किसानों को इसका कितना फायदा मिला, ये देखने के लिए बांदा से करीब 60 किमी दूर अतर्रा तहसील से कोल्हुवा के जंगल में चल पड़े। रास्ते में आरटीआई कार्यकर्ता और पत्रकार आशीष सागर ने हमें बताया कि रसिन गांव में 76 करोड़ रुपये की लागत से रसिन बांध बनाया गया है जिसका मकसद करीब 5 हज़ार एकड़ खेत तक सूखे के हालात में पानी पहुंचाना है। इस साल मानसून नहीं के बराबर रहा है। इसलिए पहले हमें रसिन बांध का जायजा लेना चाहिए।
2012 में बांध बनकर तैयार हुआ। विध्यांचल पहाड़ियों की गोद में बने इस बांध पर सिंचाई विभाग का कोई कारिंदा मौजूद नहीं था। रसिन गांव के नाम पर इस बांध का नाम रसिन बांध रखा गया। यहां हमें भूषण नाम के किसान मिले जिनकी 12 बीघे ज़मीन का अधिग्रहण इस बांध को बनाने में किया गया था। इनकी जमीन का मुआवजा 24 हज़ार रुपये बीघे के हिसाब से मिला। भूषण ने हमें बताया कि बांध को बने 3 साल से ज्यादा हो गया लेकिन आज तक इस गेट नहीं खुला। इससे लगती नहरें सूखी पड़ी है।
यही नहीं इस बांध का पानी आज तक रसिन गांव के खेतों में नहीं पहुंचा। कैमरे को देखकर कुछ और गांव वाले आ गए। हमारी नजर खंडहरनुमा बनी एक इमारत पर ठहर गई। बताया गया कि ये बांध का कंट्रोल रुम है। टूटी खिड़कियां-दरवाजे को चोर उठा ले गए थे। आजकल ये आवारा पशु और नशेड़ियों के बैठने का अड्डा बना हुआ है। जिस बांध का कंट्रोल रूम बदहाल हो चुका है वो सूखे खेतों को कैसे हरा करेगा, हमारी समझ में आ चुका था। यहीं से कुछ दूरी पर हमें दो पार्क दिखाई पड़े। किसी तरह जानलेवा ढलान को पारकर हम इस पार्क पहुंचे।
गांव वालों ने बताया यहां गौतम बुद्ध की मूर्ति लगी थी। पार्क में बहुत खोजने पर बुद्ध की प्रतिमा के कुछ अवशेष हमें भी मिले। आशीष सागर और शिव नारायण ने बकायदा उसे लेकर फोटो खींचे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि दो करोड़ रुपये में आखिर किसानों के पैसे से ये पार्क क्यों बनवाए गए। यहां लगे सफेद खंबों को पहले मैं सीमेंट का मान रहा था लेकिन तभी मेरी नजर आंधी में गिरे एक खंबे पर पड़ी। ये देखकर हैरान रह गया कि दूर से सीमेंट के दिखने वाले ये खंबे फाइबर के थे और इसके अंदर बालू और मौरंग को भर दिया गया था।
पार्क और बांध की हालत देखकर मुझे दुख भी हो रहा था और गुस्सा भी आ रहा था। आशीष ने बताया कि ये तो ट्रेलर है, बुंदेलखंड पैकेज की कहानी अभी बाकी है। यहां से 30 किमी दूर कोल्हुवा के घने जंगल में चल पड़े। हमें बताया गया कि ददुआ, ठोंकिया, बड़खड़िया के मारे जाने के बाद अभी बबली नाम का एक डाकू सक्रिय है। ये सुनकर कुछ घबराहट हुई, हमने कार गांव में छोड़ दी और पैदल पटपर पहाड़ी नाले पर बने चेक डैम को देखने चल पड़े।
कोल्हुवा के जंगल में जंगल विभाग ने 55 चेकडैम बनाए हैं और हर एक की कीमत 5 लाख रुपये है। कुछ दूर आगे चलकर कुछ पत्थर रखकर एक हदबंदी देखने को मिली। हमें बताया गया कि पांच लाख का चेक डैम यही है। आशीष ने बताया कि यहीं के आदिवासियों को बुलाकर नदी के पत्थर रख दिए गए। इससे आगे बढ़ने पर चेकडैमनुमा चीज भी नहीं मिली। आशीष सागर ने बताया कि यहां आकर कोई काम को चेक नहीं कर सकता लिहाजा कागजी चेकडैम बनाकर पैसा डकार लिया गया।
जब हम लौटने लगे तो कुछ किसान बैठे मिले। किसानों ने बताया कि इस साल बारिश बिल्कुल नहीं हुई लिहाजा हालात काफी खराब हैं। जानवर अगर नहीं हों तो हम भूखों मर जाएं। जब बदहाल किसानों के लिए योजनाएं एसी के बंद कमरों में बैठकर बने तो उससे खुशहाल केवल अधिकारी और नेता हो सकते हैं। ये बात हमें समझ आ चुकी थी। बुंदेलखंड के चार रोज़ा यात्रा का विवरण मैने तीन भाग में दिया। किसान और पैकेज की राजनीति के बारे में थोड़ा बहुत सोच में अगर बदलाव आए तो समझ लीजिएगा कि हम किसान के लिए कुछ कर नहीं रहे हैं बस सोचने की प्रक्रिया अभी शुरू हुई है।