सोनिया ने सस्ती दाल के लिए महरौली से पुरानी दिल्ली स्टेशन के बीच साढ़े बाईस किलोमीटर की दूरी तय की है और वंदना ने द्वारका से महरौली होते हुए पुरानी दिल्ली के बीच 33.4 किलोमीटर की दूरी। इसी तरह ग़ाज़ियाबाद से आगे दादरी से आए एक सज्जन से मुलाकात हुई जो लोकल ट्रेन पकड़कर सस्ती दाल खरीदने आए थे। इन्होंने चालीस रुपये प्रति किलो वाली निम्नतम क्वालिटी की दाल खरीदने के लिए करीब 56 किलोमीटर की दूरी तय की थी। दादरी से पुरानी दिल्ली तक आने में लोकल ट्रेन से इन्हें एक घंटा लग गया था। उसी तरह से एक महिला से मुलाकात हुई जो यूपी की सीमा से लगे लोनी इलाके से दाल लेने आई थीं। लोनी और मिठाई पुल के बीच की दूरी 20 किमी है। बस से आने जाने में कम से कम ढाई घंटे लग गए होंगे। नांगलोई से एक जनाब 17 किमी और गुड़गांव से दो मित्र 38 किमी की दूरी तय कर दाल खरीदने आए थे। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इसी दिल्ली में लोग दाल के लिए रविवार का पूरा दिन लगा दे रहे हैं। सारी दूरी मैंने गूगल से निकाली है लेकिन इन इलाकों से आए लोगों से मुलाकात की कहानी बिल्कुल सच्ची है।
भीड़ की कोई कमी नहीं थी। तरह-तरह के पहनावों और बोली बोलने वाले लोग यहां इस भरोसे के साथ खरीदारी कर रहे थे कि कोई देख न ले। किसी को पता न चल सके कि वे यहां आकर दाल चावल खरीदते हैं। लोगों ने बताया कि कुछ लोग सुबह-सुबह जल्दी आ जाते हैं ताकि भीड़ की निगाह से बच जाएं। होटल वाले भी आते हैं और यहां से सस्ता माल ले जाकर लोगों को खिला रहे हैं। कुछ लोग ज्यादा मुखर और ईमानदार निकले। बताने वालों की भीड़ से मैं घिर गया। एक ने कहा कि तीन साल से सात हजार की तनख्वाह में एक रुपये की बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। मिठाई पुल का बाजार नहीं होता तो घर नहीं चला पाते। धूल कंकड़ वाले चावल-दाल खरीद कर ले जाते हैं। इसी को छांट-छांट कर बनाते हैं। मतलब समय इनके लिए समस्या नहीं है। समस्या है कीमत और क्रयशक्ति, जो इनके पास नहीं है। किसी ने कहा कि वे पहले साठ रुपये वाली दाल खाते थे लेकिन कुछ हफ्तों से चालीस रुपये वाली दाल खाने लगे हैं।
दाल को लेकर इतनी बातें होने लगीं कि थोड़ी देर के लिए मैं पूरी दिल्ली को दाल की नज़र से देखने लगा। मुझे भ्रम सा होने लगा कि वहां आए तमाम लोग मुझे दाल-दाल, दिल्ली-दिल्ली चिल्ला रहे हैं। ढाई सौ ग्राम सस्ती दाल के लिए लोगों का हुजूम दिल्ली- दिल्ली भटक रहा है। दाल महंगी हुई है। इस बाज़ार में भी दाल महंगी हुई है। एक दुकानदार ने कहा कि हमारा जो चालीस रुपये वाला माल था वह अब साठ का हो गया है और साठ वाला अस्सी का। नतीजा यह है कि साहब लोग एक किलो की जगह ढाई सौ ग्राम दाल खरीद रहे हैं। हमारी बिक्री भी कम हो गई है। आप जानते हैं कि दाल की कीमत 140 से 160 रुपये के बीच पहुंच गई है। दाल-रोटी के बिना न तो भोजन हो सकता है, न भजन। लेकिन इस दाल को हासिल करने के लिए लोगों को कितनी दाल गलानी पड़ रही है। पसीना और पैसा दोनों बहाना पड़ रहा है।
एक महिला ने कहा कि उसके घर में अब हफ्ते में एक दिन दाल बनती है। बाकी दिन सुबह शाम रसदार सब्ज़ी से काम चला लेते हैं। चावल भी महंगा हो गया है। हम कब तक कंकड़ वाला चावल खाएंगे। हमारी कोई नहीं सुनता। गरीब क्या खा रहा है इसे देखने वाला कोई नहीं। शायद वह सही है। हम यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि दिल्ली महानगर में गरीबी का यह स्तर होगा। यहां आने वाले सारे लोग गरीब नहीं हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दस से पंद्रह हजार रुपये महीना कमा रहे हैं और कुछ ऐसे भी मिले जो चालीस हजार रुपया महीना कमा रहे हैं। दो पैसे की बचत के लिए लोग कितनी मेहनत कर रहे हैं।
पीली कोठी मिठाई पुल पर दाल ने मुझे वह दिल्ली दिखा दी जिसे वहां गए बिना नहीं देख सकता था। औरतें महीने भर की दाल बोरी में भरकर घूमते-घूमते थक गईं थीं। पुलिस चौकी के पास बने टिन शेड के नीचे बैठ सुस्ताने लगीं। बताया कि थक गए हैं, थोड़ा आराम कर लेंगे तो फिर घर की तरफ चलेंगे। आए भी तो बहुत दूर से हैं हम लोग। दाल महंगी है मगर टीवी सस्ता हो गया। टीवी पर दाल नहीं है और दाल टीवी में नहीं है।