कई दिनों से कुछ लिखा नहीं, लिखना चाहता भी नहीं ... फिर भी यही आता है खुद को व्यक्त करने के लिए ... शब्द एक ही है ... हतप्रभ हूं ...कश्मीर को सबने मिलकर हिन्दू-मुसलमान ही बना डाला. ज्ञान के भंडार खुल गए 370 से लेकर 35 ए तक ...संविधान निर्माता, संविधान विशेषज्ञ से लेकर अदालती तर्क आने लगे ...बुनियादी सवाल बचे रहे ...ख़ैर लौटना होगा उस पर ... एक बात समझ लें, लोकतंत्र में हर बात लोकतांत्रिक तरीक़े से हो ज़रूरी नहीं ...इसलिए सरकार ने सदन से कैसे मंज़ूरी ली, जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल ने इजाज़त दी मुख्यमंत्री से लेनी चाहिए जैसी बातों के मायने हैं, लेकिन हो ये सरकार ने जता दिया कि ज़रूरी नहीं.
पहले याद करते हैं कि बाबा साहेब ने 370 पर क्या कहा था- आप चाहते हैं कि भारत कश्मीर की रक्षा करे, कश्मीरियों को पूरे भारत में समान अधिकार हों पर भारत और भारतीयों को कश्मीर में कोई अधिकार देना नहीं चाहते. मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं अपने देश के साथ इस तरह की धोखाधड़ी में शामिल नहीं हो सकता.
अब लौटते हैं ... दो सरकारों की बात पर ... जी जनाब चाहे मुख्यमंत्री मान लें, या सदर-ए-रियासत ... तो
अब समझिए कश्मीर का लोकतंत्र जिसे कभी ग़ुलाम नबी हागरू ने ‘मेड बाई ख़ालिक़' कहा था - दरअसल 1951 में शेख अब्दुल्ला की पार्टी के खिलाफ 75 में महज़ 2 सीटों पर चुनाव हुआ बाकी में उनके लोग निर्विरोध चुने गए ... अब्दुल ख़ालिक़ जी ने अब्दुल्ला की पार्टी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने वाले किसी भी उम्मीदवार का पर्चा किसी न किसी बहाने ख़ारिज़ कर दिया था. फिर कैसे पंडित नेहरू ने सरकार को बर्खास्त किया. बीच में बड़ा संदेहास्पद सा दिल्ली एग्रीमेंट भी हो गया.
फिर 1965 भी आया जब राज्य में सदर-ए-रियासत को राज्यपाल के पद में बदला गया, वहां के संविधान में छठे संशोधन के जरिए ... कुछ सालों पहले हाईकोर्ट ने कहा भी था कि ये इसे बदलना राज्य विधायिका पर है, लेकिन गौरतलब ये है कि इसे अब तक बदला नहीं गया. फिर आया कश्मीर का टर्निंग पाइंट 1987 के चुनाव ... जहां एमयूएफ की जीत को हार में तब्दील करने के आरोप लगे और शुरू हुआ आतंकवाद का अंतहीन सिलसिला..
ख़ैर से सब पढ़ने समझने की शायद फुर्सत ना हो, या इसे कहने पर आप एक नए फैशनेबल शब्द से ख़ारिज कर दें ... बहरहाल लिखने का मकसद ये था कि जब 7-8 फीसद वोटिंग ( जी लगभग इतने प्रतिशत ही कश्मीर घाटी के हिस्सों में विधायक चुनते रहे हैं ) से कोई मुख्यमंत्री ना हो, तो सदर-ए-रियासत राज्यपाल होता है और ये व्यवस्था जम्मू-कश्मीर के संविधान के तहत ही थी...
इस बारे में बहुत से लोगों ने कई पहलुओं पर बात की है, लेकिन चूंकि 370 में बदलाव कंस्टीट्यूंट असेंबली की अनुशंसा से होगा जो नवंबर 1956 में डिजॉल्व हो गई इस मामले में बगैर कोई प्रावधान बनाए.
इसलिए सोमवार के फैसले को कई जानकार संविधान सम्मत ही बता रहे हैं.
ख़ैर ... 370 के लिए दहाड़ मारकर रोने वाले ये बता दें कि क्यों इतने सालों में जम्मू-कश्मीर में बेरोज़गारी की दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रही, एक सवाल गला फाड़कर खुश होने वालों से भी एक 370 हटने से क्या खूब रोज़गार सृजित हो जाएंगे. यही सवाल स्कूल-कॉलेज, अस्पतालों को लेकर भी है. जिन लोगों की देशभक्ति हिलोरें मार रही है, वह वहां की ज़मीन कब्ज़ाने तक है... क्या इस सोच से आप लाल चौक पर तिरंगे की बातें करते रहे हैं.
अब लौटता हूं, मेरे मूल सवाल पर कि कैसे आपने इसे हिन्दू-मुस्लिम बना दिया. सोशल मीडिया से लेकर देश के तमाम हिस्सों में खुश होने वाले एक खास विचारधारा के समर्थक हैं, तो दुखी होने वाले भी मज़हब के नाम पर बिसूर रहे हैं. क्या कश्मीर महज़ मजह़ब और विचारधारा है, या हाड़-मांस के लोगों का प्रदेश? ये सही है घाटी मुस्लिम बहुल है, लेकिन उनकी बुनियादी ज़रूरतें भी तो शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार ही होंगी... ये मानना नज़रें चुराने जैसा होगा कि कश्मीर का आंदोलन तेज़ी से धर्म के मुलम्मे से लिपटता जा रहा था, ये भी सही है कि उसे खींचने का जोर लगाने वालों का जुड़ाव भी धर्म विशेष से ही था. लेकिन इस ज़ोर आज़माइश में हम घाटी के अल्पसंख्यकों को भूल जाते हैं ... पंडितों की व्यथा किसी से छिपी नहीं है ... लाखों की तादाद में अपने देश में शरणार्थी बने ... कुछ अभी भी वहीं हैं ... सिख, बौद्ध, जैन, शिया भी ... क्या इनकी कोई आवाज़ है...जिस बहुसंख्यकवाद को आप देश के दूसरे हिस्सों में गाली बना चुके हैं, कश्मीर में सारी हमदर्दी क्या वहीं लुटाएंगे ... थोड़ी सी बचाकर दूसरों के लिए भी रख लें ...
एक और अहम बात ... जब विलय हुआ तो भौगौलिक, आर्थिक सामाजिक हालात कुछ और थे... कश्मीर कबाइली हमले से त्रस्त था... आज सामरिक रूप से अहम पाकिस्तान पर अमेरिका की नज़रे इनायत फिर हो गई है ... हथियार से लेकर डॉलर तक बरसने लगे हैं .... ऐसे में अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज के निकलने के मायने समझे जा सकते हैं ... ऐसे में देश की चुनी सरकार के पास अगर वजह हैं तो लोगों की सुरक्षा उसका फर्ज़ है...
ख़ैर .... आखिरी बात ... अब व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी की कुछ बातों पर भी यक़ीन करना पड़ेगा ... कम से कम कश्मीर के मामले में यहां के ग्रेजुएट के सामने लगता है पर्चा लीक हो गया था ...वैसे इस प्रश्न पत्र में एक सवाल सिलेबस से बाहर का लगता है ... किसी राज्य को केन्द्र शासित प्रदेश में बदलना ... याद रखना होगा कि भरोसा सालों में जीता जाता है, लेकिन एक ग़लत क़दम झटके में उसे तोड़ भी देता है.
अनुराग द्वारी NDTV इंडिया में डिप्टी एडिटर (न्यूज़) हैं...
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