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This Article is From Jun 08, 2015

बाबा की कलम से : मिनी महाभारत से कम नहीं होने वाला बिहार चुनाव

Manoranjan Bharti
  • Blogs,
  • Updated:
    जून 08, 2015 18:15 pm IST
    • Published On जून 08, 2015 18:10 pm IST
    • Last Updated On जून 08, 2015 18:15 pm IST
लालू यादव और नीतीश कुमार का बिहार में गठबंधन आखिरकार हो ही गया। यह दोनों के लिए अच्छा हुआ है, दोनों के अस्तित्व के लिए यह जरूरी था। आकडों को देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 30 फीसदी वोट मिले थे और इसमें पासवान और कुशवाहा की पार्टी का वोट जोड़ दिया जाए तो इस गठबंधन के पास करीब 40 फीसदी वोट हो जाऐंगे। वहीं लालू, नीतीश, कांग्रेस, एनसीपी और वाम दलों के वोट को जोड़ा जाए तो 45 फीसदी का आंकडा पार कर रहा है।

इसलिए ये गठबंधन लालू और नीतीश के लिए मजबूरी से कम नहीं था। पहली बार हुआ है कि लालू यादव जिनका वोट 14 फीसदी है ने 4 फीसदी वाले कुर्मी जाति के किसी नेता का नेतृत्व स्वीकार किया है। मगर इस चक्कर में नीतीश पर दबाब काफी बढ़ गया है। नीतीश हमेशा से आरजेडी और जेडीयू का विलय चाहते थे, लेकिन राजनीति के माहिर खिलाड़ी लालू यादव ने ऐसा नहीं होने दिया। लालू को पता था कि एक बार विलय हुआ तो नीतीश पूरी पार्टी पर कब्जा कर लेगें और लालू अलग-थलग पड़ जाऐंगे।

अब नीतीश पर दबाब इसलिए भी है क्योंकि सीट बंटवारे से लेकर सरकार चलाने तक नीतीश को लालू के कहने पर चलना होगा। यानी यदि सरकार भी बनती है नीतीश कुमार के पास अपनी मर्जी से काम करने का मौका नहीं होगा और एक तरह से रिमोट लालू के हाथ में ही होगा। ये मामला जितना साधारण दिख रहा है दरअसल उतना ही पेचीदा है। हां इतना जरूर है कि 16 फीसदी मुस्लिम वोटरों के दिमाग में अब कोई संशय नहीं होगा।

मगर जमीन पर आरजेडी के कार्यकर्ता क्या नीतीश को अपना नेता मानने के लिए तैयार होंगे। यहां एक तर्क यह दिया जाता है कि एक साल पहले हुए उपचुनावों में जो आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस ने मिलकर लड़ा था, उसमें इस गठबंधन को अच्छी सफलता मिली थी। इस गठबंधन ने 10 में से 6 पर कब्जा कर लिया था। मगर एक उदाहरण और है जो यह दिखाता है कि कैसे लालू के वोटरों ने पासवान के साथ दगा किया था।

2009 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान हार गए थे, वजह था कि राबड़ी देवी के राघोपुर विधानसभा में पासवान जेडीयू के उम्मीदवार से पिछड गए थे। यानी यादवों ने पासवान के लिए वोट नहीं किया। बिहार में ऐसा होता रहा है क्योंकि वहां जाति सबके सिर चढ़कर बोलती है। उधर बीजेपी को भी ये सारा आंकड़े पता हैं वो भी नरेन्द्र मोदी के पिछड़ा होने का कार्ड खेलेगी और अगड़ी जातियों के जरिए माहौल बनाने की कोशिश करेगी।

बीजेपी के पास अगड़ी जातियों का करीब 80 फीसदी वोट है। मगर दिक्कत ये है कि अगड़ी जातियों का वोट बिहार में 15 फीसदी से कम है.. पासवान और कुशवाहा की मदद से बीजेपी ने पिछड़ों और महादलित वोटों में सेंध लगाई है. अब बीजेपी को यह तय करना है कि वो जीतन राम मांझी का क्या करते हैं, क्योंकि मांझी के पास भी 4 फीसदी वोट तो हैं ही और पप्पू यादव की मदद से बीजेपी कुछ जिलों में पिछड़ों के वोटों में सेंध लगा सकती है। कुल मिलाकर बिहार का चुनाव एक मिनी महाभारत से कम नहीं होने वाला है।

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