प्राइम टाइम इंट्रो : एक्ट आफ गॉड! खतरे की आशंका के बावजूद अनदेखी, जिम्मेदार कौन?

प्राइम टाइम इंट्रो : एक्ट आफ गॉड! खतरे की आशंका के बावजूद अनदेखी, जिम्मेदार कौन?

कोलकाता में धराशायी हुआ फ्लाईओवर (फाइल फोटो)

कोलकाता के विवेकानंद रोड फ्लाईओवर हादसे में 25 लोगों की मौत हो गई है। गुरुवार दोपहर ग्रेटर बड़ा बाजार के गणेश टाकीज क्रांसिग पर यह पुल 2008 से बन रहा था। 6 साल में भी यह फ्लाईओवर पूरा नहीं हो सका है। इसे कायदे से 2012 में ही बन जाना चाहिए था लेकिन 2016 में बनने से पहले गिर ही गया। जिस बड़ा बाजार में यह फ्लाईओवर बन रहा है वहां आम दिनों में पांव रखने की जगह नहीं होती है।

एक पुल का गिरना कितना आसान है, मुश्किल है तो यह जानना कि क्यों गिरा? कहीं इस तरह से कोई पुल गिरता है। एक स्थानीय नागरिक ने बताया कि इस पुल के नीचे कोई ट्रक न घुसे इसलिए बैरिकेड लगा है। महीना भर पहले दो बार ट्रक बैरिकेड तोड़कर अंदर घुस आया। एक ट्रक तो पंद्रह बीस फुट तक अंदर आ गया और एक खंभे से टकरा गया। खंभा क्षतिग्रस्त हुआ। उसी जगह पर ट्रैफिक पुलिस का पोस्ट भी है। तो क्या कंपनी और प्रशासन को यह नजर नहीं आया कि पुल गिर सकता है। स्थानीय नागरिक ने बताया कि जहां पर पुल गिरा है वहां एक अजीब सा मोड़ बनता है। देखकर लगता है कि डिजाइन सही नहीं है। इसलिए जरूरी है कि विश्वसनीय तरीके से पता लगाया जाए कि पुल किन कारणों से गिरा। एक्ट आफ ठेकेदार की वजह से गिरा या 'एक्ट आफ गॉड' की वजह से।

बचाव दल ने तो कह दिया कि 25 लोग मरे हैं लेकिन मरने वाला कौन था? जो मरा है अब उसके परिवार का क्या होगा? संजय मल्होत्रा, तपन दत्ता, आशा जोशी, एडी रमजानी, गजेंद्र सेठिया, निर्मल कुमार, सोनिया यादव, सुनील विश्वकर्मा, रंजीत सहाय यह नाम हैं उन लोगों के जो पुल के नीचे दब कर मर गए।

कोलकाता के अखबार सन्मार्ग में महादेव अदक के बारे में छपा है। महादेव बड़ा बाजार की एक कंपनी में कैशियर थे। सुबह कैश लेने के लिए निकले ही थे, पुल गिर गया। हावड़ा के जगाछा थाना के बाकसाड़ा इलाके के रहने वाले थे। उनके घर का इंतजाम कौन देखेगा। इसके लिए कोई एक्ट आफ गॉड होता है। कानूनी भाषा है 'एक्ट आफ गॉड' लेकिन हम भूल गए हैं कब क्या और कैसे बोलना है। कोलकाता के अखबारों के अनुसार मरने वालों में 3 रिक्शा चालक भी हैं। कुछ अभी भी लापता बताए जा रहे हैं।

शबाना बानो अपने बच्चे को स्कूल से लाने निकली थी, पुल के नीचे दब गईं। आखिरी वक्त में दो बार घर फोन भी किया कि बचा लो। शुक्रवार को सुबह उनका शव बाहर निकाला गया।

बड़ा बाजार से कोलकाता नगर निगम और राज्य सरकार को खूब राजस्व मिलता है लेकिन जब आप यहां आएंगे तो लगेगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद यहां कोई सरकार आई ही नहीं। आम तौर पर ऐसे पारंपरिक बाजारों का यही हाल होता है। इस बाजार में हर दल का दफ्तर और झंडा दिखेगा। हर जगह की तरह व्यापारिक वर्ग का हर दल में ऊपर तक संपर्क है मगर वे अपने ही मार्केट का हाल ठीक नहीं कर पाते हैं। इस पुल का बनना और गिरना दोनों ही राजनीतिक व्यवस्था की नाकामी का प्रमाण है।

यह पुल वार्ड नंबर 23, 24, 25 में आता है। 23 नंबर वार्ड से बीजेपी है।  24 और 25 नंबर वार्ड से तृणमूल कांग्रेस है। विधायक और सांसद दोनों तृणमूल कांग्रेस से हैं। रवींद्रनाथ टैगोर का घर ठीक सौ मीटर की दूरी पर है, जहां पुल का हिस्सा गिरा था। उन्हीं के घर के नाम पर विधानसभा का नाम है। वहां से तृणमूल की विधायक हैं। आज कांग्रेस और बीजेपी ने आरोप लगाया है कि इनके एक रिश्तेदार के पास पुल निर्माण के लिए लेबर और मटेरियल सप्लाई का ठेका था। यह पुल राज्य सरकार की निगरानी में जवाहरलाल अर्बन मिशन के तहत बन रहा था। उत्तर कोलकाता के तृणमूल सांसद सुदीप बंधोपाध्याय ने कहा है कि उन्होंने राज्य सरकार से पुल की डिजाइन की शिकायत की थी लेकिन तब तक 60 फीसदी हिस्सा बन चुका था। शिलान्यास हुआ था इसका 2001 में, काम शुरू हुआ 2008 में। मार्च 2016 में भी नहीं बना और गिर ही गया।

