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This Article is From Nov 23, 2015

बाबा की कलम से : गले मिलने की राजनीतिक मजबूरी

Manoranjan Bharti
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 23, 2015 18:04 pm IST
    • Published On नवंबर 23, 2015 17:56 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 23, 2015 18:04 pm IST
लालू यादव के साथ गले मिलते अरविंद केजरीवाल की तस्वीर कहने को तो महज औपचारिकता थी और मौका भी कुछ ऐसा था कि केजरीवाल मना नहीं कर सकते थे। भले ही आप बाद में कहते रहें कि केवल गले मिले दिल नहीं मिले..मगर सबसे बड़ी बात है कि लालू यादव से गले मिलने का इतना ही खौफ था तो उन्हें शपथ ग्रहण समारोह में जाना ही नहीं चाहिए क्योंकि लालू जैसा मंजा नेता तो कोई भी ऐसा मौका नहीं छोड़ेगा जिससे एक अच्छी तस्वीर बनती हो। अब केजरीवाल सफाई दे रहे हैं कि उन्हें लालू यादव ने खींचकर गले लगा लिया।

जो उनके लिए भ्रष्टाचार के प्रतीक थे, अब वे उन्हीं के बीच...
दिक्कत यह है कि अभी शील का निर्वाह करने वाले केजरीवाल कभी नाम ले-लेकर नेताओं को कोसते रहे हैं। लालू और मुलायम को उन्होंने अपनी ओर से भ्रष्टाचार का प्रतीक मान लिया। जब राजनीति के असली मैदान में आए तब उनको मजबूरियां समझ में आ रही हैं। फिर राजनीतिक तौर पर आप नीतीश के साथ खड़े हों, मगर लालू के साथ नहीं- क्या यह संभव है? जब आप नीतीश के साथ हैं और समारोह में जा रहे हैं तो आपको लालू के गले मिलना ही पड़ेगा। यही नहीं, यहां शरद पवार भी मौजूद थे जिनके खिलाफ केजरीवाल लगातार बोलते रहे हैं। कभी आप के सबसे मजबूत सहयोगी रहे और केजरीवाल के दोहरे रवैये की शिकायत करने पर पार्टी से बाहर किए गए प्रशांत भूषण ने भी इसकी आलोचना की है।

काफी कुछ बयां कर जाती हैं तस्वीरें
राजनीति में तस्वीरें काफी कुछ बयां करती है।..कभी-कभी तो राजनीति की धारा भी तस्वीरों ने बदली है। जैसे बिहार के बेलछी में हाथी पर बैठी इंदिरा गांधी की तस्वीर ने उनकी वापसी के लिए जनमानस तैयार किया..या फिर लुधियाना की एनडीए की रैली में नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी का मिलन अपनी तरह से एक संदेश देता रहा। मगर केजरीवाल के साथ दिक्कत इस बात की है कि जिस तरह विरोधाभास की राजनीति वे करते हैं उसमें ऐसे मौके खूब आएंगे और उनको सफाई भी देते रहनी पड़ेगी।

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