नागार्जुन 'प्रतिबद्धता' के कवि हैं। बिना लाग लपेट घोषित भी कर देते हैं ।इस दौर में जबकि प्रतिबद्धताएं पेंडुलम बन गयी हों ।'सम्बद्धताएं' छलावरण में जी रही हों, जन-कवि नागार्जुन की काव्य-संवेदना एक दर्पण है जिसमें झाँककर अपनी अपनी सूरतों को सही-सही देखा जा सकता है। हम सभी ने इन आइनों को उलट दिया है। असली चेहरा मेक अप में दब गया है। नागार्जुन के जरिये उसे फिर हासिल किया जा सकता है। प्रतिबद्धताओं को फिर से संवारा जा सकता है। उनकी तरह प्रतिबद्धताओं की घोषणा फिर से पुनर्भाषित करके-
'प्रतिबद्ध हूँ, जी हाँ ,प्रतिबद्ध हूँ-
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त-
संकुचित स्व की आपाधापी के निषेधार्थ
अविवेकी भीड़ की भेड़िया धसान के खिलाफ़
अपने आप को व्यामोह से बारंबार उबारने की खातिर
प्रतिबद्ध हूँ,जी हाँ ,शतधा प्रतिबद्ध हूँ ।'
नागार्जुन की यह कविता उनका समूचा प्रतिनिधि-दर्शन है। आखिर हम लोगों की, खासतौर से वह लोग जो शासक-प्रशासक वर्ग हैं, बुद्धिजीवी हैं, लेखक,रचनाकार पत्रकार हैं उनकी प्रतिबद्धता किसके लिए हो? नागार्जुन इन्हीं अर्थों में जन-कवि हैं। जहाँ किसी की निगाह ही न पहुंचे,वहाँ नागार्जुन का काव्य खड़ा मिल जाता है। 'धँस गए, दूधिया निगाहों में, फटी बिबाईओं वाले खुरदरे पैर..।'धँस गए कुसुम-कोमल मन में गुट्ठल घटठों वाले खुरदरे पैर....। खुरदरे पैर नागार्जुन को याद रह जाते हैं। भीतर तक धंसे हुए। अपराध बोध मध्यम-वर्गीय चेतना है,वशर्ते वह नैतिकता से अनुप्राणित रह सके। आधुनिक कवियों में वह मुक्तिबोध में प्रखरता से मौजूद है। 'कुछ न कर पाने का अहसास' रह रह कर सालता है। वंचित वर्गों के प्रति मुक्तिबोध में यह अनुभूति गहरे मनोवैज्ञानिक सन्दर्भों में बदल गई थी। उनकी एक रचना है-
'बहुत शर्म आती है
मैंने खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों में, जब खेतों-खलिहानों के हाथ
बहुत खून था छोटी छोटी पंखुड़ियों में
जो शहीद हो गयीं किसी अनजाने कोने
कोई भी न बचा
केवल पत्थर रह गए, तुम्हारे लिए अकेले रोने....
नागार्जुन में भी यह चेतना प्रखर है। लेकिन वह निरूपायता-बोध से आगे बढ़कर परिवर्तन की प्रस्तावक है। बाबा नागार्जुन की 'हरिजन गाथा' में उनकी क्रांतिकारी चेतना खुलकर व्यक्त होती है । (ये भी पढ़ें : बात पते की : बाबा नागार्जुन जो कहते थे जनता का कवि हूं मैं...)
रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं, नीच मैं
दूर जाकर गिरा
धँस गया आकंठ कीचड में..
उनके मध्य लेता रहा आँखें मींच मैं
उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच मैं!
था पतित मैं, नीच मैं !!
नागार्जुन को इस समाज की इलीट (अभिजनवादी) सोच का पता था। वह सोच जो हकीकत में कुछ और,दिखावट में कुछ और है। वह सोच जो आज एक स्थापित इलीट संस्कृति में बदल गयी है।'जो किसी बोझा ढोते, ठेला खींचते, धूल-धुंए में पसीने से लथपथ 'ट्राम में बैठे 'कुली-मजदूर' से सटकर बैठने में अपना स्तर 'गिरा हुआ' पाती है। बाबा नागार्जुन उसी इलीट सोच से पूछ बैठते हैं-
'पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचका
सटता है बदन से बदन-
पसीने से लथपथ
.......
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कुढ़ता है?
...कुली मजदूर हैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सटकर
आपस में उनकी बतकही
सच-सच बतलाओ
नागवार तो नहीं लगती है?
