कोरोना के कहर से बचने के लिये हम सबकी जिंदगी घर की चारदीवारियों में कैद हो गई है. लेकिन नींद कोसों दूर है. अलग तरह की बेचैनी और छटपटाहट है. दिल्ली से भागलपुर तक जिस किसी से बात हो रही है वो यही कह रहा है कि ऐसा नहीं होना चाहिए. सबको अंदर से झकझोर दिया है. मुद्दे की बात करूं तो सबसे पहले तीन तस्वीरें आपके सामने रखना चाहूंगा. मुंबईवासी के जिगर के टुकड़े ब्रिटेन में कोरोना की वजह से फंस गये तो उसे लाने के लिये उसके परिवार ने विशेष विमान भेज दिया. खर्च आया मात्र 90 लाख. ऐसे ही जब वुहान, इटली, ईरान और मलेशिया जैसे देशों में सैकड़ों लोग कोरोना की वजह से फंस गये तो सरकार विशेष यात्री विमान भेजकर उनको सुरक्षित वापस ले आई. केवल स्वदेश वापसी ही नहीं की गई बल्कि उनको बीमारी से बचाने के लिये 14 दिन क्वारंटाइन यानी अलग-थलग रखा.
पहले जनता कर्फ्यू और उसके बाद 24 मार्च को देशबंदी के बाद देश में करोड़ों की तादाद में रहने वाले दिहाड़ी मजदूरों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया. समाज के हाशिए पर जी रहे ये ये वंचित और सुविधाहीन लोगों की नियति हर दिन कमाकर खाने की होती है. मोटे तौर पर कहें तो ये तबका दिन की मजदूरी करता है तो उनके घर रात का खाना पकता है. जिस दिन काम नहीं, उस दिन का खाना मुश्किल से ही मिल पाता है. सरकार ने देशबंदी किया तो सब कुछ अचानक से बंद हो गया. लिहाजा इनका काम बंद हो गया और सड़क पर आ गए. काम कराने वाले भाग खड़े हुए. इतने पैसे भी जमा करके नहीं रखे थे कि बुरे वक्त में काम आ पाते. बड़ी बात यह है कि बुनियादी जरूरत पर पैसा खर्च करने के बाद शाम को घर लौटते वक्त इनकी जेब में पैसा नहीं होता. आगे 21 दिनों के बाद भी इनको स्थिति सामान्य होती नहीं दिख रही है. सूचनाएं इन तक नहीं पहुंचती और अफवाह पहले पहुंच जाती है.
ट्रेनें और बसें भी बंद कर दी गईं ताकि कोरोना ना फैले. सड़क पर गुजारा करने वाले लोगों के पास कोई चारा नहीं बचा. लगा खाने को कुछ नहीं है. कोई मदद करने वाले भी नहीं हैं. आंखों में नाउम्मीदी और जिदंगी भर की कमाई पीठ पर लादकर ये लोग एक अंधी सुरंग में अंतहीन यात्रा की ओर निकल पड़े जहां उन्हें ना तो कोई भविष्य नजर आता है ना जिंदगी की कोई रोशनी. ऐसे में इनको लगा कि अब किसी भी तरह अपने घर वापस चले जाएं. मरना होगा तो वहीं मरें, परदेस में क्यों मरें जहां पर कोई अंतिम संस्कार कराने वाला भी नहीं होगा. सैकड़ों-हजारों लोगों का हुजूम पैदल ही अपने-अपने घरों की ओर निकल पड़ा. शुरुआती दौर में सरकार कुंभकर्णी नींद सोती रही. विडंबना की बात यह है कि कई जगहों पर ऐसा भी दिखा कि पुलिस इन लोगों से रास्ते में कान पकड़कर उठक-बैठक कराती रही. मुंबई में तो सड़क पर पैदल अपने गांव जाते चार लोगों की मौत हो गई और पांच घायल भी हो गए.
