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This Article is From Jul 20, 2016

कल बनारस में फिर सूरज उगेगा…बस, शाहिद नहीं होंगे

Shailesh Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    July 20, 2016 19:11 IST
    • Published On July 20, 2016 19:11 IST
    • Last Updated On July 20, 2016 19:11 IST
वो सुबह भी किसी सुबह जैसी ही थी। पूरब से ही सूरज उदय हुआ था। किसी भी नौकरीपेशा घरों में जैसी तैयारी होती है, वही हो रही थी। वाराणसी के अपने घर में मोहम्मद शाहिद नहाकर निकले। ऑफिस के लिए तैयार होना था। तौलिया बांधा हुआ था। बेटे सैफ की निगाह तौलिये के नीचे पैर के हिस्से पर पड़ी, 'पैर को क्या हुआ। इतना सूजा हुआ क्यों है?' डॉज के बादशाह कहे जाने वाले शाहिद ने बेटे को डॉज दिया, 'कुछ नहीं, आठ घंटे कुर्सी पर बैठे रहना पड़ता है न... इसलिए सूज गए होंगे।' सैफ को शक हुआ। उसने मोजे चेक किए। उन्हें कैंची से काटा गया था। वजह यही थी कि पैर इतने सूजे थे कि मोजे पहने नहीं जा सकते थे, इसीलिए उन्हें काटकर पहनने की कोशिश की गई थी।

मोहम्मद शाहिद हमारे उस दौर को पूरी तरह जीने वाले शख्स थे, जिनके लिए बच्चों के सामने अपने दुख-दर्द बताना पसंद नहीं था। हमने आपने अपने घरों में ऐसे पिता या दादा या कोई और बुजुर्ग को जरूर देखा होगा, जिनके लिए सबके सामने दर्द दिखाना, प्यार जताना, उनके पुरुषत्व को जैसे ठेस पहुंचाने वाला हुआ करता था। शाहिद ने कहा भी, 'परेशान क्यों होते हो। ठीक हूं मैं।' लेकिन इस बार परेशानी बढ़ गई थी। दोस्त माथुर (अशोक माथुर) को दिल्ली फोन लगाया गया, 'यार माथुर, रिपोर्ट भेज रहा हूं। किसी डाक्टर (शाहिद को डॉक्टर कहना पसंद नहीं था, वो डाक्टर ही कहते थे) को दिखा लो।'

अशोक माथुर ने रिपोर्ट्स दिखाईं। डॉक्टर ने कहा, 'ले आइए, मामला बहुत क्रिटिकल है।' जब तक माथुर वाराणसी फोन करते, शाहिद को अस्पताल ले जाना पड़ा। वहां से वो गुड़गांव के मेदांता अस्पताल लाए गए। ...और आज सुबह हॉकी के जादूगर ने किसी और दुनिया में अपनी कलाकारी दिखाने के लिए इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

बीमारी से डरना शाहिद को आता ही नहीं था। 1980 की गोल्ड मेडलिस्ट टीम में उनके साथ खेले महान खिलाड़ी जफर इकबाल ने कहा भी, 'मेरी उससे आखिरी मुलाकात हुई थी, तब भी उसने यही कहा था... चिंता क्यों करते हो यार, इसे भी डाज (डॉज) मार देंगे।' डॉज का मास्टर उन्हें यूं ही थोड़ी कहा जाता था। लेकिन शायद उन्हें पता नहीं था कि इस बार जो डिफेंडर उन्हें डॉज मारने से रोक रहा है, वो ऊपर वाला है। फिर भी उन्होंने जंग लड़ी। करीब तीन हफ्ता। ऊपर वाले को भी आसानी से नहीं जीतने दिया। यह उनकी शख्सियत का हिस्सा था। जफर कहते हैं, 'वो डरता तो किसी से नहीं था। हॉलैंड ले आओ, ऑस्ट्रेलिया ले आओ। कोई आ जाए, सामने। पाकिस्तान के खिलाफ तो हमेशा उसने बेस्ट ही किया। डर तो उसकी फितरत से दूर था।'

