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This Article is From May 30, 2016

फिल्म 'सैराट' के विराट दृश्यों के बीच एक लघु दर्शक की व्यथा

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 30, 2016 10:59 am IST
    • Published On मई 30, 2016 10:56 am IST
    • Last Updated On मई 30, 2016 10:59 am IST
सैराट के दृश्य बार बार आंखों पर समंदर की लहरों के थपेड़े जैसे लगते हैं। दिल दिमाग़ कहीं और उलझा रहता है अचानक फ़िल्म की तस्वीर ज़ेहन में कहीं से उभर आती है। जब से सैराट देखी है सैराट से भाग नहीं पा रहा हूं। ऐसा लगता है कि किसी ने घर के कोने कोने में सैराट की एक एक तस्वीर फ्रेम कराकर टांग दी है। बहुत दिनों बाद ऐसी ललकारी फ़िल्म देखी है।

सैराट मराठी में बनी है मगर इसके दृश्य बिना भाषा की मदद के क्रूर समाजों में पसर जाने की क्षमता रखते हैं। यदि आप तमिलनाडु की दलित और ओबीसी की हिंसा, मुज़फ़्फ़रनगर से लेकर आगरा तक के लव जिहादियों, हरियाणा के खाप पंचायतों, राजस्थान में एक दलित लड़की डेल्टा के साथ हुए बलात्कार, मध्य प्रदेश के गांवों में दलित दूल्हे को घोड़े पर न चढ़ने देने की घटना को सामान्य रूप से पचा लेते हैं तो आप सैराट के दर्शक कैसे हो सकते हैं। मैं यही सोच कर बेचैन हूं कि इसे देखने वाला समाज बदल गया है, बदल चुका है या कुछ भी कर लो फ़िल्म देख लेगा मगर बदलेगा नहीं। कौन लोग हैं ये जिन्हें सैराट पसंद आ रही है।

वायलिन और बीथोवन की सिम्फनी की धुनों के सहारे इसके संगीत आपको अपनी सीट से हवा में उछाल देते हैं, आप उछले रहे होते हैं। इसीलिए उन तमाम आधुनिक पलों को उपलब्ध करवा देते हैं जो आप भारत के किसी कस्बाई अंचल में रहते हुए दिल्ली मुंबई आने से पहले पाना चाहते हैं। घर लौट कर सैराट के गाने को बार बार सुनता रहा। लगा ही नहीं कि मराठी जानने की ज़रूरत है। निर्देशक नागराज की टीम ने संगीत से जो कमाल किया है वह उनके दृश्यों के कमाल से कम नहीं है। इसके गाने नचा देते हैं। खेतों में दौड़ा देते हैं। झूमा देते हैं। उड़ा देते हैं। गाने के स्केल में सबसे नीचे चीत्कार की धुनें आहट देती रहती हैं जिन्हें आगे चलकर तलवार की तरह सीने में धंस जाना होता है। अवसाद में डुबा देने से पहले उल्लास का ऐसा मस्त जश्न याद नहीं कब देखा था। पिछले हफ्ते मुंबई में एक दिन के लिए था। पान वाले से लेकर कार चलाने वाले जिससे भी पूछा कि सैराट देखी क्या। सब जवाब देते देते खो गए जैसे उस वक्त सैराट ही देख रहे हों। सुबह की फ्लाइट के लिए जो कार चालक आया था, उससे भी यही पूछा कि मुझे सैराट के पोस्टर नहीं दिख रहे हैं। ताज विवांता से निकलते ही वह मुझसे ज़्यादा बेचैन हो गया। मुझे किसी तरह पोस्टर दिखा देना चाहता था। साहब मुंबई में फ़िल्म बनती है मगर यहां हर जगह पोस्टर नहीं लगते। चलिए रास्ते में खोजते हैं। हम दोनों सैराट का पोस्टर खोजने लगे। नहीं खोज पाए। हवाई अड्डा आ गया।

हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में दलित लड़की और ओबीसी लड़के की प्रेम कहानी को काट काट कर ख़त्म कर दिये जाने की घटना को पढ़ते पढ़ते यही हालत हो गई थी। कुछ भी हो जाए यहां के लोगों के क्रूर हो जाने की क्षमता को कभी कम मत आंकना। वे अभी अभी तो कांगों के प्रतिभाशाली लड़के को मार कर लौटे हैं और उन्हें किसी और को मारने जाना है। एक झटके में बिना किसी अफ़सोस के मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिये जाने लायक एक केंद्रीय मंत्री का कहना है कि यह मामूली घटना है। लेकिन क्या उस मंत्री की तरह हम सभी ऐसी घटनाओं को मामूली समझ कर आगे नहीं बढ़ जाते हैं।

मुझे अपने देश के लोगों से डर लगता है। उनके भीड़ बन जाने की स्वाभाविक प्रवृत्ति से डर लगता है। दुनिया भर में लोग भीड़ बन जाते हैं। मुझे दुनिया से मतलब नहीं है। मुझे वहां से मतलब है जहां मैं रहता हूं। हर समय एक भीड़ आती जाती दिखाई देती है। लोगों का घर चूल्हा हो गया है जिसकी आंच तेज़ रहे इसलिए हर चूल्हे के सामने एक टेबल फैन रखा है जिसे हम टेलिविज़न कहते हैं। घर में बैठे बैठे लोगों को भीड़ में बदलने का हथियार। आखिर अख़बार और चैनल इतनी आसानी से सत्ता के सामान कैसे हो जाते हैं? भीड़ बनाने के हथियार कैसे हो जाते हैं? ख़ैर उस चूल्हे के सामने लगे टेबल फैन के सामने एक एंकर आता है फूंक मारता है, आग लग जाती है और भीड़ बन जाती है।

