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This Article is From May 30, 2015

ट्विटर पर दलित संगठनों की धमक, पर चमक क्यों है फीकी

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    मई 30, 2015 11:24 am IST
    • Published On मई 30, 2015 11:03 am IST
    • Last Updated On मई 30, 2015 11:24 am IST
@dalitdiva मैंने तो ऐसा हैंडल नहीं देखा। ट्विटर न कहीं और भी। अंग्रेज़ी शब्द है दिवा, जिसका इस्तेमाल सिनेमा और मॉडलिंग जगत की परियों जैसी बालाओं के लिए किया जाता है। थेनमाझा सौंदराराजन की ख़ूबसूरती उनके ट्विटर हैंडल से और भी बढ़ जाती है। इस नाम में एक किस्म की बग़ावत तो है ही। बाज़ार और जाति के बनाए सौंदर्य रूपों का विद्रोह है ये नाम। मेरी दिलचस्पी सौंदराराजान के पीछे-पीछे ले गई। मैं गूगल में उनके निशान ढूंढने लगा। पता चला कि सौंदराराजान दलित, रंगभेद और नस्ली हिंसा के ख़िलाफ़ अनेक माध्यमों में लिखती हैं और मानती हैं कि इन कहानियों को सामने लाने से दुनिया बदलती है। सौंदरा http://dalitnation.com के लिए काम करती हैं। खुलकर लिखती हैं और सीधे सवाल करती हैं। आंखों में आंखें डालकर।

आप पाठकों को मैं आज ट्विटर की दुनिया में दस्तक दे रही दलित आवाज़ों की दुनिया में ले चलता हूं। फोलोअर के हिसाब से ये दुनिया फ़िलहाल छोटी मालूम पड़ती है और मेरी उस बात की तस्दीक करती है कि ट्विटर पर दलित मसलों पर समर्थन क्यों नहीं मिलता है। एनडीटीवी के ब्लॉग पर ही लिखा था कि ऐसा क्यों होता है कि धार्मिक और जातिगत पहचान लेकर सवर्णों की कई जातियां खुलेआम ट्वीट करती हैं, लेकिन उनके मुकाबले दूसरी पिछड़ी और दलित जातियां कमज़ोर पड़ जाती हैं। धार्मिक और जातिगत पहचान वाले सवर्णों के प्रोफाइल में जाएंगे तो पता चलेगा कि ये बेहद चालाकी से राष्ट्रवाद और किसी संगठन का झंडा लहराकर अपने जातिगत स्वाभिमान को राष्ट्रीय रूप दे देते हैं। कई बार सोचता रहा देश की आबादी का एक बड़ा प्रतिशत है दलितों का। दलितों के बीच पनपा मध्यमवर्ग क्या अपनी पहचान को लेकर आशंकित है या वो वाकई किसी गैर जातीय ईकाई में बदल चुका है। बदल भी गया है तो कम से कम वो जाति आधारित शोषण के ख़िलाफ़ टिप्पणी तो कर ही सकता है।



लेकिन शुक्रवार को जब आईआईटी मद्रास में अंबेडकर पेरियार स्टुडेंट सर्किल की मान्यता रद्द करने का विवाद हुआ तो ट्विटर पर इस ग्रुप का एक हैंडल देख मैं खुद भी चौंका। किसी को देश में फैलते जातिवाद को लेकर चिन्ता है तो इनकी टाइमलाइन पर जाकर देखना चाहिए कि किस तरह से इनके बारे में ज़हर उगला गया है। हमारे देश में कई अच्छे लोग बिना जातिवाद को चुनौती दिए, उस धर्म को चुनौती दिये जिसकी बुनियाद पर ये जातिवाद खड़ा है, जातपात से दूरी बनाने की नादानी पाल लेते हैं। उनकी इस खुशफ़हमी का स्वागत है लेकिन यह समझना चाहिए कि बिना बुनियाद पर चोट किये आप इस ज़हर का निदान नहीं पा सकते हैं।

