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This Article is From Jan 10, 2016

रवींद्र कालिया सर, आप बहुत याद आएंगे....

Ravish Ranjan Shukla
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जनवरी 10, 2016 16:36 pm IST
    • Published On जनवरी 10, 2016 11:26 am IST
    • Last Updated On जनवरी 10, 2016 16:36 pm IST
इलाहाबाद में ठंड की वो धुंधभरी शाम थी, जब हम साहित्यिक पत्रिका में एक लेख पढ़कर तेलियरगंज के उनके डुप्लेक्स में मिलने चल गए थे। घर के बाहर लगे नेम प्लेट पर ममता और रवींद्र कालिया लिखा देखा...दरवाजे पर लगी बेल को दबाते हुए हमें संकोच हो रहा था। घर की घंटी बजी... खुद रवींद्र कालिया जी ने दरवाजा खोला। लंबा सा कुर्ता और जींस पहने शांत-सौम्य शख्सियत को देखते ही हम तीन दोस्तों में पैर छूने की होड़ लग गई। उन्होंने हल्के से मना करने की कोशिश की। हमने अपना परिचय दिया कि सर, हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के क्रिएटिव राइटिंग सेल से हैं। आपके लेख और कहानियां पढ़ते हैं इसीलिए आपसे मिलने चले आए। हंसते हुए उन्होंने ड्रांइग रूम में बैठाया। बोले सचिन तिवारी थियेटर करवाते हैं कि नहीं। मैंने कहा जी..सर उनका प्ले चलता रहता है। हमारे क्रिएटिव राइटिंग सेल के हेड संजय रॉय सर है अंग्रेजी विभाग के...इतना सुनते ही उन्होंने आवाज लगाई ममता देखो कौन मिलने आया है...अगले ही क्षण ममता जी आईं। बोले, यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट हैं ये सब... तुमसे मिलने आए हैं। ममता जी ने कहा बैठो मैं चाय बनाती हूं। वो हंसकर बोले, ममता चाय बनाते वक्त भी कहानियां लिख सकती है। हम देखकर हैरान थे कि रवींद्र कालिया सर में न बड़े साहित्यकारों वाला बौद्धिक घमंड और न ही दूरी पैदा करने वाली चुप्पी मौजूद थी। हम करीब आधे घंटे बैठे रहे चाय के साथ। रवींद्र कालिया और ममता जी से कई मसलों पर बातचीत हुई। वो बाहर तक छोड़ने आए। फिर बोले तुम लोग मिलते रहा करना। उनकी गर्मजोशी देखकर हमारे मिलने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो वो दिल्ली आकर ही खत्म हुआ।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मैंने और मेरे दोस्त राकेश शुक्ला ने एक कहानी लिखी। पहली कहानी के चंद पन्ने और उत्साह से लबरेज होकर हम सीधे रवींद्र कालिया जी के घर पहुंचे। वो बहुत खुश हुए। ममता जी को बुलाया। फिर बोले, क्यों न इस संडे को एक गोष्ठी करते हैं, जिसमें इन लोगों की कहानी पढ़ाई जाए। ममता जी ने भी हंसते हुए अपनी रजामंदी जाहिर की। वो बोले, तुम सब संडे को आओ... उसी गोष्ठी में तुम्हारा परिचय करवाते हैं। हम बहुत खुश थे। अगले रविवार को हम सब दोस्तों के साथ घर पहुंचे। गुनगुनी धूप में छत पर बहुत सारे साहित्‍यकार और पत्रकार मौजूद थे। यहीं हमारी मुलाकात प्रताप सोमवंशी, ब्रदी नारायण, कृष्ण प्रताप, मृत्युंजय, सीमा शफक जैसे साहित्यकारों से हुई। हम जैसे छात्रों को प्रगतिशील विचार से रूबरू कराने का काम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से ज्यादा खुद कालिया सर ने किया। पहली बार कालिया जी ने ही कहा, पैर मत छुआ करो। हमने कहा सर, आपके प्रति आदर जाहिर करने का यही जरिया है हमारे पास। उन्होंने कहा मैं तुम लोगों को अपना दोस्त मानता हूं, चेला नहीं। लेकिन फिर भी हम दोस्तों ने पैर छूने का सामूहिक फैसला लिया। कई कामरेड इस बात को लेकर हमसे नाराज भी हुए।