नागराज ने उसी टीवी पर महल से लेकर झोपड़ी तक में मनोरंजन के कार्यक्रम चलते दिखाया है। समाज का यथार्थ कुछ और है और टीवी का कुछ और। सैराट का कैमरा असली कहानीकार है। इस कैमरे ने अपनी आंखों से हमारे भीतर क्रूरता बनने की तमाम संभावनों और पलों को सूक्ष्मता से पकड़ा है। कैमरे ने महाराष्ट्र के कस्बाई अंचल को मुंबई के स्टारडमीय दृश्यों पर ऐसा हावी करता है कि आप आर्ची को देखते हुए सिर्फ आर्ची को देखते हैं। सोनम कपूर कटरीना या दीपिका के आने का इंतज़ार नहीं करते हैं। आर्ची नायिका नहीं है। नागरिक है। परस्या नायक नहीं है। नागरिक है। एक सामान्य नागरिक होकर आपके जीवन का अधिकार आपका नहीं है। समाज और उसकी परंपराओं का है। इस देश में संविधान से ज़्यादा परंपराएं संविधान हैं। इसलिए मुझे लोगों के भीड़ बन जाने से डर लगता है।

यह फ़िल्म इसलिए भी पढ़ी और पढ़ाई जाएगी कि इस हिन्दुस्तान में एक नौजवान लड़की तभी तक घुड़सवारी, बुलेट और ट्रैक्टर चला सकती है जब तक वह अपने पिता के ताक़तवर संसार और उसके पाटिल होने की परंपरा की छत्र छाया में है। उसके हाथ से गोली चलते ही उसकी बहादुरी की सारी गारंटी समाप्त हो जाती है। उसके बाद के सारे प्रसंग उस यथार्थ के करीब ले जाते हैं जहां आज की अर्थव्यवस्था से बेदख़ल कर दिये गए लोग रहते हैं जिन्हें हम झुग्गी कहते हैं। समाज से बेदख़ल हुए प्रेमियों को भी उसी स्लम में आकर रहना पड़ता है। आर्ची नदी के किनारे सखियों के संग नहाने वाली या स्वीमिंग पूल में किसी नायक के साथ अटखेलियां करने वाली नायिका नहीं है। वह किसी गहरे कुएं में कूद जाने का साहस रखने वाली नागरिक है। यह साहस उसे प्रेम का चुनाव तो करवा लेता है मगर बचा नहीं पाता।

क्योंकि, हमारा समाज ऐसा ही है। वह सब कुछ थम जाने के बाद चुपचाप लौटता है। मार देता है। फ़िल्म एक दूजे के लिए में प्रेमी प्रेमिकाओं को जो मौत नसीब हुई उसने दक्षिण और उत्तर की खाई को गहरा ही किया था। समाज से बाहर गए तो यही अंजाम होगा। यही तो बताया था कि सिर्फ तिरंगा लेकर दौड़ जाने से सारा देश देश नहीं हो जाता है। क़यामत से क़यामत तक में जाति की शान से प्रेमी मार दिये जाते हैं। देश ज़रूर बदला है। हमारे युवा इन प्रश्नों को समझते तो हैं मगर ज़्यादातर सैराट का दर्शक बनने की योग्यता भी खो देते हैं। उससे शादी नहीं करते जिसे पूरी जवानी चिट्ठी लिखते रहते हैं। व्यवस्था से प्यार करने वाली ऐसी बेकार जवानियां मैंने नहीं देखी। ये जवानी ऐप बना सकती है प्रेमी नहीं हो सकती। मुझे भारत का हर नौजवान असफल और कुंठित प्रेमी की तरह दिखता है। सैराट का पाटिल लगता है।

नागराज की यह फ़िल्म भारतीय दर्शक समाज में मराठी के विस्तार का वाहक बनेगी। इसके दृश्य भाषा की दीवार को पार कर जाते हैं। हमने महाराष्ट्र के कुओं को सिर्फ सूखते देखा है। सैराट में पानी से लबालब भरे इन कुओं को देखकर लगा कि जीवन की कितनी संभावनाएं अब भी बची हैं। बहुत दिनों बाद किसी फ़िल्म में नदी जैसी कोई नदी दिखी है। साफ सुथरी मछलियों से भरी हुई। क़स्बे के फ़िल्मों में दृश्यों का महानगरों की तुलना में कितना विस्तार है। उनका आकाश कितना बड़ा है। ज़मीन कितनी हरी है। महाराष्ट्र कितना सुंदर है।

सबकुछ है मगर किसी पाटिल की बेटी किसी मछुआरे के बेटे से प्यार नहीं कर सकती है। लोकतंत्र में हम लोग सिर्फ मतदान के दिन बराबर होते हैं। ऑनर किलिंग का हम आज तक माक़ूल देसी शब्द नहीं खोज सके लेकिन पूरे देश में इस हत्या का एक ही देसी रूप आपको मिलेगा। आप मराठी नहीं समझते तो भी सैराट देखिये। लैपटॉप पर बिल्कुल न देखें। सिनेमा हॉल पर जाकर देखिये। नागराज ने दृश्यों को शब्द में बदल दिया है। आप मराठी में सैराट देख रहे होंगे लेकिन आपको आपकी भाषा सुनाई देगी। आपका समाज दिखाई देगा। मुझे यह अफ़सोस ज़रूर हुआ कि मराठी क्यों नहीं जानता। जानता तो सैराट के एक एक शब्द को समेट लेता। सैराट सब देख रहे हैं। आप भी देख लीजियेगा।

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