कर्नाटक पर महाभारत: 'ये किसे वोट दे दिया!' यह सोचकर शर्मिंदा तो नहीं न आप...

कर्नाटक में लोकतंत्र के मंच पर शुरू हुए नाटक के बाद यकीनन उन लोगों के मन खट्टे हुए होंगे जिन्होंने कांग्रेस या बीजेपी के उम्मीदवारों को नहीं चुना.

कर्नाटक पर महाभारत: 'ये किसे वोट दे दिया!' यह सोचकर शर्मिंदा तो नहीं न आप...

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वो कहते हैं न जिसकी लाठी उसकी भैंस. अरे, न न ये मैंने क्या कह दिया! ये तो लोकतंत्र है... मुझे कहना चाहिए जिसका बहुमत उसकी 'भैंस', मेरा मतलब सत्ता... ये तो हम बरसों से सुनते आ रहे हैं कि 'लोकतंत्र लोगों के लिए, लोगों के द्वारा और लोगों का है.' तो फिर ये बहुमत क्या है... क्या कहा, बहुमत लोकतंत्र का प्राणतत्व यानी जान है? तो मतलब यह हुआ कि लोकतंत्र को समझने के लिए बहुमत का गणित समझना जरूरी है...

कर्नाटक में लोकतंत्र के मंच पर शुरू हुए नाटक के बाद यकीनन उन लोगों के मन खट्टे हुए होंगे जिन्होंने कांग्रेस या बीजेपी के उम्मीदवारों को नहीं चुना. अगर उन्हें कांग्रेस को ही वोट देना होता तो वे जेडीएस के उम्मीदवारों को भला क्यों चुनते. मतलब साफ हो सकता है कि वे वोटर कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों को नकार चुके थे. और इस अनुभव के बाद वो याद रखेंगे कि वोटिंग मशीन पर एक नोटा का भी बटन था.

बहरहाल, जेडीएस ही अब राज्य में तुरूप का इक्का बनी हुई है. इसमें जेडीएस का फैसला या रोल बुरा तो नहीं है, लेकिन यह और ज्यादा अच्छा हो सकता था अगर वो पहले बता देते कि किसी एक दल को बहुमत न मिलने पर वे किसे समर्थन देंगे. कम से कम उसके वोटरों को पता होता कि जेडीएस के बाद वह दूसरा दल कौन सा होगा जिसे वे अहमियत देंगे. पर नहीं, जनाब सस्पेंस और सत्ता के कुछ नियम होते हैं, जो टूटने नहीं चाहिए.

मतगणना के बाद से राज्य में जो हो रहा है उसे देखकर तो भीतर कहीं कोई ऐसे फफक-फफक कर ऐसे हंस रहा है कि रोके नहीं रुकता, पर जनाब इस हंसी को होंठों पर न आने दिया जाएगा. ये वर्तमान का लोकतंत्र है, लोगों का लोगों के लिए, सिर्फ आपके लिए नहीं.

कभी-कभी तो लगता है, इस 'बहुमत' वाली जनता को कहीं अंदर ही अंदर अकेलेपन में धकेला जा रहा है. उसे किसी तथाकथित या मनगढ़ंत जनमत पर यकीन कराने की जबरदस्त कोशिश की जा रही है, उसे कहा जा रहा है कि यही जनमत है, इसके साथ न बहे तो किनारे पर छोड़ दिए जाओगे, तोड़ दिए जाओगे.

मुझे वो जमाना याद आ रहा है जब परिजनों को अपने बच्चों के अफेयर के बारे में पता चलता था तो उसे घर में बंद कर दिया जाता था या शहर से बाहर भेज दिया जाता था ताकि दोनों मिल कर कोई प्लानिंग या प्लॉटिंग न कर पाएं. कुछ यही हाल इस समय कांग्रेस और जेडीएस का है. वे अपने उन नासमझ और कच्ची सोच के विधायकों, जिन्हें राज्य की बालिग समझदार वोटर जनता ने चुना है, बीजेपी से मिलने नहीं देना चाहती. कहीं ऐसा न हो कि वह उनके विचारशील, विवेकी, राज्य, राजनीति और उनके दल की विचारधारा से लबरेज उन विधायकों का ब्रेनवॉश कर दे, जो इसी दल के नाम पर लोगों के विश्वास को जीतकर आगे आए.

एक बात और समझने वाली है कि ये जो बहुमत वाली जनता है, ये किसी नेता को उसके अपने चरित्र और काम के बल पर वोट देती है या यह देखकर कि वह किस दल का है. खैर, जो भी सोचकर देती है, यह सोचकर तो नहीं देती होगी कि उनमें खुद की कोई समझ नहीं, उनकी कोई सोच या विचारधारा नहीं या ये उम्मीदवार तो बच्चे हैं समझ आ जाएगी धीरे-धीरे. और यह तो कतई नहीं सोचते होंगे कि अभी वोट दे देते हैं, बाद में यह अपनी कीमत तय कर लेंगे, जब दल बदलना चाहेंगे बलद लेंगे.

सच मेरे लिए तो यह हैरान करने वाली खबरें हैं कि पार्टी अपने निर्वाचित नेताओं को दूसरे दलों से इसलिए बचा कर या दूर रख रही है ताकि वे उन्हें खरीद न लें. क्या विधायक वाकई इतने कमजोर विचारधारा वाले हैं, क्या हमने उन्हें वोट दिया है जो इतने अविवेकी (जेब से) हैं कि किसी के भी बहकावे (लालच) में आ सकते हैं. क्यों न ऐसा नियम बनाया जाए कि ऐसे विधायकों की जीत ठीक उसी वक्त रद्द मानी जाए जब वे यकायक दल बदल लेते हैं.

अब अगर आपको यह सोचकर शर्मिंदगी हो रही है कि आपने किन्हें वोट दे दिया, पर आप करते भी क्या, आपके पास विकल्प नहीं था तो अगली बार याद रखें की ईवीएम पर एक बटन नोटा का भी होता है.

अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में डेप्‍यूटी न्‍यूज एडिटर हैं

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