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This Article is From Jul 31, 2015

...और इस तरह तामील हो गया याकूब का डेथ वारंट

Reported By Sunil Kumar Singh
  • ,
  • Updated:
    July 31, 2015 22:10 IST
    • Published On July 31, 2015 22:15 IST
    • Last Updated On July 31, 2015 22:15 IST
29 जुलाई 2015 की रात। सर्वोच्च न्यायालय मे याकूब मेमन को फांसी से बचाने की आखिरी कोशिश चल रही थी। अमूमन रात 12 बजे के बाद रिकॉर्डिंग मोड में चले जाने वाले न्यूज चैनल लाईव रोल हो रहे थे। लेकिन जिसके लिये ये सब हो रहा था, वो याकूब मेमन नागपूर मध्यवर्ती जेल के फांसी यार्ड की 5 नंबर कोठरी में इस सब से बेखबर सो रहा था। सोने के पहले उसने जेल वालों से सूबह खाने के लिये शिरा यानी सूजी का हलवा देने की मांग की थी।

नागपुर के सीताबर्डी में स्थित द्वारका होटल में याकूब के बडे भाई सुलेमान अपने कमरे में थे। तभी रात 2 बजकर 10 मिनट पर एक सिपाही होटल पहुंचा। मैनेजर के साथ वो सुलेमान के कमरे मे गया। सुलेमान जागे हुये थे। टीवी पर समाचार चल रहा था। सिपाही ने सुलेमान को एक खत दिया और निकल गया।

हर तरफ असमंजस की स्थिति थी। याकूब मेमन का क्या होगा? उसे फांसी होगी या नहीं? कुछ लोगों को फांसी की सजा के प्रावधान पर ही ऐतराज है। मेरे रेसिडेंट एडिटर अभिषेक शर्मा भी उनमें से एक हैं। हालांकि मैं फांसी की सजा के पक्ष में हूं। दफ्तर में हम दोनों में अक्सर इस बात पर बहस होती रहती है। हम सबकी निगाहें सर्वोच्च न्यायालय में हो रही सुनवाई पर लगी थी।

जेल जहां रात को पत्ता भी नही हिलता, वहां भी हलचल थी। जेल विभाग की एडीजी मीरा बोरवणकर पुणे से आकर वहां डेरा डाले हुई थी। जेल के सूपरिटेंडेंट योगश देसाई चहलकदमी कर रहे थे। मजिस्ट्रेट और डॉक्टर भी जाग रहे थे। वक्त तेजी से बीत रहा था। टाडा अदालत के डेथ वॉरंट की तारीख 30 जुलाई आ चुकी थी। फांसी के लिये तय वक्त भी करीब आ रहा था। जेल के भीतर और चहार दीवारी से 500 मीटर दूरी तक धारा 144 लगाई जा चुकी थी। पत्रकारों की एक बड़ी फौज जेल से बहुत दूर सड़क पर डेरा डाल चुकी थी। मेरे जैसे दर्जनों पत्रकार द्वारका होटल के बाहर जुटे थे। सबकी नींद उड़ी हुई थी। रात का अंधेरा छंटने लगा था। तभी सुबह 5 बजे के करीब सर्वोच्च न्यायालय से खबर आई। याकूब की फांसी रोकने की आखिरी कोशिश भी नाकामयाब हो गई थी।

रात की उस गहमा-गहमी से बेखबर याकूब मेमन भी जाग चुका था। नहाने के बाद उसने प्रार्थना की। उसके लिये खास तौर पर बनाकर लाया गया शिरा खाया। चाय पी। डॉक्टर ने उसका ब्लड प्रेशर चेक किया। याकूब की मौत नजदीक थी लेकिन वो हमेशा की तरह शांत था। बगल में ही स्थित फांसी यार्ड में हलचल बढ़ गई थी।

अब तक सूबह के 6.30 बज चुके थे। चैनलों मे याकूब को फांसी दिये जाने की खबर ब्रेक हो चुकी थी। सबकुछ फांसी की तय प्रक्रिया और कयास पर चल रहा था। कहीं कोई ना तो पुष्टि करने वाला था और ना ही खंडन करने वाला।

जबकि जेल के अंदर की हकीकत कुछ और थी। याकूब अपनी कोठरी में प्रार्थना मे लीन था। 6.45 पर याकूब की कोठरी में जेलकर्मी ने कदम रखा और कहा चलो। बाहर जाने के पहले उसने याकूब के दोनों हाथों को पीछे रख कर हथकड़ी पहनाई, चेहरे पर नकाब डाला गया और हाथ पकड़ कर उसे फांसी यार्ड में ले जाया गया। वहां जेल विभाग के 4 बड़े आला अफसर, मजिस्ट्रेट और डॉक्टर सहित कुल 10 जेल कर्मी भी मौजूद थे।

अब तक सूबह के साढ़े सात बज चुके थे। बाहर फांसी के समय को लेकर अब भी उलझन बरकरार थी। महाराष्ट्र के अतिरिक्त मुख्‍य सचिव(गृह) के.पी. बख्शी से बमुश्किल बात हो पायी। तब जाकर फांसी के सही वक्त का खुलासा हुआ।

बाहर सड़क पर मीडिया कर्मियों के ईर्दगीर्द मजमा लग चुका था। पत्रकारों को काम करना भी मुश्किल हो रहा था। लोग कैमरे में दिखने के लिये लाईव में घुसने से भी बाज नहीं आ रहे थे। कुछ तो रह रह कर शोर भी मचा रहे थे। पुलिस का काम भी बढ़ चुका था।

द्वारका होटल के बाहर का हाल भी कुछ ऐसा ही था। सुलेमान और उस्मान के बाहर निकलने का इंतजार हो रहा था। फांसी के बाद सभी को मेमन परिवार की प्रतिक्रिया की दरकार थी। 8 बजे के बाद दोनों होटल से बाहर आये लेकिन मीडिया से कोई बात नहीं की। कार में बैठे और जेल की तरफ बढ़ गये।

याकूब का शव मुंबई ले जाने का वक्त करीब आ चुका था। एंबुलेंस किसी भी वक्त शव लेकर एयरपोर्ट की तरफ निकल सकती थी। मुंबई से आये ज्यादातर टीवी रिपोर्टर भी शव ले जाने वाली फ्लाईट से ही मुंबई जाने के लिये निकलने लगे थे। लेकिन मैं वहीं रुका रहा क्योंकि मेरे रेसिडेंट एडिटर अभिषेक शर्मा ने ये कहकर शव के साथ जाने से मना कर दिया था कि वो कोई शहीद नहीं है।

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