अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : हर चौथी महिला घर में हिंसा की शिकार होती है हिन्दुस्तान में

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : हर चौथी महिला घर में हिंसा की शिकार होती है हिन्दुस्तान में

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : हर चौथी महिला घर में हिंसा की शिकार होती है हिन्दुस्तान में (प्रतीकात्मक फोटो)

हम खूब महिला दिवस मना लें, लेकिन सच तो यही है कि हिन्दुस्तान में महिलाएं न घर से बाहर सुरक्षित हैं, न घर में सर्व-सम्मानित. हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजे जारी किए गए हैं. इन नतीजों में तमाम मानक तो यही कहानी पेश कर रहे हैं. यह सर्वेक्षण खुद भारत सरकार पूरे देश में करवाती है. पिछला सर्वेक्षण (तीसरा) 10 साल पहले 2006 में आया था, 2016 में इसके 17 राज्यों के परिणाम ही जारी किए गए थे, अब यूपी को छोड़कर लगभग सभी राज्यों के परिणाम आ गए हैं. इससे पूरे देश की तस्वीर पता चलती है. इस सर्वेक्षण में बहुत ही चौंकाने वाले और आंखें खोल देने वाले परिणाम सामने हैं. आइए, महिला दिवस के मौके पर महिलाओं से संबंधित मानकों पर गौर करते हैं.

हिं‍सा की शि‍कार
हमारे देश में महिलाओं की पूजा की जाती है, पर वास्तव में उन्हें कितना सम्मान मिल पाता है. सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 28 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने कभी न कभी अपने पति के हाथों मार खाई है. सोचिए, जब घर में हमसफर का व्यवहार यह होगा तो बाकी लोग क्या सम्मान करेंगे. 10 साल पहले जब यह सर्वे किया गया था, तब 37 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं, जिन्हें पति ने कभी न कभी पीटा. इन 10 सालों में बहुत कुछ बदला, विकास दर और जीडीपी बढ़ा ली, डिजिटल और स्मार्ट सिटीज़ के दौर में चले गए, पर यह तस्वीर कितने धीमे-धीमे बदल रही है. यही नहीं, गर्भावस्था में, जब गर्भवती महिलाओं को भारी वजन न उठाने की सलाह दी जाती है, तब भी वह क्रूरता सहती हैं. सर्वे के मुताबिक गर्भावस्था के दौरान भी 3.3 प्रतिशत महिलाओं को हिंसा का शिकार होना पड़ा है. क्या ये आंकड़े समाज के लिए शर्मनाक नहीं?

काम करती हैं, हाथ नहीं आती मज़दूरी
महिलाएं काम तो खूब करती हैं, लेकिन उनके हाथ में मज़दूरी नहीं आती. सर्वे के मुताबिक ऐसी केवल 24 प्रतिशत महिलाएं हैं, जिनके हाथ में सीधे तौर पर मज़दूरी नगद आ जाती है, और ज्यादातर मामलों में महिला के पति या पिता या अन्य व्यक्ति ही मजदूरी हड़प जाते हैं. मजे की बात यह है 10 साल पहले 28 प्रतिशत महिलाओं को मजदूरी उनके हाथ में मिल जाया करती थी, अब यह चार प्रतिशत तक कम हो गई है. इससे पता चलता है कि अब भी समाज में महिलाओं के श्रम का कोई मोल नहीं है और जो मोल है भी, तो उस पर उनका अपना कोई हक नहीं.

यह जरूर है कि अब मजदूरी और पेंशन योजनाओं को सीधे हितग्राही के खातों से जोड़कर उसे पहुंचाने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह कदम महिलाओं को सीधे लाभ पहुंचाने की अपेक्षा भ्रष्टाचार रोकने की कोशिश के रूप में अधिक है, उससे यह सुनिश्चित नहीं होता कि महिलाओं को उनकी मजदूरी उनके हाथ में ही मिलेगी. समाज और परिवार के ढांचे में मुद्रा का नियंत्रण पुरुष सत्ता के ही हाथों में है. सर्वेक्षण का एक बिंदु इसकी पुष्टि भी करता है. परिवार में निर्णय में शामिल होने या न होने के जवाब में 16 प्रतिशत महिलाओं ने जवाब दिया कि उनकी परिवार के निर्णयों में कोई भागीदारी नहीं होती.

