कतई नई नहीं है फ़ेक न्यूज़ की बात... हां, नाम ज़रूर नया है...

पिछले दो दशकों में जब भी पेड न्यूज़ पर विमर्श हुआ, बात आचार संहिता तक पहुंच गई. लेकिन पिछले तीन दशकों में संप्रभुता की हद तक स्वतंत्रता का भोग करने वाली पत्रकारिता, बस संहिता में बंधने की बात को सहन नहीं कर सकती थी

कतई नई नहीं है फ़ेक न्यूज़ की बात... हां, नाम ज़रूर नया है...

कई साल बाद झूठी ख़बरों की समस्या फिर चर्चा में आई है. हां, झूठी ख़बरों का नामकरण ज़रूर नया है. अपने देश में इसे इस समय अंग्रेजी में फेक न्यूज़ नाम दिया गया है. कोई 10 साल पहले इसी तरह की ख़बरों को पेड न्यूज़ कहकर चिंता जताई गई थी. उसके भी 10-20 साल पहले हम ऐसी ही दुर्लभ ख़बरों को प्रोपेगंडिस्ट मीडिया के नाम से जानते थे. यानी झूठी ख़बरों का चलन कोई नया नहीं है. हां, इसमें कुछ नया है, तो बस इतना कि दुनियाभर की सरकारें अपनी आलोचनाओं से ज़्यादा परेशान होने लगी हैं. वे होती तो पहले भी होंगी, लेकिन एक सामान्य पर्यवेक्षण है कि पहले ख़बर देने वाले प्रतिष्ठान उतने ताकतवर नहीं हुआ करते थे. पिछले आठ साल में अपने देश के मीडिया प्रतिष्ठान इतने संपन्न हो गए हैं कि वे अपने दम पर ही राजनीतिक प्रचार-प्रसार का काम संभाल सकते हैं. किसी सरकार को उखाड़ने के लिए या किसी की सरकार बनाने के लिए खुल्लमखुल्ला झूठी ख़बरें देने में जहां नैतिकता-अनैतिकता का सवाल है, इसे यह तर्क देकर जायज़ ठहराना कोई मुश्किल काम नहीं है कि झूठ के खिलाफ झूठ बोलना भी एक प्रकार का नैतिक काम ही है. खैर, दार्शनिक हीगल के इस दर्शन की नैतिकता-अनैतिकता को तय करना उतना ही जटिल काम है. फिलहाल यहां फेक न्यूज़ के कुछ दार्शनिक पहलुओं की चर्चा करने का मौका है.

फेक न्यूज़ की ताकत...
सच्ची-अच्छी बातें तो हम कक्षा एक से लेकर दीक्षित होने तक पढ़ते ही रहते है. सो, सच्ची-अच्छी बातें सामान्य घटनाएं मानी जाती हैं. ख़बर की परिभाषा ही आज यह बताई जाती है कि जिसमें कोई कंट्रास्ट और कॉन्फ्लिक्ट हो, यानी जहां झगड़ा, झांसा, लफड़ा हो या असामान्य बात हो. किसी को पगड़ी पहनाए जाने की ख़बर को ख़बर नहीं माना जाता, पगड़ी उछालने की ख़बर ख़बर बनती है, क्योंकि असामान्य बात होने का आवश्यक और सनसनीखेज़ तत्व उसमें होता है. लोक की सेवा करने के लिए सदैव तत्पर नेता और अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप इसीलिए सनसनीखेज़ ख़बरें बनती हैं, क्योंकि ऐसी ख़बरें उन्हें समग्र समाज की सेवा की बजाय खुद की या अपने समूह की सेवा में लगा हुआ दिखाती हैं. भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध होने की घटना उतनी सनसनीखेज़ नहीं होती, जितनी सनसनीखेज़ ख़बर सिर्फ आरोप लगाने की होती है, क्योंकि आरोपों के सिद्ध करने की लंबी प्रक्रिया में आरोपी जीते-जी ही गुज़र लेता है.

खास चर्चा : आज की बड़ी चुनौती है फ़ेक न्यूज़


इसी प्रक्रिया में जो झूठे आरोपों का शिकार होते हैं, वे भी गुज़र लेते हैं. यानी आरोप ही अगर किसी को तबाह कर सकते हों, तो झूठ की ताकत तो अपने आप सिद्ध हो जाती है. और वैसे भी, फेक, यानी फर्जी ख़बरों की ताकत सीधी-सच्ची बात की तुलना में हज़ारों गुना ज्य़ादा मानी जाती है. राजनीति में जनाधार की तरह मीडिया में पाठक या दर्शक आधार भी शांति या आदर्श की बातों की बजाय अगर अशांति, हिंसा अनैतिकता और झूठ की ख़बरों से बढ़ता हो, तो फेक न्यूज़ की ताकत के सामने कौन टिक सकता है.

विज्ञापन के विकल्प रूप में...
विज्ञापनों के झूठ कोई नई बात नहीं. अपने माल की गुणवत्ता का झूठा प्रचार आकर्षक विज्ञापनों से ही सधता है. इधर विज्ञापनों के ज़रिये बेचे माल को बरतते-बरतते विज्ञापनों की विश्वसनीयता कम होती चली जाना भी अनोखी बात नहीं है. इसीलिए 90 और सन 2000 के दशक में विज्ञापन की बजाय उसी प्रचार सामग्री को मीडिया की ख़बरों के रूप में पेश करने का चलन बढ़ना हमने देखा ही है. जब यह चलन शुरू हुआ था, वहीं यह भी तय हो गया था कि राजनीतिक क्षेत्र में भी अपनी उपलब्धियों का झूठा प्रचार करना और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ झूठा प्रचार किया जाना भी शुरू हो जाएगा. वही हुआ दिखा. प्रचार का काम विज्ञापनों की बजाय मीडिया को साधकर बाकायदा न्यूज़ से होने लगा. इसमें विज्ञापनों वाला तत्व होने के कारण ही विद्वानों ने इसका नामकरण फेक न्यूज़ के नाम से किया होगा.

