के बाहर बोर्ड लगे हैं कि गेट के सामने कार पार्क होने पर शीशे तोड़ दिये जाएंगे या टायर पंचर कर दिया जाएगा।

ये तब है जब दिल्ली में सड़कों की चौड़ाई दुनिया के कई बड़े शहरों की सड़कों से ज्यादा है। अमेरीका और लंदन की तुलना में दिल्ली में प्रति हज़ार आबादी पर कारों की संख्या बेहद कम है तब भी यहां जाम ने भयंकर समस्या का रूप ले लिया है। यह समस्या मुंबई, अहमदाबाद, बंगलुरू और पुणे तक सीमित नहीं है बल्कि मध्यम स्तर के शहरों में भी जाम भयावह संकट का रूप ले चुका है।

जाम के कारण हम रोज़ का तीन से चार घंटा सड़क पर बिता रहे हैं। एक तो काम के दबाव के कारण ऐसे ही समय कम है दूसरा जाम में फंसे होने के कारण परिवार या खुद के लिए भी समय नहीं बचता। अगर आप इसका हिसाब करेंगे तब जाकर समझ पाएंगे कि क्यों सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की बात की जा रही है। इस कार ने हमें सामाजिक हैसियत तो दी है मगर हमारी सामाजिक ज़िंदगी बर्बाद कर दी है।

इस समस्या से बचने के लिए कई सारे उपाय आजमाये जाते हैं। कहीं कार पूलिंग है तो कहीं नंबरों के हिसाब से कारों के चलने का दिन तय होता है तो कहीं अनाप-शनाप मात्रा में फ्लाईओवर बनाए जा रहे हैं। तब भी जाम कम नहीं हो रहे हैं। फ्लाईओवर को फ्लाईओवर से जोड़ कर देखा जा चुका है, फ्लाईओवर के ऊपर फ्लाईओवर बनाकर देखा जा चुका है मगर जाम से मुक्ति नहीं मिली है। मेट्रो ने बहुत हद तक लोगों को सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की आदत तो डाली है मगर वो इतना महंगा है कि सबको लेकर नहीं चल सकती। मेट्रो के निर्माण में लगने वाला समय निश्चित रूप से कहीं ज्यादा है। इसलिए ज़रूरी है कि मेट्रो के अलावा बसों को बढ़ावा दिया जाए। बसों को बढ़ावा देने के लिए बीआरटी एक अच्छा विकल्प बन कर आया।

दिल्ली में शुरू से विरोध होता रहा मगर अहमदाबाद में चुपचाप यह कामयाब होता रहा। ऐसा नहीं है कि अहमदाबाद की बीआरटी की दिक्कतें नहीं हैं मगर वहां सरकार ने इच्छा शक्ति तो दिखाई। आज अहमदाबाद में 80 से 90 किमी बीआरटी गलियारे का विस्तार हो चुका है जबकि दिल्ली में 6 किमी भी पूरा नहीं हो सका। बीस साल पहले ब्राजील के एक शहर से शुरू हुआ यह प्रयोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का एक कारगर पूरक साबित हो रहा है। पूरक इसलिए कहा कि बीआरटी अपने आप में समाधान नहीं है। जहां मेट्रो नहीं वहां आप बस लें, जहां बस नहीं वहां आप मोनो रेल लें और जहां ज़रूरी है वहां कार से भी जाएं।

दुनिया के कई देशों में कारों की पार्किंग फीस महंगी की गई है। हतोत्साहित किया जा रहा है कि कार लेकर न निकलें। इसके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर किया जा रहा है। दिल्ली में पार्किंग फीस तो महंगी की जा रही है मगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट का पता नहीं। यहां तक कि डीटीसी के पास अपनी बसों को पार्क करने के लिए जगह नहीं है। इसके लिए उसे यमुना नदी का अतिक्रमण करना पड़ा है। लंदन आज एक अरब पौंड खर्च कर रहा है कि लोग साइकिल चलाने के लिए प्रोत्साहित हों। इतने खर्च के बाद भी वहां साइकिल चालक पांच प्रतिशत नहीं हैं जबकि दिल्ली में 30 प्रतिशत से ज्यादा लोग साइकिल चलाते हैं। लेकिन क्या कभी आपने इन साइकिल वालों की आवाज़ सुनी है? किसी सरकार ने इनका पक्ष लिया है? साइकिल के लिए ट्रैक बनाने का गंभीर प्रयास किया है?

हम सारा ज़ोर कार पर देते हैं। हम मान चुके हैं कि कार से ही ग्रोथ है लेकिन जिन देशों में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विकास हो रहा है वहां कार विरोधी मोर्चा नहीं खुला है। वहां भी कारें बिक रही हैं। दिल्ली में बहुत से लोग शौकिया साइकिल यात्रा पर निकलने लगे हैं। मेरे ही कई मित्र रविवार को दिल्ली में लंबी दूरी की साइकलिंग करते हैं। अगर मध्यमवर्ग कार मुक्त शहरी वातावरण के खिलाफ होता तो कनाट प्लेस में राहगीरी सफल नहीं होती। कनाट प्लेस के साथ-साथ देश के अन्य कई शहरों में राहगीरी नहीं फैलती। राहगीरी का सफल होना बताता है कि लोग कार से उकता गए हैं लेकिन कार छोड़कर घर से निकलने के विकल्प कम हैं।

गलती लोगों की नहीं है, सरकार की है। अगर वो सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का नेटवर्क बनाएगी तो लोग कार के विकल्पों का भी इस्तमाल करेंगे। एक दिन साइकिल से जाएंगे, एक दिन बस से और एक दिन मेट्रो से और बाकी दिन कार से भी। सरकार समझती है कि कार में बैठे लोग बसों के लिए अलग गलियारे के खिलाफ हैं। यह सही भी है मगर क्यों हैं इसे समझा जाना चाहिए। दिल्ली शहर को जाम से बचाने के अलावा अपने निजी जीवन के लिए कुछ समय बचाना है तो बीआरटी जैसे विकल्पों के बारे में सोचना चाहिए। आखिर बीजिंग शहर में क्यों बीआरटी को अपनाया गया। क्यों आज दुनिया में बीआरटी के 160 गलियारे हैं।

दक्षिण दिल्ली के जिस हिस्से में बीआरटी है वहां बस और साइकिल चालकों को काफी फायदा हुआ। उनकी संख्या बढ़ी है। चूंकि यह गलियारा इतना छोटा है कि उन्हें भी कई बार लगता है कि इसका कोई लाभ नहीं। बीआरटी के गलियारे से निकलते ही वे उसी जाम में फंसे नज़र आते हैं। उनकी धारणा पर वही अनुभव हावी रहता होगा। बीआरटी की अपनी दिक्कते हैं पर क्या सामान्य सड़कों की दिक्कतें नहीं हैं। फ्लाईओवर से जाम दूर नहीं हुआ तो क्या हमने उस पर पैसे बहाना बंद कर दिया। बीआरटी की बात बंद करने के लिए ही क्यों होती है। 1957 में आई दिलीप कुमार की फिल्‍म 'नया दौर' का वो आखिरी सीन याद कीजिए। उस फिल्म में बस घोड़ागाड़ी से हार गई थी, दिल्ली में एक बार बस फिर हार गई है। इस बार बैलगाड़ी से नहीं कार से। बस वालों की नियति ही हारने की है।

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