घिन तो नहीं आती है?
'घिन तो नहीं आती है?' यह नागार्जुन ही पूछ सकते थे।फक्कड़ मिजाज थे। नामवर सिंह जी ने लिखा है कि 'मनुष्य' के ये रूप यदि नागार्जुन न होते तो हिंदी कविता में शायद ही आ पाते। 'पसीने का गुण धर्म' उन्हें बेचैन रखता था ।
"क्षार-अम्ल
बिगलनकारी,दाहक
रेचक,उर्वरक
रिक्शेवाले की पीठ पर फटी बनियाइन
पसीने के गुण-धर्म को कर रही है प्रमाणित.."
नागार्जुन ने 'बादल को भी फिरते देखा' था और 'अकाल और उसके बाद' के दृश्य भी। वह एक व्यक्तित्व के तौर पर कई विपरीत-भावों को एक साथ साध सकते थे। अकाल पर लिखी आठ लाइनों की उनकी कविता अंतर्मन को छेद जाती है। अकाल के घर में अकेला आदमी ही तो नहीं रहता। नागार्जुन सबको देखते हैं। अन्न के अभाव से जनित उदासी को भी और घर में 'दाने' आने के बाद आया उल्लास भी..दोनों दृश्यों में मनुष्य भी है और मनुष्येतर जगत भी। यह थी नागार्जुन की पहुँच। मानव से होते हुए मानवेतर..। 'हद में चले सो आदमी, बेहद चले सो साध (कबीर)। कविता देखें ।
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आये घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठीं घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाखें कई दिनों के बाद ।
नागार्जुन की राजनैतिक चेतना असंदिग्ध थी। वह दुर्बल और वंचित वर्ग के पक्षधर थे। उनकी यह पक्षधरता खुलकर थी। बेलछी कांड के बाद जिसमें कई दलितों को जलाकर मार दिया गया था, सन् 77 में लिखी गयी उनकी कविता 'हरिजन गाथा' सामाजिक विषमता,अन्याय और शोषण के विरुद्ध उनकी खुली गवाही के तौर पर थी। बिना लाग-लपेट,निर्भय होकर उनकी 'हरिजन-गाथा' हमारे समाज के क्रूर चरित्र पर भयानक और सटीक टिप्पणी थी ।'हरिजन बस्ती में पैदा हुए नायक को संत गरीबदास भविष्य का नायक बताते हुए उसे सावधानी से छुपाकर पालने की सलाह देते हैं ।
'खान खोदने वाले सौ सौ
मजदूरों के बीच पलेगा
युग की आंचों में फौलादी
सांचे सा यह वहीं ढलेगा'
डर भी है ..'इसे भेज दो झरिया-फरिया, माँ भी शिशु के साथ रहेगी,बतला देना, अपना असली नाम पता कुछ नहीं कहेगी ।'
'सबके दुःख में दुखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझबूझकर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा ।'
'समता के असली मुद्दे की पहचान' यही नागार्जुन की कविताओं की खोज है। यही हम सभी की खोज है उनकी कविताओं में चुटीला व्यंग है। कबीर के बाद जो व्यंग गद्य में परसाईं जी के लेखों में विद्यमान है, वही कविता में नागार्जुन के यहाँ मौजूद है।
अन्याय और सामाजिक असमानताओं से भरेपूरे समाज में नागार्जुन की लेखनी एक प्रकाश-स्तंभ है जिसकी रोशनाई में हम दूर तक चले जा सकते हैं। वह जितनी अपने रचनाकाल के समय में प्रासंगिक थी,उससे ज्यादा आज है ।जब कि आज 'प्रतिबद्धताएं' खतरे में हैं,हम सभी समाज की बेहतरी के लिए उनकी रचनाओं में से अपने अपने हिस्से के शीशे ढूंढकर अपने अपने चेहरे देख सकते हैं ।आखिर 'फटी बनियान' वाले के प्रति भी तो कोई जिम्मेदारी बनती ही है।
धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं...
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This Article is From Jun 30, 2016
बाबा की याद : घिन तो नहीं आती है?' यह नागार्जुन ही पूछ सकते थे...
Dharmendra Singh
- ब्लॉग,
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Updated:जून 30, 2016 18:25 pm IST
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Published On जून 30, 2016 17:32 pm IST
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Last Updated On जून 30, 2016 18:25 pm IST
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