बहुत सारे मसलों पर रवींद्र कालिया अपनी राय बेबाकी और व्यवहारिकता से रखते थे। हम उस वक्त पढ़ाई पर कम और संगठन की गतिविधियों में ज्यादा ध्यान देने लगे थे। उन्होंने समझाया कि तुम लोग जिस पारिवारिक बैकग्राउंड से आए हो वहां रोजगार ज्यादा जरुरी है। मुझे याद है कि पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद जब पत्रकार बनने दिल्ली आया तो वही एक ऐसे शख्स थे, जिन्होंने हौंसला बढ़ाया और आर्थिक मदद भी की। लेकिन तीन महीने दिल्ली में चप्पल फटकाने के बाद बिना नौकरी के हताश और निराश इलाहाबाद लौट आया। अगली शाम को जब उनके घर मिलने गया... उन्होंने कहा चिंता मत करो तुम पंजाब जाओ वहां अमर उजाला और दैनिक जागरण अखबार लॉन्‍च हुए हैं। अच्छी हिन्दी जानने वाले युवा पत्रकारों की बहुत जरुरत है। मैं रामेश्वर पांडेय को एक चिट्ठी लिख दूंगा। मेरे अंदर आत्मविश्वास का सैलाब आ गया। तीन दिन बाद जब उस चिट्ठी को लेकर जालंधर अमर उजाला के उस वक्त के संपादक रामेश्वर पांडेय के पास पहुंचा तो वो बड़े खुश हुए। पत्र में केवल दो लाइन लिखी थी...ये मेरा होनहार साथी है यथासंभव मदद कर दें। हालांकि वहां मुझे नौकरी तो नहीं मिली, लेकिन उस चिट्ठी ने पत्रकार बनने के अवसर जरूर खोल दिए।

रवींद्र कालिया जी का जन्म जालंधर में हुआ था। यहीं मेरी मुलाकात दीपक पब्लिशर के मेहरोत्रा जी (नाम भूल गया) से हुई। कालिया जी ने कहा था कि वहां चले जाना, वो तुम्हारे रहने-खाने का इंतजाम कर देंगे। मेहरोत्रा जी की ज़ुबानी रवींद्र कालिया जी के कई किस्से हमने सुने। कैसे इस दुकान के सामने मोहन राकेश, रवींद्र कालिया और मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह चाय पीते थे। फक्कड़ी के बावजूद कैसे रवींद्र सर ने जगजीत सिंह की मदद की थी। मेहरोत्रा जी ने बाद में मेरा दैनिक जागरण में टेस्ट करवाया फिर वहीं मुझे नौकरी मिल गई।   

ये बातें हम इसलिए लिख रहे हैं ताकि लोग जानें कि रवींद्र कालिया जी हमेशा युवाओं को आगे बढ़ाने में और खुद आगे बढ़कर उनकी मदद के लिए तैयार रहते थे। मेरी उनसे आखिरी मुलाकात ज्ञानपीठ के दफ्तर में हुई। कई मुद्दों पर उऩसे बातचीत हुई। उनकी सेहत ठीक नहीं थी, लेकिन हंसते बोले खुद सीढ़ियां चढ़कर आता हूं... फिर खामोश हो गए। कुछ देर बाद बोले, मीडिया अंक की एक कॉपी जरूर ले जाना। वो इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आ गए थे, लेकिन दिल्ली के साहित्यकारों की गुटबाजी से खुश नहीं थे। वो एक ऐसी खुशनुमा शख्सियत और बेबाक रचनाकार थे, जिन्हें साहित्य के मठाधीश भले वो तव्वजो न देते रहें हो, जिसके वो हकदार थे, लेकिन रवींद्र कालिया सर हमारे जैसे लाखों उन लोगों की जेहनियत में इंसानियत भरने के लिए जरूर जाने जाएंगे जो या तो उनसे मिलते रहे या उनकी रचनाओं को पढ़ते रहे हैं। रवींद्र सर हम आपको ताउम्र याद रखेंगे, इसलिए नहीं कि आपने हमारा मार्गदर्शन किया बल्कि इसलिए कि आप जैसी सोच हमेशा नई पीढ़ी को पुराने अनुभवों से जोड़ती रहेगी...उनकी सोच को मांझती रहेगी।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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रवींद्र कालिया, हिंदी साहित्‍यकार, इलाहाबाद, Ravindra Kalia, Allahabad
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