फेक न्यूज़ से भी बड़ा एक और संकट...
फेक न्यूज़ में तो फिर भी एक शब्द न्यूज़ का जुड़ा है, लेकिन समाचारविहीनता यानी न्यूज़लेसनेस उससे भी बड़ा संकट दिख रहा है. यह काम पत्रकारिता क्षेत्र के विद्वानों और विशेषज्ञों के देखने का है कि ख़बरों को रोकने के पीछे क्या दर्शन हो सकता है. शोध परिकल्पना के रूप में कहा जा सकता है कि कोई भी विज्ञापक यह भी चाहता है कि उसके विज्ञापन की सच्चाई पर कोई सवाल न उठे. फेक न्यूज़ प्रसारित करने वाला पक्ष भी क्यों नहीं चाहेगा कि उसके खिलाफ कोई सवाल न उठे. इस तरह फेक न्यूज़ अपने अलावा किसी भी न्यूज़ को अपने लिए घातक ही मानती है. ऐसे में न्यूज़ को रोका जाना फेक न्यूज़ से भी ज़्यादा घातक सिद्ध हो सकता है. लेकिन इस शोध परिकल्पना को सिद्ध या असिद्ध करने के लिए वैज्ञानिक शोध पद्धति से अध्ययन की दरकार है.

सच को रोकने के पीछे का दर्शन...
समाजशास्त्र में एक अवधारणा है जिसका नाम है 'एनोमी'. हिन्दी में इसे अनामिकता के नाम से पढ़ाया जाता है. यह एक सामाजिक दुर्दशा की अवस्था का नाम है, जिसके पांच लक्षण पहचाने गए हैं. इनमें पहले तीन हैं, कानूनविहीनता, आदर्शविहीनता और सामाजिक अलगाव. विघटन की स्थिति का लाभ लेने वाले पक्ष कानून और आदर्श की पुनर्स्थापना को अपने लिए घातक मानते है. सर्व-सामूहिकता भी उन्हें अपने लिए नाशक-विनाशक लगती है. इस तरह फेक न्यूज़ को अपने से ज़्यादा इस बात की ज़्यादा चिंता रहती है कि न्यूज़ उन्हें बेअसर न कर दे. एक दार्शनिक प्रतिस्थापना है कि झूठ को तर्क से बड़ा डर लगता है. दार्शनिक तर्क को ही सच का रूप मानकर चलता है.

लेकिन ज्य़ादा चिंता न कीजिए, क्योंकि...
क्योंकि देश का औसत नागरिक इन वर्षो में ज्य़ादा शिक्षित हुआ है. औपचारिक शिक्षा से भी और अपने रोजमर्रा, माहमर्रा और सालमर्रा के अनुभवों से भी. वह पहले से ज्य़ादा तार्किक हुआ है. एक अनुभव है कि आजकल देश में सत्ता बदलते ही वह अपने अखबार और टीवी चैनल भी बदल देता है. आमतौर पर यह बात भी सुनने को मिलती है कि फलां अख़बार या टीवी चैनल फलां पार्टी का है और फलां फलां का. हो सकता है, फिर भी मीडिया लिटरेसी बढ़ाने की ज़रूरत हो, लेकिन अखबारों के प्रत्यक्ष ग्राहक और टीवी के अप्रत्यक्ष ग्राहकों की समझ पर यकीन करके चलना ही चाहिए. समग्र समाज की सामूहिक मेधा को लेकर निश्चिंत नहीं रहने का कोई कारण फिलहाल नहीं दिखता है.

मसला पत्रकारिता की आचार संहिता तक पहुंचेगा...
पिछले दो दशकों में जब भी पेड न्यूज़ पर विमर्श हुआ, बात आचार संहिता तक पहुंच गई. लेकिन पिछले तीन दशकों में संप्रभुता की हद तक स्वतंत्रता का भोग करने वाली पत्रकारिता, बस संहिता में बंधने की बात को सहन नहीं कर सकती थी. हमने दसियों दंतविहीन नियामक ज़रूर बनाए, लेकिन उनकी असरदारी को हम आज तक महसूस नहीं कर पाए. लेकिन आज जब पत्रकारिता के सामने अपनी विश्वसनीयता का ही सबसे बड़ा संकट खड़ा हो गया हो, तो वह अपने इस संकट से निपटने के लिए आचार संहिता की बात मान भी सकती है. आखिर अपने व्यापार के लिए विश्वसनीयता को बनाए रखना भी तो ज़रूरी है. कम से कम स्वनियमन के लिए राजी होने में उसे ज़्यादा दिक्कत नहीं होगी. अगर यह काम नहीं भी होता है, तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि मीडिया के ग्राहकों, यानी देश के समाज की समझदारी हमें सबसे ज़्यादा निश्चिंत करती है. वे भी अपने इशारों से मीडिया को ईमानदार और जागरूक बनाने का काम कर सकते हैं. काम क्या, बल्कि बाध्य कर सकते हैं.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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