जब ये सारी तस्वीरें मीडिया के जरिये सबके सामने आईं तब जाकर सरकार हरकत में आती दिखी. अपनी किरकिरी से बचने के लिये कहीं किसी के लिये हेल्पलाइन नंबर जारी किये गए तो कहीं पर खाने पीने का इंतजाम किया गया तो कहीं पर बस से छोड़ने का इंतजाम किया गया. सत्ताधीश यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आए. राजस्थान के एक मंत्री ने कहा कि गुजरात में मजदूरों का ध्यान रखा जाता तो वे राजस्थान नहीं आते. वहीं यूपी के एक मंत्री ने कहा कि दिल्ली में मजदूरों का कोई ध्यान नहीं रखा गया. लिहाजा ये हालात पैदा हुए. तथाकथित सोशल डिस्टेंसिंग के नाम पर सबने इनसे दूरी बना ली. सरकार के साथ-साथ समाज के उन लोगों ने भी जिनका एक दिन का गुजारा इनके बगैर नहीं हो सकता है और यह सब कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए एहतियाती कदम के रूप में किया गया. सेना की चिकित्सा सेवा के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल वेद चर्तुवेदी कहते हैं कि सरकार को इस बात का अंदेशा नहीं रहा होगा या फिर सलाहकारों ने जानकारी नहीं दी होगी. अच्छा होता सरकार इतनी जल्दी देशबंदी नहीं करती और अगर देशबंदी करना जरूरी था तो पहले इनके खाने-पीने और रहने का इंतजाम करती. वे कहते हैं आपको इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि अगर भीड़ में एक भी आदमी कोरोना से संक्रमित पाया गया तो फिर इससे कितने लोगों तक यह बीमारी पहुंचेगी, इसके अंदाज से भी रूह कांप उठती है. अगर ऐसा हुआ तो इसे रोकना सरकार के बूते के बाहर की चीज होगी. अगर देशबंदी से पहले यह ऐलान कर देते कि चार पांच दिनों तक विशेष ट्रेन या बस के जरिये लोगों को उनके घरों तक छोड़ा जाएगा तो फिर कोरोना के संक्रमण के फैलाव को रोका जा सकता था.
इसको ऐसे भी आप समझ सकते हैं कि अगर आप कमरे में बेड पर सोते हैं और अचानक आपको बरामदे में फर्श पर सोने के लिये कह दिया जाए तो आपको सारी रात नींद ही नहीं आएगी. अगर पेड़ के नीचे सोने के लिये कह दिया जाए तो हो सकता है आपकी तबीयत खराब हो जाए. अपने घर जाने के लिये लाखों लोग जो सड़क पर निकले हैं उससे अगर ये कोरोना से बच भी जाएं तो दूसरी बीमारियों से बच पाना इनका नामुमकिन है. खांसी, जुकाम, टायफाइड और मलेरिया जैसी कई बीमारियों के आसानी से मजदूर लोग शिकार बन जायेंगे क्योंकि इनके साथ बच्चें भी है महिलायें भी है और बुजर्ग भी.
अभी भी देर नहीं हुई है. सभी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार एक समन्वय टीम के माध्यम से इस आफत से बेहद सशक्त तरीके से निपट सकते हैं. मौजूदा संकट को देखते हुए एक केंद्रीकृत सार्वजनिक वितरण प्रणाली की जरूरत महसूस होती है जो अपने घरों की ओर रुखसत हो रहे इन मजदूरों की मुश्किलों को आसान बना सकती है. उन्हें इस बात का भरोसा दिलाया जाए कि यहां सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं और उनके गांव की ओर पलायन उन्हें मुश्किल में डाल सकता है.
सत्ता के सिंहासन पर बैठे लोगों की चुप्पी तो समझ में आती है कि ये उनके वोट बैंक नहीं हैं पर समाज़ के पैसे और रसूखदार लोगों की बेरुखी पूरी मानवता को शर्मशार करती है. अब भी देर नही हुई है, आगे बढ़कर मदद करें. सरकार भी चुप्पी तोड़े और लोगों से अपील करे कि सड़क पर कोई दिखे तो खाना खिलायें और रहने का आसरा दें. सरकार अपनी जिम्मेदारी से पीछे भाग नहीं सकती. ये भी आपके अपने है, किसी और के नहीं. इन्हें दिल से अपनाएं और भगवान भरोसे मत छोड़ें.
(राजीव रंजन TV इंडिया में एसोसिएट एडिटर (डिफेंस) हैं...)
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