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This Article is From Dec 17, 2016

निर्भया के बाद भी हम कहां, कैशलेस सोसायटी क्राइमलेस भी होगी?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 17, 2016 23:19 pm IST
    • Published On दिसंबर 17, 2016 22:47 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 17, 2016 23:19 pm IST
जिस साल निर्भया जैसा जघन्य बलात्कार का मामला दिल्ली जैसे शहर में हुआ, उस साल नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में महिलाओं की अस्‍मत तार-तार करने के 24,923 मामले दर्ज हुए. इस कांड के बाद जनता पहली बार सोशल मीडिया के आभासी मैदान से असल जमीन पर उतरती नजर आई थी, पूरे गुस्से के साथ.

बलात्कार का यह कोई पहला मामला तो नहीं था, लेकिन जिस वीभत्‍स रूप में यह सामने आया, जिस तरह से इस पर देशभर में गुस्‍से भरी प्रतिक्रिया नजर आई, उससे लग रहा था कि महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा में अब देश में कोई बड़ा बदलाव सामने आने वाला है, केवल सरकार की ही तरफ से ही नहीं, समाज, राजनीति और संस्थाओं, संगठनों से भी बड़ी आस जगाई थी.

लेकिन क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की इसके अगले साल की रिपोर्ट में बलात्कार के 33,707 मामले दर्ज हुए और इसके अगले साल में जब यह रिपोर्ट आई तो यह संख्या 36,707 थी. साल 2015 में भी 34,651 महिलाओं या लड़कियों के साथ में बलात्कार के मामले दर्ज हुए. सोचिए, निर्भया के बाद भी कहां पहुंचे हम.!

दिसंबर की उस काली रात के बाद के सालों ने बहुत कुछ देख लिया. देश ने एक मितभाषी प्रधानमंत्री के राज से आक्रामक प्रधानमंत्री तक के सफर को देखा. पूरे के पूरे एक चुनाव को देखा और पूरे बहुमत को आते देखा. देश ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए बढ़ते हुए इंतजामों को देखा. देश ने कुसूरवार को सजा दिलाने के लिए एक बड़ी बहस को देखा, कानूनों में संशोधनों को होते देखा, लेकिन क्या कोई ऐसा आंकड़ा आ पाया जिससे हम सुकून की सांस ले पाते.

केवल बलात्कार के आंकड़ों को ही नहीं अपहरण से संबंधित मामलों को भी ले लें तो चार साल पहले 47,512 की यह संख्या 2015 में आते—आते 59,277 तक जा पहुंची. साल 2014 में यह संख्या 77,237 पर दर्ज हुई थी. वर्ष 2015 में ही महिलाओं की तस्करी के 2,424 मामले दर्ज हैं, महिलाओं के सारे अपराधों का लेखा लेखा—जोखा 3,27,394 पर जाकर टिकता है और ट्रायल मामलों की बात करेंगे तब यह संख्या 12 लाख तक जा पहुंचती है.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों का यह ताना—बाना निर्भया कांड के बाद भी वही 'ढाक के तीन पात' जैसी स्थिति को बताने के लिए काफी है. मतलब बदला कुछ नहीं, बल्कि अच्‍छे दिनों में भी हालात और भयावह हो गए.

आखिर कैसे तकनीकी रूप से स्मार्ट होते जा रहे भारत में महिलाओं का यह चेहरा बदला नजर नहीं आता है. स्वच्छ भारत के एजेंडे में सुरक्षित भारत का कोई बिंदु अगले ढाई सालों में शामिल हो पाएगा या नहीं या हमारा पूरा जोर पांच सालों में केवल शौचालय निर्माण ही होगा.

यह जरूर है कि शौचालय भी देश में एक बड़ी समस्या है, खासकर महिलाओं के लिए आज भी यह भयानक स्थिति है. ग्रामीण इलाकों में शौच के लिए जाते समय अपराध होने के मामले भी कई रिपोर्ट में सामने आए हैं, लेकिन एक पक्ष यह भी है कि जिन समाजों में शौचालय हैं वहां, भी महिलाओं के साथ अपराध तो हो ही रहे हैं, निर्भया कांड तो एक सर्वसुविधायुक्त वातावरण में हुआ था. फिर क्या एजेंडे में ‘स्वच्छ’के साथ एक शब्द ‘सुरक्षित’को भी उतना ही जोर देकर जोड़ा जाना चाहिए.

कैशलेस सोसायटी बनाने का जो रास्ता डिजिटली स्मार्टफोन और तमाम उपकरणों के जरिए एक सुविधा की तरह जेब में घुसा चला आ रहा है और इस वक्त जो सरकार का सबसे बड़ा एजेंडा है. याद रखिए इसी रास्ते से वह तमाम चीजें भी उसी गति से चली आ रही हैं जो किसी भी सोसायटी को क्राइमलैस बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं.

गौर कीजिए, देश का युवा वर्ग आज सस्ते इंटरनेट पैकेज और स्मार्टफोन की चमकदार दुनिया से किस दुनिया की सैर कर रहा है. एसोचैम की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के 13 साल के 73 प्रतिशत बच्चे इंटरनेट की लत के शिकार हैं और यह आंकड़ा अब तेजी से बढ़ रहा है. किशोरवय के साथ ही छोटे—छोटे बच्चे भी फोन पर इंटरनेट इस्तेमाल कर रहे हैं.

सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि इन बच्चों की सामाजिक दुनिया इंटरनेट तक सिमट कर रह गई है, जिस कारण आपसी संबंधों के बिखरने का खतरा भी बढ़ रहा है. केवल कुछ की वर्ड और सर्च इंजन उसे किस दुनिया से रूबरू करा रहे हैं. रही—सही कसर ऐसे इंटरनेट ग्रुप्स पूरा किए दे रहे हैं, जिन पर किसी का कुछ भी कंट्रोल नहीं है. और इस पर किसी का ध्यान ही नहीं है. 18 साल तक की उम्र से पहले पाबंदी की वह सूचना कहीं पीछे छूट गई है और इस पर नियंत्रण का कोई नया तरीका हमने खोजा ही नहीं है.

हम द्रुतगति से स्मार्ट हो रहे हैं, लेकिन इस स्मार्टनेस के पीछे के इन स्याहपक्षों पर कोई संवाद नहीं है. ऐसे में ‘सोसायटी कैशलेस तो होगी, लेकिन क्राइमलैस नहीं’.नोटबंदी के साथ इस तरह की बेलगाम नेटबंदी पर भी ध्‍यान देना बहुत जरूरी हो गया है.

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...

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