यूपी चुनाव अगले साल हैं, लेकिन प्रदेश में चुनावी माहौल पूरी तरह बन चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा की गई रैलियों के साथ-साथ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह हर दूसरे दिन यूपी के किसी न किसी जिले में कार्यकर्ताओं और जनता से मिलकर पार्टी के लिए मज़बूती से काम कर रहे हैं। सत्तारूढ़ सपा और मुख्य विपक्षी पार्टी बसपा भी पूरी जी-जान से सत्ता में आने के लिए ग्राउंड लेवल पर काम कर रही हैं, लेकिन कांग्रेस का प्रचार और प्रसार फिलहाल बड़ा फीका पड़ा हुआ है। कांग्रेस ने यूपी चुनाव की कमान प्रशांत किशोर को सौंपी है। इसके अलावा पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद को यूपी चुनाव का प्रभारी बनाया है, लेकिन कमज़ोर नेतृत्व, अंदरूनी मतभेद व वरिष्ठ नेताओं की हताशा की शिकार कांग्रेस की नीतियों से लगता है कि पार्टी मानों चुनाव से पहले ही हार मान चुकी है।
प्रशांत किशोर व पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी से शीला दीक्षित की मुलाक़ात के बाद अटकलें यह लगाई जा रही हैं कि पार्टी इन्हें यूपी चुनाव के लिए मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाएगी। लगातार 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित 1984 से 1989 तक यूपी के कन्नौज ज़िले से सांसद भी रही हैं। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार व ग़ुलाम नबी को चुनाव प्रभारी बनाने से पार्टी 32 साल पुरानी नीति फिर से दोहरा रही है, जब 1984 में कांग्रेस आख़िरी बार यूपी में सत्ता में आई थी। उस वक़्त पार्टी के सीएम उम्मीदवार श्रीपति मिश्र थे, जोकि कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री बने। उस वक़्त भी ग़ुलाम नबी आज़ाद प्रदेश के चुनाव प्रभारी थे। पार्टी को ब्राह्मण सीएम उम्मीदवार व मुस्लिम प्रदेश अध्यक्ष या चुनाव प्रभारी बनाने का 1970 व 1990 के बीच बेहद फ़ायदा मिला। इन दो दशकों में कांग्रेस के 8 बड़े नेता यूपी में मुख्यमंत्री रहे। उस दौरान कांग्रेस को ब्राह्मण, दलित व मुस्लिम समुदाय का भरपूर सहयोग मिलता था, लेकिन मायावती व मुलायम सिंह के मैदान में उतरने के बाद मुस्लिम और दलितों ने कांग्रेस से किनारा कर लिया। बीजेपी भी कांग्रेस के ब्राह्मण वोट बैंक पर सेंध लगा गई। कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि शीला दीक्षित 78 साल की हैं, जिनका मुकाबला सीधे तौर पर युवा अखिलेश यादव व यूपी की बेहद शक्तिशाली नेता मायावती से होगा, जिनके पास मज़बूत दलित वोट बैंक है। कांग्रेस को इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि इन तीन दशकों में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदल गए हैं और वर्तमान समय में प्रदेश की राजनीति में बीते 30 बरस से असक्रिय शीला दीक्षित किसी भी हाल में वोटरों का भरोसा नहीं जीत पाएंगी।
लोकसभा चुनाव में बेहद ख़राब प्रदर्शन के बाद कांग्रेस की असफलताओं का दौर बदस्तूर जारी है। हरियाणा, असम, महाराष्ट्र, झारखण्ड और अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस के पास से सत्ता जा चुकी है। दिल्ली में जहां पार्टी की लगातार 15 साल तक सरकार थी, वहां बीते चुनाव में खाता भी नहीं खुल पाया। उत्तराखंड में भी कांग्रेस बड़ी मुश्किल से सत्ता बचा पाई है। इसके अलावा मेघालय, हिमाचल प्रदेश में आपसी मतभेद के चलते सरकार कभी भी खतरे में पड़ सकती है। त्रिपुरा में कांग्रेस के 6 विधायक टीएमसी में चले गए और यूपी में भी छह विधायकों को राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग करने के चलते सस्पेंड कर दिया गया है। गुरुदास कामत व अजित जोगी जैसे बड़े नेता पार्टी को अलविदा कह चुके हैं। हरियाणा की सीट के लिए हुए राज्यसभा चुनाव में भी हुड्डा और राहुल गांधी के बीच चल रहा