नई दिल्ली:
दिल्ली में विधानसभा चुनाव इतनी शिद्दत से लड़ा जाएगा इस पर अब सबको आश्चर्य हो रहा है। एक ऐसा शहर जो कम वोटिंग और वोटिंग के दिन छुट्टी मनाने के लिए जाना जाता था। यह शहर अब एक ऐसी चुनावी जंग को महसूस कर रहा है, जिसमें एक्शन है, ड्रामा है, साजिश पर साजिश है और सबसे बड़ी बात सस्पेंस भी है।
कैसे दिल्ली की जनता राजनीति के लिए तैयार हुई इसका उदाहरण है कि 2003 में 53.42 फीसदी मतदान हुआ था, जो 2013 में बढ़कर 65.63 फीसदी हो गया और इस बार यह संख्या और बढ़ने वाली है, क्योंकि इस बार का चुनाव कई नेताओं के राजनीतिक भविष्य को तय कर सकता है खासकर अरविंद केजरीवाल के और यदि बीजेपी हार गई तो किरण बेदी का राजनैतिक करियर शायद कभी परवान ही नहीं चढ़ेगा।
मैं अपने चैनल एनडीटीवी इंडिया के लिए चुनावों के दौरान बाबा का ढाबा नाम का एक शो करता हूं, जिसमें आम जनता से स्ट्रीट फूड के स्टॉल पर बातचीत होती है। इसमें मैंने पाया कि वोटरों की मानसिकता किस तरह से बदलती है और मीडिया का क्या रोल होता है।
अभी से एक हफ्ते पहले जब मैं लोगों से मिलता था तो लगा लोग मन नहीं बना पाए हैं और कई जगह बीजेपी का नाम लोग अधिक ले रहे थे। किरण बेदी के नाम की घोषणा हाल में ही की गई थी। लोगों में उत्साह था, फिर न जाने क्या हुआ मैंने पाया कि लोग थोड़े असमंजस में दिखने लगे, फिर बीजेपी ने दिल्ली में अपनी सारी ताकत झोंक दी।
120 सांसदों के साथ-साथ प्रधानमंत्री को भी उतारा गया। उसी समय शुरू हुआ दिल्ली की राजनीति में आरोप-प्रत्यारोपों का दौर। बीजेपी के विज्ञापनों में केजरीवाल पर सीधा निशाना साधा गया और फिर आम आदमी पार्टी पर उसके ही एक टूटे धड़े ने हवाला के जरिये चंदा लेने का आरोप लगाया और आम आदमी पार्टी फोकस में आ गई।
लोग अब ये जानने की कोशिश करने लगे कि अरविंद केजरीवाल की रैली में कितनी भीड़ जुट रही है और जहां लोगों की बात है उनकी भी आवाज बदलने लगी। लगा आम आदमी पार्टी और बीजेपी में टक्कर है। फिर मीडिया का सर्वे आना शुरू हो गया और आम आदमी पार्टी को बढ़त दिखाई जाने लगी। मैंने चांदनी चौक में लोगों से पूछा कि क्या टीवी अखबारों के सर्वे से आपकी सोच पर असर पड़ता है। मैं चकित रह गया कि लोग अखबार और टीवी को कितने गंभीरता से लेते हैं। लोग अभी भी बीजेपी का नाम ले रहे थे, मगर आम आदमी की पार्टी का जो वोटर चुप था अब मीडिया से खुलकर बोल रहा था। लेकिन एक बात बता दूं मीडिया में बोलने वाले वोटर से आप ये अंदाजा नहीं लगा सकते हैं कि सच्चाई क्या है..यही वजह है कि सभी सर्वे सच नहीं होते और सभी एक्जिट पोल भी। साथ ही सभाओं में जुटने वाली भीड़ भी वोट में बदल जाए इसमें भी कोई सच्चाई नहीं है, क्योंकि भीड़ कैसे लाई जाती है आप सबको पता है। एक आदमी के रैली में जाने का रेट 500 रुपये और दोपहर का खाना है। जिस दिन जिस क्षेत्र में बड़ी रैली हो उस इलाके में उस दिन दिहाड़ी मजदूर नहीं मिलते हैं, क्योंकि एक मजदूर की दिहाड़ी 300 रुपये है।
सच यह है कि जो वोट देने वोटिंग के दिन निकलेगा वही तय करेगा कि किसकी सरकार बनेगी। ऐसे में मुकाबला आम आदमी बनाम खास आदमी के बीच है। खैर, नतीजा कुछ भी हो मगर एक बहुत ही दिलचस्प और जी जान से लड़ा जाने वाला चुनाव देखने को मिल रहा है।