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This Article is From Apr 27, 2016

डायरी : मेरा अबॉर्शन हुआ है, पर माफ करना ये मैंने नहीं किया !

Anita Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 28, 2016 13:50 pm IST
    • Published On अप्रैल 27, 2016 14:10 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 28, 2016 13:50 pm IST
रात के ठीक बारह बजे हैं। पड़ोस से किसी बच्चे के रोने की आवाजें आ रही हैं... दिनभर बिस्तर पर बेजान और उनींदी सी पड़ी रहने के बाद जैसे आंखें और शरीर मुझसे उकता गए हों... सोने की भरसक कोशिश के बावजूद मानो शरीर के हर अंग आपस में न सोने की जंग लड़ रहे हों...

अजीब लग रहा है कुछ लिखते हुए, अपने भावों को। ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी अपने हालातों या भावों पर लिखा नहीं, पर आज लिखना जरा मुश्किल सा है। इससे पहले अपने भावों को पहचानकर शब्दों में उकेरना इतना भी कठिन नहीं होता था... पर आज तो जैसे शब्दों का अकाल हो, सूखा पड़ा हो...

ठीक तीन महीने तक वह मेरे साथ था। हम सा‍थ-साथ खाते-पीते, सोते-जागते और नहाते-धोते... मैं उसकी जरूरतों को पूरा करने में ही अपनी सार्थकता तलाशने लगी थी। वह हर चीज जो मुझे जरा भी पसंद नहीं थी, मैं उसके लिए करती। ताकि उसकी हर जरूरत पूरी हो सके और वह खुशहाल रहे...

उफ... उसके आने से मेरा तो रूटीन ही बदल गया था, मैं उसकी जरूरतों के मुताबिक ढल और बदल चुकी थी। वह भी मेरे मन की हर बात जानता था। हर बात मतलब हर बात... हम घंटों बातें करते, नए-नए प्लान बनाते और बनाकर बदल देते। एक बार तो मैंने जरा सी नाराजगी जताते हुए उससे पूछ लिया था 'आने की इतनी भी क्या जल्दी थी।' उसने कहा था- 'मां, मुझे तो लगा मैं देर से आया हूं..'  नटखट बंदर... मैं हंसी और उसे एक झप्पी दे दी। कुछ ऐसा ही रिश्ता था मेरे और मेरे तीन माह के भ्रूण के बीच...

पर जाने किस बात से वह पिछले शनिवार से ही नाराज सा था। मेरे मन की हर बात जानने वाला अपने मन में जाने क्या छिपाए बैठा था। पूरे एक दिन के मनमुटाव के बाद रविवार को वह यकायक मुझे छोड़कर चला गया... तड़के पांच बजे रक्त का जो रंग मैंने देखा था, वो लाल नहीं काला था... लाखों-करोड़ों भावनाओं और स्वप्नों के मरे और सड़े हुए अंश उसमें कीड़ों से रेंग रहे थे। वो गर्म था, बहुत गर्म, भावों की सलाखों के पिघलने से बने लावे जैसा गर्म...

 भला ऐसा भी कोई करता है। कितना समझाया था, कितनी मिन्नतें की थी मैंने, कितना गिड़गिडाई थी मैं उसके आगे... पर डॉक्टर की मानूं तो मोह या दया तो उसे हो ही नहीं सकती, दिल जो नहीं बना था उसका। उसके इस तरह चले जाने को डॉक्टरी और विज्ञान की भाषा ने नाम दिया 'अबॉर्शन', 'मिसकैरेज'..

कुछ इस तरह मैंने अपना एक बच्चा खो दिया और अबॉर्शन नाम के जिस भूत से मैं डरती थी, वो मुझसे आ चिपटा। अस्पताल में जब होश आया तो मुझे कहा गया और खुद भी लगा कि यह बात किसी को न बताई जाए। क्योंकि मैं तरस या सांत्वना भरे बोल और निगाहों से दूर ही रहना चाहती थी। पर नहीं जानती थी कि इस दुखद अनुभव के साथ एक घटिया अनुभव का अटूट नाता है...

कुछ बुजुर्ग और तथाकथित 'बड़ों' ने इस घटिया अनुभव को पाने में मेरी पूरी-पूरी मदद की। वो मुझसे मिलते, गले लगते और नम आंखों से कहते- 'ये क्या कर दिया, कुछ ही महीनों की बात तो रह गई थी...' मेरे पास एक हफ्ता बीतने के बाद भी इस 'ये क्या कर दिया' का जवाब नहीं है।

मेरे लिए स्थिति दुख की नहीं, असमंजस की पैदा हो गई, जब लोग मुझे मेरे बर्ताव से परखने लगे। अचानक ऐसा लगा जैसे मैं कोई जिंदा इंसान नहीं, भारत-पाक के बीच होने वाला क्रिकेट मैच हूं। अगर मैं हंसती तो एक खेमे के लोग तड़प उठते और अगर मैं रोती तो दूसरे खेमे के।

अबॉर्शन के बाद लेबर रूम में जब भाभी की कोशिश पर मैंने एक जोरदार ठहाका लगा दिया, तो पास ही बैठी एक महिला ने फट से पूछ लिया 'तूझे बेटा हुआ है क्या ?' और जब वहां लोगों को पता चलता कि मेरे साथ क्या हुआ है, तो हर तरफ से एक ही आवाज आई- 'चू चू चू... कोई बात नहीं बेटी, फिर हो जाएगा, तू खुश रह बस' लेकिन जैसे ही मैं जरा सा हंसती उन सबकी तरेरी हुई भौंहे और निगाहें मुझे अजीब भावों से घूरतीं...

 हद तो तब हुई, जब अस्पताल से घर आने के बाद पड़ोस के कुछ तथाकथित बड़ों ने मुझे घर की दहलीज पार न करने को कहा। वजह जानकर मुझे अपनी शिक्षा और समझ बेमतलब लगने लगे। वजह थी कि बाहर जाने पर मेरा 'परछावा' यानी परछाई जिस पर पड़ेगी उसके साथ भी ऐसी ही घटना घट सकती है... और इस तरह अपने आप से नफरत करते हुए मैंने एक हफ्ता बिस्तर पर ही बिता दिया...

मैंने ये लेख इसलिए नहीं लिखा है कि मैं लोगों की संवेदना पाना चाहती हूं, न ही किसी का तरस पाकर मुझे संतोष का अनुभव होगा। मैंने ये लेख इसलिए लिखा है, ताकि मैं सबको यह बता सकूं कि मेरा अबॉर्शन हुआ है... मैंने अपना वो बच्चा खोया है, जिसे मैं प्यार करती थी, जन्म देना चाहती थी...

इस बच्चे के चले जाने में मेरा कोई दोष नहीं है, मैंने उसे नहीं मारा तो फिर इस बात को छुपाया क्यों जाए? क्यों मुझसे या किसी दूसरी औरत से ये कहा जाए-  'ये क्या कर दिया तुमने' क्यों उसके हंसने पर आंखें तरेरी जाएं और फिर क्यों उसे ये कहा जाए कि उदास मत हो... क्यों उसे कहा जाए कि ये बात किसी को मत बताना? क्या जरूरी है कि औरत की हर छोटी या बड़ी चोट को दबा और छुपाकर नासूर बना दिया जाए? क्यों न उसे जीने दिया जाए, आजाद रहने दिया जाए, खुश रहने दिया जाए और सबसे जरूरी क्यों न उसे छोड़ दिया जाए उसके हाल पर...?

अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में चीफ सब एडिटर हैं।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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