तभी वो लगातार अपनी पत्नी परवीन को दिलासा देते रहे कि 'क्यों परेशान होती है। हम साथ चलेंगे बनारस।' रोते-रोते कई बार बेहोश हो चुकीं उनकी पत्नी लगातार यही कह रही थीं, 'माथुर भाई (अशोक माथुर) हम कह रहे थे कि ये हमें छोड़ जाएंगे। झूठ बोल रहे थे कि साथ चलेंगे बनारस।' जाहिर है, माथुर के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। शाहिद दिल्ली में अक्सर अशोक माथुर के घर रूका करते थे। माथुर खुद अच्छे खिलाड़ी और प्रशासक रहे हैं। वो कहते भी हैं, 'मेरे मां-बाप का वो मुझसे ज्यादा ख्‍याल रखता था।' उसकी भी एक कहानी है। एक रात वो दो बजे लौटे। अशोक माथुर के घर रूके। सुबह-सुबह परिवार में पूजा करने की रिवायत है। माथुर के पिता ने पूजा शुरू की। मंदिर में आरती के समय घंटी बजाने का वक्त आया। पिता ने घंटी बजाई, तो मां ने आकर कहा, 'धीरे बजाओ। शाहिद रात दो बजे लौटा है। नींद खुल जाएगी।' शाहिद जग रहे थे। उन्होंने सुन लिया। बाद में उन्होंने अशोक माथुर से कहा, 'यार माथुर, मां ही होती है, जो बेटे की नींद के लिए भगवान से भी दुश्मनी मोल लेने को तैयार हो जाती है।'

मैं जानबूझकर इस लेख में उनकी शख्सियत पर बात करने की कोशिश कर रहा हूं। खिलाड़ी के तौर पर उन्हें दुनिया जानती है, लेकिन मुझे मालूम है कि इन लाइनों को लिखने में मुझे कितनी दिक्कत हो रही है। अपने 20 साल के जर्नलिज्म करियर के ये सबसे मुश्किल लेखों में है। अपनों को श्रद्धांजलि देना कितना मुश्किल होता है न। हालांकि दुनियादारी के लिहाज से देखा जाए, तो शाहिद मेरे अपने भी नहीं थे। कितनी मुलाकात होंगी? मुश्किल से 10-12... फोन पर भी कौन-सा हर दूसरे रोज बात होती थी। दो-तीन महीना पहले बात हुई थी। तब पता नहीं था कि वो आखिरी बातचीत है। उन्हें कहीं से पता चला था कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। उनका फोन आया, 'पार्टनर, ये क्या किया। मुझे पता है कि जहां नौकरी कर रहे थे, उस संस्थान की हालत अच्छी नहीं थी। लेकिन नौकरी तो जरूरी होती है।' मैंने बताने की कोशिश की, लेकिन वो इस बात को मानने के लिए राजी नहीं हुए कि नौकरी का विकल्प है, 'कोई दिक्कत तो नहीं है? पैसे की जरूरत हो तो बताना। शर्माना मत बिल्कुल। हम हैं ना।'

इस कदर ख्‍याल रखने वालों को कैसे कह दूं कि अपने नहीं थे। वादा निभाना वो जानते थे। बनारस जाने का वादा किया था। जा रहे हैं... लेकिन ताबूत में, क्योंकि ये वादा निभाना उनके लिए संभव नहीं था। जो शख्स पूरी जिंदगी बनारस से दूर नहीं रह सका, मौत ने उसे दूर कर दिया। मौत हुई भी, तो बनारस में नहीं। गुड़गांव के उस पांच सितारा अस्पताल में, जैसी जगहें शाहिद को रास नहीं आती थीं। ताबूत में रखे उनके शरीर की बात पर जफर इकबाल ने कहा, 'दुनिया का कोई खिलाड़ी, जिसकी रफ्तार को रोक नहीं पाता था। आज वो ऐसे खामोश लेटा है।' अब वो शाहिद कभी नहीं उठेगा, जिसकी ड्रिब्लिंग देखने के लिए दुनिया थम जाया करती थी। वो शाहिद कभी नहीं उठेगा, जिसके हाथ चूमकर लोग कहा करते थे कि इसमें भगवान और खुदा बसते हैं। कल बनारस में फिर सूरज उगेगा। हमेशा की तरह। उसकी गलियों में वैसी ही रौनक होगी, जैसी हर रोज होती है। वहां वैसी ही चाट, जलेबी और पान मिलेंगे, जैसे हमेशा मिलते हैं, लेकिन शाहिद नहीं होंगे। वो जिंदादिली नहीं होगी, जो शाहिद के नाम से जुड़ती थी। वो फोन भी कभी नहीं आएगा पूछने के लिए कि कैसे पार्टनर, बनारस कब आओगे। घूम जाओ।

(शैलेश चतुर्वेदी वरिष्‍ठ खेल पत्रकार और स्तंभकार हैं)

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