सर्वे यह भी कहता है कि 53 प्रतिशत महिलाओं के पास बैंक में अपना खाता है. यदि खातों में सीधे मजदूरी जमा करने की व्यवस्था को आदर्श रूप में लागू कर भी दिया तो शेष 47 प्रतिशत महिलाओं के खाते खोले जाने और बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच बनाए जाने का एक लंबा रास्ता शेष है, यह हालात तब हैं, जब पिछले सालों में सरकार ने बडे पैमाने पर जन-धन खाते खुलवाने के लिए काम किया. इसके बावजूद बैकिंग सेक्टर की बढ़ती मुश्किलों और बैंकिंग सेवाओं के लिए तमाम तरह के शुल्क वसूलने के बीच यह व्यवस्था तीसरी दुनिया की महिलाओं के लिए कितनी मुश्किल होगी, समझा जा सकता है. यह शेष महिलाएं ज़ाहिर तौर पर ऐसी महिलाएं ही होंगी, जो अकुशल क्षेत्र के कामों में लगी होंगी. ऐसे में वास्‍तव में महिला सशक्‍तीकरण का रास्‍ता अभी बहुत लंबा होगा.

स्वास्थ्य के मानकों पर भी तस्वीर अच्छी नहीं
स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी नतीजे भी महिलाओं की कोई बहुत अच्‍छी तस्‍वीर पेश नहीं कर रहे हैं. हमारे देश में 53 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया, यानी खून की कमी का शिकार हैं, 50 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं भी एनीमिक पाई गई हैं. केवल 51 प्रतिशत महिलाओं को गर्भावस्‍था के दौरान चार अनिवार्य स्‍वास्‍थ्‍य जांचों की सुविधा मिल पाती है. 30 प्रतिशत महिलाएं ही आयरन फॉलिक एसिड की 100 गोलियों का सेवन करती हैं. केवल 36 प्रतिशत महिलाओं को संस्‍थागत प्रसव के बाद मातृत्‍व लाभ के तहत वित्‍तीय सहायता मिलती है. यह सब निष्‍कर्ष ही महिलाओं के पक्ष में तो नहीं हैं. यही नहीं, माहवारी के दौरान सुरक्षित साधनों का 57.6 प्रतिशत महिलाओं ने ही प्रयोग किया है. सालों-साल अभियान और प्रचार-प्रसार के बावजूद केवल 20 प्रतिशत महिलाओं को एचआईवी या एड्स के बारे में कोई जानकारी है. 22.9 प्रतिशत महिलाओं का बॉडी मॉस इंडेक्‍स सामान्‍य से कम है और 20 प्रतिशत महिलाएं हमारे देश में मोटापे की शिकार हैं.

बाल विवाह का दंश
बाल विवाह की हालत भी ऐसी ही है. सर्वेक्षण के मुताबिक सर्वे के समय 26.8 प्रतिशत महिलाएं हैं, जिनकी 18 साल से पहले की उम्र में ही शादी हो गई. जनसंख्‍या के आंकड़ों में भी देश में तकरीबन एक करोड 22 लाख ऐसे बच्‍चे निकलते हैं, जिनका बाल विवाह हुआ है. इनमें तकरीबन 15 साल से लेकर 19 साल तक की 7.9 प्रतिशत महिलाएं सर्वे के समय गर्भवती पाई गईं. जरा सोचिए, जब 15 साल की अवस्‍था में ही कोई लड़की मां बन जाएगी, तो उस देश की बुनियाद कैसे मजबूत होगी?

सो, महिला दिवस की असल सार्थकता तभी होगी, जब हम इन आंकड़ों को ठीक कर पाएं.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं

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