यह ख़बर 11 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

पल्लव बागला की पुस्तक की समीक्षा : हम भी अगर इसरो होते...

नई दिल्ली:

मेरी मैग्डेलन चर्च। केरल के तट पर बसे थुंबा का यह चर्च के बिना अंतरिक्ष में हिन्दुस्तान का सफ़र न तो शुरू होता है न पूरा। विक्रम साराभाई ने जब थुंबा को भारत के पहले राकेट प्रक्षेपण के लिए चुना तो इस चर्च के बिशप ने वहां के ईसाई मछुआरों को साराभाई की मदद के लिए तैयार किया। यही नहीं इस चर्च में रॉकेट प्रक्षेपण के शुरुआती काम हुए। वहां बैठकें हुआ करती थीं। आज इस चर्च को स्पेस म्यूज़ियम में बदल दिया गया है। शायद दुनिया का यह अकेला चर्च है जो इस तरह के शैक्षणिक कार्य के लिए समर्पित हो गया है।

पल्लव बागला और सुभद्रा मेनन की किताब 'REACHING FOR THE STARS, INDIA’S JOURNEY TO MARS AND BEYOND' हमें इसरों की यात्रा के ऐसे अनगिनत किस्सों में ले जाती है। पूरी किताब रोचक प्रसंगों से भरा एक ऐसा जंगल है, जिसके हर पेड़ और वनस्पति के बारे में आप जानकर रोमांचित होने लगते हैं। मंगलयान की कामयाबी जल्दी ही भारत के सार्वजनिक जीवन में लाए गए सफाई अभियानों के नीचे दब गई, लेकिन इस किताब ने उन किस्सों को पीढ़ियों के लिए बचा लिया है।

इसरो के मौजूदा निदेशक डॉ. के राधाकृष्णन कत्थकली में दक्ष न होते, तो विज्ञान की इस एकांत यात्रा में लंबा सफ़र तय नहीं कर पाते। मंगल मिशन के प्रोग्राम डायरेक्टर एम अन्नादुराई के गांव में पानी की आपूर्ति तब हुई, जब इन्होंने चंद्रयान के सहारे चांद पर पानी खोज लिया। इस तरह के कुछ ऐसे किस्से हैं जो इस किताब को किसी साइंस फिक्शन में बदल देते हैं। इस बात के बावजूद कि हर कहानी सच्ची है।

500 इंजीनियरों ने 15 महीने के भीतर रात-दिन काम करके मंगलयान को न सिर्फ भेजा, बल्कि पूरी दुनिया के लिए मिसाल कायम कर दिया है। इसरो अमरीका का नासा नहीं है, बल्कि नासा चाहे तो अपनी तुलना इसरो से कर सकता है।

पल्लव बताते हैं कि जब 5 नवंबर 2013 को मंगलयान का प्रक्षेपण हुआ तो उससे पहले काउंटडाउन के दौरान वैज्ञानिकों की टीम को 803 कार्यसूची की चेकिंग करनी थी। जब अंतिम कुछ मिनट रह गए, तो उस वक्त में सौ से अधिक एक्शन की चेकिंग की जानी थी कि सब ठीक है या नहीं। लेकिन ऐन वक्त पर मौसम ख़राब हो गया।

पल्लव लिखते हैं कि सबकी धड़कनें रुक गईं कि कहीं लांच रद्द तो नहीं हो जाएगा। लाल किला से लाल ग्रह तक का यह सफ़र कहीं अधर में तो नहीं लटक गया।

ऐसा हुआ नहीं। मंगलयान ने दस महीनों का सफर पूरा किया और मंगल की कक्षा में अपनी जगह बना ली। इस पूरे अभियान में नाकामी की कोई जगह नहीं थी। सिस्टम को खुद चेक करने लायक बना दिया गया था। पूरा देश खुशी से झूम उठा।

पल्लव पहले रॉकेट लॉन्च की कहानी लिखते हैं। जब थुम्बा में पहला रॉकेट लॉन्च किया गया तब उस समय केरल विधानसभा का सत्र चल रहा था। थोड़ी देर के लिए सत्र रोक दिया गया और सबकी नज़र लांच पर टिक गई। उसमें भारत के ग्यारवहें राष्ट्रपति डाक्टर एपीजे कलाम भी युवा वैज्ञानिक के रूप में शामिल थे।

मंगलयान का नाम किसने रखा किसी को पता नहीं। इसका एलान 15 अगस्त 2012 को मनमोहन सिंह ने लाल किले से किया था। उनके लिखे हुए भाषण में मंगलयान नहीं है, लेकिन मनमोहन सिंह ने मंगलयान कह दिया और वही नाम रह गया। उसी तरह जब चंद्रयान का नाम प्रधानमंत्री वाजपेयी को सुझाया गया तो वाजपेयी ने उसके आगे एक जोड़ दिया। यह समझ कर भारत जैसे देश के लिए यह कोई अंतिम अभियान नहीं हो सकता। यह पहला होगा और बाद में कड़ियां जुड़ती जाएंगी।

काश यह किताब हिन्दी में होती। पल्लव ने भरोसा दिया है कि वे जल्द ही हिन्दी में पाठकों के लिए उपलब्ध कराएंगे। मंगलयान के इस किस्से को सबको पढ़ना चाहिए। ये किस्से भारी भरकम से लगने वाले विज्ञान को सरल तो बनाते ही हैं साथ ही इस नीरस विषय में जान डाल देते हैं। एक मकसद पिरो देते हैं।

इसरो में काम करने वाले ज्यादातर इंजीनियर और वैज्ञानिक भारतीय संस्थाओं से निकले हैं। जो लोग भारतीय संस्थाओं को दुनिया की रेटिंग में नहीं देखकर आत्महत्या करने निकल पड़ते हैं उन्हें इसरो के प्रदर्शन का रिकॉर्ड देख लेना चाहिए।

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सोलह हज़ार कर्मचारियों वाला इसरो एक खास पैटर्न पर चलता है। सरकारी होकर भी किसी कोरपोरेट के माडल से कम नहीं है। इसके सीनियर उतने ही जूनियर हैं जितने जूनियर सीनियर हो जाते हैं। टीम भावना का मॉडल इसरो का अपना है। हर प्रोजेक्ट की अपनी टीम और टीम के हर सदस्य को दो ज़िम्मेदारी। एक अपनी और एक दूसरे की। सबके हाथ एक दूसरे के कंधे पर होते हैं और निगाह उस अनंत आसमान की तरफ़ जहां से ग्रहों की दुनिया हम सबको अजूबों से देख रही होती है।

ब्लूम्सबरी इंडिया ने इस किताब को छापा है। हर पन्ना गर्व से भर देता है और हर प्रसंग इस अफसोस से कि काश हम भी इसरो के वैज्ञानिक होते।