@ambedkarperiyar को पांच सौ से ज्यादा लोग फोलो करते हैं। इनके 370 से कुछ अधिक ट्वीट्स हैं। कई लोगों ने इनके सर्किल को प्रतिबंधित किये जाने का समर्थन भी किया है लेकिन जो जातिगत हमला किया गया है वो मुझे तो हैरान नहीं करता। इस समूह की एक खास बात यह है कि इन्होंने हर तरह की गालियों जैसी दलील का जवाब दिया है। पलट कर सवाल पूछे हैं। वंदेमातरम आईआईटी मद्रास के फेसबुक पेज का लिंक ट्वीट करते हुए चुनौती दी है कि अगर हम अपने सर्किल में आईआईटी का नाम नहीं लगा सकते तो दक्षिणपंथी संगठनों को क्यों छूट मिली है। वंदेमातरम आईआईटी मद्रास के फेसबुक पेज को 410 लाइक्स मिले हैं और एस गुरुमूर्ति और सुब्रमण्यम स्वामी के लेक्चर का वीडियो पोस्ट किया गया है। अंबेडकर पेरियार के ट्वीट ने कहा है कि हमने आईआईटी मद्रास में ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों का पर्दाफाश कर दिया है। एक दूसरे ट्वीट में कहा है कि हमें ईरानी और गांधी का समर्थन नहीं चाहिए। हम बीजेपी-कांग्रेस दोनों का ही विरोध करते हैं।

दलित मुद्दों को लेकर बने इन ट्विटर हैंडल पर अखबारों में छपी उन ख़बरों को साझा किया जा रहा है जिन पर मुख्यधारा की मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती, लेकिन हैरानी की बात है कि ट्विटर की दुनिया का बर्ताव मुख्यधारा की मीडिया से अलग नहीं है। वहां भी ऐसे मसलों को कम री-ट्वीट मिलते हैं। ऐसा लगता है कि सब सहमत हों कि अच्छा ही हुआ कि राजस्थान में तीन दलितों को ट्रैक्टर से कुचल दिया गया। अच्छा ही हुआ कि मध्यप्रदेश में दलित परिवारों को कुएं से पानी नहीं लेने दिया गया। दलित दिवा ने महाराष्ट्र में अंबेडकर के उस गाने को साझा किया है जिसका रिंगटोन बजने पर दलित युवक की हत्या कर दी गई।

ये सभी ट्विटर हैंडल एक दूसरे को फोलो करते हैं। संख्या के हिसाब से दो हज़ार लोग भी फोलो नहीं करते हैं, लेकिन मुद्दे यहां बिना किसी लाग लपेट के उठाए गए हैं। मैंने आठ-दस ट्विटर हैंडल ही देखे हैं और इनमें से ज्यादातर 2009 से लेकर 2012 के बीच के बने हुए हैं। ट्विटर पर आम तौर पर बड़े समाचार माध्यमों और फिल्मी और मीडिया के लोगों को ही ज़्यादा फोलो किया जाता है।

