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This Article is From May 04, 2016

हर भारतीय के 'ज्ञान के अधिकार' के लिए भावुक अपील और जुकरबर्ग का शुक्रिया

Dr Vijay Agrawal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 04, 2016 13:32 pm IST
    • Published On मई 04, 2016 13:22 pm IST
    • Last Updated On मई 04, 2016 13:32 pm IST
इस बार के शुक्रवार ने मुझे कुछ ज़्यादा ही निराश किया। सोचा तो सही था कि वह फिल्म हिन्दी में डब होकर तो ज़रूर आएगी, लेकिन नहीं आई। निराश तो होना ही था। और सच पूछिए तो बहुत गुस्सा और कुछ-कुछ शर्म भी आई कि 'यह फिल्म हिन्दी में डब हुई ही नहीं है...'

दरअसल, मैं बात कर रहा हूं, फिल्म 'द मैन हू न्यू इनफिनिटी' (The Man Who Knew Infinity) की, जिसे ब्रिटेन के एक फिल्म निर्देशक ने बनाया है। मेरी निराशा, गुस्सा, दुःख और शर्म का कारण यह था कि यह फिल्म भारत के उस महान गणितज्ञ की जीवनी पर बनी है, जो 33 साल की उम्र में ही गणित के क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से दुनिया को चमत्कृत करके वर्ष 1920 में इस दुनिया से चल बसा था। हम सब उन्हें श्रीनिवास रामानुजन के नाम से जानते है। ब्रिटेन के एक फिल्मकार ने उन पर फिल्म बनाई, इसका कारण यह था कि ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हार्डी की देखरेख में उनकी यह प्रतिभा फली-फूली और दुनिया के सामने आ पाई थी।

इस फिल्म को तो मैं अब तक नहीं देख पाया हूं, लेकिन देखने से पहले उससे जुड़े कई सवाल मेरे दिमाग को तंग कर रहे हैं। मुझे लगा कि यदि मैं अपने उन विचारों को आपके साथ बांट लूं, तो शायद तंग होना थोड़ा कम हो जाए।

मन में पहला सवाल तो यही उठ रहा है कि जिस विषय पर भारत को फिल्म बनानी चाहिए थी, उस पर ब्रिटेन ने बनाकर एक बार फिर बाज़ी मार ली। गांधी जी के साथ भी हमने यही किया था। जिन्हें दुनिया मानती है, हम अपने ही यहां के उन लोगों को क्यों नहीं मान पाते...? 'घर का जोगी जोगना' की कहावत को हम कब तक चरितार्थ करते रहेंगे...?

दूसरा यह प्रश्न मन को लगातार कुरेद रहा है कि चलिए मान लेते हैं कि फिल्मी दुनिया के लोगों को रामानुजन की जानकारी नहीं होगी, हालांकि यह मानना फिल्म जगत की मानहानि करना होगा, तो देश में इतनी शैक्षणिक संस्थाएं हैं, वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र हैं, इनमें से कोई भी यह बीड़ा उठा सकता था।

यदि हम व्यावसायिक दृष्टि से भी देखें, तो अभी भारत में बायोपिक फिल्मों का दौर चला हुआ है। डाकुओं से लेकर खिलाड़ियों तक पर दनादन फिल्में बन रही हैं, और कमाई भी कर रही हैं, तो क्या रामानुजन जैसों को फायदे का सौदा नहीं समझा जाता...?

चलिए, ओरिजनल फिल्म न सही... यदि कोई अन्य देष भारतीय मेधा पर कोई फिल्म बनाता है, तो हम इतना तो करें कि उसको कम से कम हिन्दी में डब करके अपना ऋण चुकाने की कोशिश करें। विश्वास कीजिए, बहुत फायदे का काम होगा। अभी-अभी अंग्रेजी में 'जंगल बुक' फिल्म आई थी। यह हिन्दी में भी आई। हिन्दी ने अंग्रेजी से अधिक का व्यापार किया।

रामानुजन पर बनी फिल्म के साथ भी यही होता। विज्ञान का हर विद्यार्थी इसे देखता... और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह एक बहुत बड़ी 'इन्स्पिरेशन फिल्म' का काम करती। रामानुजन एक बहुत ही सामान्य एवं परम्परागत परिवार से थे, और वह आज भी भारत के युवाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं। अंग्रेजी भाषा में बनने के कारण इसकी पहुंच बहुत कम रह गई है, फलस्वरूप उपयोगिता भी।

नोबेल पुरस्कार विजेता नैश पर बनी फिल्म हिन्दी में डब होकर आई थी। हम भारतीय नैश में स्वयं को देखकर उनसे उतने प्रेरित नहीं हो सकते, जितने रामानुजन से हो सकते हैं, इसलिए ऐसी फिल्मों को हिन्दी में लाने तथा उसे टैक्स फ्री करने के बारे में कम से कम सरकार को तो सोचना ही चाहिए। न जाने कितने बड़े-बड़े फाउंडेशन और ट्रस्ट शिक्षा पर करोड़ों-अरबों खर्च कर रहे हैं। वही सोच लें, ऐसे कामों के बारे में। आखिर यह भी तो शिक्षा का ही क्षेत्र है, फिल्म हुई तो क्या हुआ।

यहां मैं बताना चाहूंगा कि कुछ ही दिन पहले यह फिल्म अमेरिका के 50 विशिष्ट लोगों को दिखाई गई थी, और फिल्म देखने के तुरंत बाद फेसबुक वाले मार्क ज़करबर्ग ने रामानुजन के नाम से एक फाउंडेशन बनाने की घोषणा कर दी।

इसी के साथ मैं अंग्रेजी में बनी एक अन्य, किन्तु अमेरिकन, फिल्म की याद दिलाना चाहूंगा - 'इन्टरस्टेलर' (Interstellar), जो 2014 में रिलीज़ हुई थी। भारतीय दर्शन पर आधारित यह साइंस फिक्शन फिल्म अद्भुत है... काश! यह भी हिन्दी में आ पाती।

रामानुजन के बारे में जानना हर भारतीय का 'ज्ञान का अधिकार' है। क्या कोई मेरे इस अधिकार की रक्षा के लिए आगे आएगा...? क्या कोई मेरी इस गुहार को सुनेगा...?

डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...

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