मतभेद खुलकर सामने आया है। पंजाब चुनाव सिर पर हैं और पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार अमरिंदर सिंह व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रताप सिंह बाजवा एक-दूसरे को बिलकुल पसंद नहीं करते। सोनिया व राहुल गांधी लोकसभा की हार के बाद पार्टी को एकजुट रखने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुए हैं। लगतार मिल रही हार व ख़राब रणनीतियों के चलते पार्टी हाईकमान में हताशा छाई हुई है। यूपी में कांग्रेस के सामने तीन मज़बूत पार्टियां मैदान में हैं, जिनका पलड़ा कांग्रेस से हर मामले में भारी है। कांग्रेस यह अच्छी तरह जानती है कि पार्टी की वर्तमान स्थिति को देखते हुए लोग उन पर बिलकुल भी भरोसा नहीं करेंगे। इसके अलावा कांग्रेस के पास यूपी में कोई भी बड़ा स्थानीय नेता नहीं हैं। कांग्रेस ने यूपी चुनाव की पूरी ज़िम्मेदारी प्रशांत किशोर को सौंपी है, जिनके साथ भी पार्टी के नेता तालमेल बिठाने में असफल रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे ख़ास बात यह है कि बीते लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए हर राज्य के चुनाव में उन्होंने पार्टी को लीड किया है। बिना परिणाम की चिंता करे, प्रचार व प्रसार की पूरी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर ली है। जबकि राहुल गांधी एक कमज़ोर नेता की तरह दिखे हैं जो पार्टी में ऊर्जा भरने व जनता का भरोसा जीतने में नाकामयाब साबित हुए हैं। कांग्रेस की वर्तमान स्तिथि इतनी ख़राब है कि यह यूपी में अपनी 29 सीटें ही बचा ले तो बड़ी बात होगी।
इसके अलावा जिस आक्रामकता से बीते दो सालों में बीजेपी ने यूपी सरकार को घेरा है वह काबिले तारीफ है। मुज़फ्फरनगर दंगा, मथुरा कांड, अखलाक व कैराना मामले में बीजेपी की रणनीतियों ने सपा को बैकफुट पर ला दिया है। मोदी अमित शाह समेत सभी नेता अपना पूरा ध्यान यूपी चुनाव में लगा रहे हैं। इससे पार्टी यूपी में आने वाले चुनाव में मज़बूत स्थिति में नज़र आ रही है। बीजेपी ने सही मामले में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव व बसपा प्रमुख मायावती की नींद उदा कर रखी है, जबकि कांग्रेस ने किसी भी मुद्दे पर कभी भी आक्रामक रवैया नहीं अपनाया है। इससे कांग्रेस की कमज़ोरी साफ़ पता चलती है। ऐसे में प्रशांत किशोर भी यूपी में कांग्रेस का क्या भला कर पाएंगे?
प्रियंका गांधी को यूपी चुनाव में स्टार प्रचारक के रूप में उतारने का सोच रही कांग्रेस राहुल गांधी पर भरोसा नहीं करना चाहती है और करे भी क्यों... बीते लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उपाध्यक्ष की सीट बचाने के लिए प्रियंका अमेठी में प्रचार के लिए उतरी थीं। राहुल गांधी व सोनिया बीते दो सालों में शायद ही 5-6 बार से ज़्यादा अपने संसदीय क्षेत्र गए होंगे। यूपी से जुड़े किसी भी मुद्दे पर सोनिया-राहुल गंभीर नहीं दिखे हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पार्टी या तो बीते कई चुनाव की तरह अभी तक यूपी चुनाव के लिए प्लान नहीं तैयार कर पाई है या तो सपा, बसपा और बीजेपी की मज़बूत चुनावी रणनीति देखकर पहले से ही हार मानकर बैठ गई है।
नीलांशु शुक्ला NDTV 24x7 में ओबी कन्ट्रोलर हैं...
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This Article is From Jun 19, 2016
यूपी चुनाव : लगता है पहले से ही हार मान बैठी है कांग्रेस
Nelanshu Shukla
- ब्लॉग,
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Updated:जून 19, 2016 01:14 am IST
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Published On जून 19, 2016 01:14 am IST
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Last Updated On जून 19, 2016 01:14 am IST
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