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This Article is From Apr 15, 2016

तेंदुए ! ये शहर हैं। यहां जो भटक गया, वो राह कहां पाता है..

Dharmendra Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 15, 2016 14:42 pm IST
    • Published On अप्रैल 15, 2016 14:37 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 15, 2016 14:42 pm IST
मेरठ शहर में कहीं से भटककर एक तेंदुआ आ गया। दो दिनों तक शहर थम गया। बच्चों के स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए गए। आज खबर छपी है कि तेंदुआ पकड़ा गया है। उसे बेहोश कर पिंजरे में डालकर ले जाया गया है। ये पता नहीं चल सका है कि अब उसका शेष जीवन कहां कटेगा? उसकी अपने घर-वापसी होगी या मनुष्य निर्मित किसी चिड़ियाघर के बाड़े में उसके दिन कटेंगे।

यह तेंदुए के शहर में आ जाने और चले जाने की संक्षिप्त कथा है पर घटनाक्रम संक्षिप्त नहीं रहा। इन दो दिनों में शहर ने जैसे किसी शैतान से जंग लड़ी हो, माहौल कुछ ऐसा बन गया। तेंदुए को शिकस्ता दुश्मन के मानिंद घेर लिया गया। मुठभेड़ें शुरू हो गयीं। कभी तेंदुआ भारी कभी शहर भारी। कुछ लोगों के हाथ में लाठी,डंडे ,फरसे,तलवार जैसे अस्त्र-शस्त्र तो कुछ के हाथ में वीडियो मोड पर ऑन मोबाइल। एक दृश्य है जिसमें जानवर हमला कर कर थक गया है। एक पानी के हौदे में जा छुपा है। कोई डरा-सहमा बच्चा जैसे पल भर के लिए छुपा-छुपाई के खेल में छुपने की अच्छी जगह पा गया हो। वह हौदे के किनारे की आड़ से छुपकर देखता है। दो डरी हुई आंखें कुछ देख रही हैं। 'मारो-मारो 'का वही जाना-पहचाना शहरी शोर है जो सिर्फ जानवरों के ख़िलाफ़ ही नहीं, मैं अक्सर अपनी नौकरीनुमा जिंदगी में आदमी को आदमी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हुए सैकड़ों बार सुन चुका हूं।

याद आई केदारनाथ सिंह की कविता 'बाघ'
शहर संकल्पित है। इस जानवर को मारा जाना शहर के लिए जरूरी है। एक जानवर ने शहर में एकराय कायम कर दी है। मुझे समकालीन हिंदी कविता के एक चर्चित रचनाधर्मी केदारनाथ सिंह की एक लंबी कविता 'बाघ' याद आ रही है। 'शहर' के साथ एक 'जानवर' की मुठभेड़...शहर में जानवर है या जानवर में शहर..एक दूसरे को अतिक्रमित कर कुछ सवाल हवा में तैर रहे हैं...शहर कौन है ? जानवर कौन ? कविता इस तरह है...

"सुबह के अखबार में
एक छोटी सी खबर है
कि पिछली रात शहर में
आया था बाघ !

पर सवाल यह है
कि आखिर इतने दिनों बाद
इस इतने बड़े शहर में
क्यों आया था बाघ?
क्या वह भूखा था?
बीमार था
क्या शहर के बारे में
बदल गए हैं उसके विचार ?
यह कितना अजीब है
कि वह आया
उसने पूरे शहर को
एक गहरे तिरस्कार
और घृणा से देखा
और जो चीज़ जहां थी
उसे वहीं पर छोड़कर
चुपचाप और विरक्त
चला गया बाहर.."


हौदे से झांकतीं तेंदुए की दो आंखों में है 'तिरस्कार'
कविता लंबी और अर्थगर्भित है। मेरे लिए इतना ही अंश मुफीद है। तेंदुए की पानी के हौदे से झांकती दो आंखें कहीं गहरे में गढ़ गयी हैं। उनमें 'तिरस्कार' है जो हमारे 'सभ्यताई नमस्कार' का प्रतिकार है। एक 'घृणा' है जो किसी से उसका घर छीन लिए जाने पर न्यायोचित रूप से पैदा हो जाती है। 'विरक्ति' है जो विकल्पहीनता की अवस्था से निकलकर 'चिड़ियाघर' की ओर चली जाती है ।

बाघ,तेंदुए हतभाग्य हैं। बदनसीब। उन्हें तो मृगों की कोमलता के समान भी नहीं माना गया है। कालिदास के शाकुन्तलम् का आश्रम अब कहां है !
"भो भो राजन्, आश्रममृगोयम् न हन्तव्यो न हन्तव्य: ।"(रुको राजन,ये आश्रम के मृग हैं ।ये अबध्य हैं ।)...
उस युग के वैखानस ने जो कहा वो माना कहां गया..
"तत्साधुकृतसंधानं प्रतिसंहर सायकम ।
आर्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि ।।"
(शस्त्र की संकल्पना तो दुःखित और त्रस्त जीव की संरक्षा के लिए की गयी है, निरपराध जीव की हत्या के लिए नहीं )

प्राचीन काल में शान की बात रही है बाघों-तेंदुओं का संहार
ऐसी बातें उस युग की 'नीति निर्देशक तत्व' की तरह  रही होंगी। पढ़ लिया गया। भुला दिया गया। बाघों-तेंदुओं का संहार एक शान की बात रही है। कहा जाता है और यह प्रमाणित भी है कि सरगुजा के राजा ने अपने जीवन में करीब हजार से ज्यादा शेर मारे पर तब तेंदुए शहरों में न आते थे। बल्कि शहर खुद चलकर तेंदुओं और बाघों के घरों में हांका लगाते हुए जाते और लौटते तो कहारों के कंधों पर खिंची हुई खाल के साथ कोई बाघ या तेंदुआ लटका हुआ आ रहा होता। शायद उनके शावक पीछे-पीछे शहर की सरहद तक विदाई देने जरूर आते होंगे ।

..पर शहर तो अपने हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं
पर शहर, शहर ठहरे। वह अपने हितों के लिए कटिबद्ध हैं। उन्हें मंडियों की आवाज पसंद है, गौरैयों की नहीं। वो अपना विस्तार चाहते हैं। खेतों ,खलिहानों ,जंगलों और वन्य-जीवों को बुलडोज करते हुए। उनके पास जगह की कमी है। जज़्बात की तंगी है। तेंदुए ! तू गलत जगह फंसा। ये शहर हैं। यहां जो भी भटक गया, वो फिर राह कहां पाता है। यहां के रास्ते बाड़ों, चिड़ियाघरों की ओर  खुलते हैं। तू छोड़ अपने शावकों की चिंता ! मनुष्य अभी प्रगति कर रहा है !
तूने ख़लल कैसे डाला ! अब दंड भोग... ।

धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...

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