@Community Media नाम से बने हैंडल ने अपील की है कि वे अंबेडकर पेरियार स्टुडेंट सर्किल के हैंडल को फोलो करें और उनका समर्थन करें। अंबेडकर कारवां के हैंडल पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के विचारों और कथनों को साझा किया जाता है। @Community Media को 1849 लोग फोलो करते हैं और इसके 8000 से ज़्यादा ट्वीट हैं। यहां तक कि ज़माने से पायनियर में दलित डायरी लिखने वाले चंद्रभान प्रसाद के ट्विटर हैंडल को भी 2000 से ज़्यादा लोग फोलो नहीं करते हैं। जबकि चंद्रभान अंग्रेज़ी से लेकर हिन्दी के तमाम चैनलों पर बतौर विशेषज्ञ आते रहते हैं। वे एक जाना माना नाम हैं लेकिन लगता है कि उनमें ट्विटर जगत के ग़ैर जातीय महानगरीय राष्ट्रवादी लोगों की कम ही दिलचस्पी है। चंद्रभान ने आईआईटी मद्रास के छात्रों का समर्थन किया है।
  @Community Media डॉक्टर अंबेडकर के भाषणों और विचारों को ट्वीट करता है। एक ट्वीट में डॉक्टर अंबेडकर का वो मशहूर कथन ट्वीट किया गया है कि श्रुति और स्मृति पर आधारित धर्म को नष्ट कर दो। ज्योतिबा फुले की ऐतिहासिक किताब गुलामगीरी के फ्री डाउनलोड करने की सूचना भी दी गई है। @dalitwomenfight, @dallitfreedom, @dalitcamera, @dalitrising, @dalit_revolt नाम से कुछ और हैंडल मिले। @dalityuvadal नाम से एकमात्र हैंडल मिला जो हिन्दी में ट्वीट करता है। इसे भी 400 लोग भी फोलो नहीं करते हैं।



किसी को इनके ट्वीट भड़काऊ लग सकते हैं लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो ये उन सवालों पर उग्र तरीके से चोट करते हैं जिन्हें लेकर व्यापक समाज की चुप्पी काफी गहरी हो चुकी है। मध्य प्रदेश में एक दलित युवक को घोड़ी पर चढ़ने के लिए हेलमेट पहनना पड़ा क्योंकि सवर्ण जातियों को लगा कि ये उनका अपमान है। जात-पात को लेकर चिन्तित समाज को इनकी बातों में अतिरेक लगता है तो तुरंत नाराज़गी ज़ाहिर कर देता है मगर ऐसी घटनाओं पर उसकी चुप्पी क्यों न समझी जाए कि वो जातिवादी शोषण का विरोध नहीं करता है। दलित युवा दल के ट्वीट तीखे ज़रूर हैं लेकिन सड़क पर हिंसक होने के बजाए लिखकर चुप्पी को तोड़ने का प्रयास भी तो है। एक ट्वीट में कहा है कि दलित पुरुष कायर हैं तभी सवर्ण समाज के लोग दलित बेटियों पर बलात्कार कर रहे हैं।

निश्चित रूप से इंटरनेट जगत में मौजूद दलित महिला अधिकार मंच ऐसी बातों का समर्थन नहीं करेंगे। दलित पुरुषों की कायरता को ललकारने का मतलब है कि इसका समाधान इस बात में निकाल लिया गया है कि वे कायर न हों तो ऐसा नहीं होगा। ज़ाहिर है यह समस्या का समाधान ऐसी ललकारों से नहीं निकलना है। कई ट्विटर हैंडल से पता चला कि दलित महिला संगठन की कार्यकर्ता अपने अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क के ज़रिये भी जात-पात के शोषण को उठा रही हैं।



ट्विटर पर दलित चिन्तकों और संगठन की धमक यहां मौजूद दक्षिणपंथियों के वर्चस्व को तोड़ पाती है या नहीं मगर उनकी मौजूदगी बता रही है कि वे अपनी आवाज बिना सुनाए चुप भी नहीं रहने वाले हैं।

इस लड़ाई को कई लोग आरक्षण समर्थन और विरोध की ढाल से लड़ने लगते हैं या इसके नाम पर बचने लगते हैं। दलितों के शोषण का मसला सिर्फ आरक्षण का नहीं है। वैसे यह जानने में कोई हर्ज़ नहीं कि दक्षिणपंथी ताकतें आरक्षण के अलावा शोषण और दमन के इन किस्सों पर क्या राय रखती हैं। सिर्फ 14 अप्रैल को अंबेडकर के नाम पर रैली कर देने से अंबेडकर किसी के नहीं हो जाते हैं। आज न कल इन सवालों से टकराना ही होगा। देश का कोई भी जनमत इन सवालों को हल किये बिना न तो आधुनिक हो सकता है न राष्ट्रवादी।

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