60 मीटर लंबा पुल गिर जाए, जिसका वजन 140 टन हो तो सोचिए मलबे को हटाने में कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। कोलकाता पुलिस, सेना के जवान, एनडीआरएफ, डिपार्टमेंट आफ माइन्स एंड जियोलॉजी, निगम के इंजीनियर सहित पांच हजार लोग जुटे हैं। तृणमूल कांग्रेस के नेता सीपीएम पर आरोप लगा रहे हैं। सीपीएम वाले तृणमूल पर आरोप लगा रहे हैं। ठीक से जांच हो जाए तो पता चलेगा कि पुल बनाने वाली कंपनी के सबसे रिश्ते हैं। 2011 से 2016 पांच साल तक तृणमूल की सरकार रही। कोई साफ-साफ क्यों नहीं बताता कि क्यों नहीं बना? क्यों नहीं खतरे की आशंका के बारे में सुना गया? तृणमूल सरकार ने अपने ही सांसद की बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया?

आप इस फ्लाईओवर को ठीक से देखें तो समझ में आ जाएगा कि यह बन भी जाता तो किसी कहर से कम नहीं होता। फ्लाईओवर ने तमाम शहरों को बदसूरत कर दिया है। यह फ्लाईओवर जिस तरह से गुजर रहा है वह सटीक उदाहरण है, यह समझने का कि हम अपने शहरों के साथ क्या कर रहे हैं।

किसी सूखे नाले की तरह दोनों तरफ के मकानों से सटे यह फ्लाईओवर बहता चला आ रहा है, बदरंग, बेनूर और बेढंग। डिज़ाइन देखकर लगता है भारत में इंजीनियरिंग और डिज़ाइन की पढ़ाई बंद हो गई है। न समझ, न कल्पना दिखती है। इस पुल को बनाने से पहले यह तक नहीं सोचा गया कि आसपास के मकानों और लोगों के जीवन पर क्या असर पड़ेगा। यह सारे मकान साठ से सत्तर साल पुराने हैं। इनके बीच से दो किलोमीटर लंबा पुल गुजारने का ख्याल किस महान वैज्ञानिक का था उसे हाजिर किया जाना चाहिए।

पुल यहां के मकानों को छूकर गुजर रहा है। इतने करीब से कि आप स्केल से नाप सकते हैं। एक फुट का भी अंतर नहीं है। कोई इंजीनियरिंग फेल होगा तब भी ऐसी डिज़ाइन नहीं बनाएगा। कम से पांच से छह फुट का अंतर तो रखेगा। यहां के मकानों के इतने करीब से गुजर रहा है कि खिड़कियां भी नहीं खुल सकती हैं। अब आप बताइए यह पुल बन जाता तो यहां के मकानों पर क्या असर पड़ता। पुल के कंपन से मकानों पर क्या असर पड़ता। दुनिया के किस इंजीनियरिंग कालेज में ऐसी डिज़ाइन पढ़ाई जाती है कि घर की खिड़की से सटाकर पुल या हाईवे बना दो। क्या यह सिर्फ हिन्दुस्तान में हो सकता है? क्या यह सिर्फ कोलकाता में हो सकता है? पुल नहीं भी गिरता तो बनने के बाद इस पुल पर इससे सटे मकान गिर जाते। लोगों ने मुकदमा भी किया हुआ है। व्यापारियों ने भी इसका विरोध ही किया है। वामपंथ से लेकर तृणमूल सरकार को इस पुल की विचित्र और खतरनाक डिज़ाइन की तो जिम्मेदारी लेनी ही चाहिए।

यह फ्लाईओवर कोलकाता के किसी कोने या किनारे में नहीं बन रहा था बल्कि बेहद महत्वपूर्ण जगह है। आसपास अस्पताल हैं, कोचिंग संस्थान हैं, फल और फूल की मंडी है। पुश्ता में इसे खत्म होना था जहां काफी बड़ा मकान है। वहां के लोगों का भी इम्तहान है कि वे कैसे संगठित होकर अपनी लड़ाई लड़ते हैं। दरअसल लोग लड़ते हैं मगर व्यवस्थाएं उन्हें हरा ही देती हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी गुरुवार को दोपहर से लेकर रात के एक बजे तक घटनास्थल पर बैठकर बचाव कार्य की निगरानी करती रहीं। तमाम अफसर मौजूद थे। घटना के बाद की नजर से देखें तो सराहनीय है कि ममता बनर्जी सड़क पर बैठकर सारा काम देख रही हैं लेकिन यही सक्रियता पुल गिरने से पहले वे इससे जुड़ी शिकायतों के प्रति दिखातीं तो क्या यह हादसा टल नहीं जाता। क्या ममता बनर्जी या पुल बनाने वाला विभाग इसकी डिज़ाइन को लेकर पूरी तरह आश्वस्त था। उन्होंने तो वादा किया था कि पुल जल्दी बनेगा लेकिन क्या उन्होंने ध्यान दिया था कि पुल को लेकर उनके ही सांसद और स्थानीय लोग क्या शिकायत कर रहे थे?

अब आते हैं कंपनी जी पर। इनका नाम है IVRCL। कंपनी जी का मुख्यालय है हैदराबाद में। इसके पास 3000 इंजीनियर हैं। इतनी बड़ी फौज है इंजीनियरों की इसके पास। कंपनी ने अपनी साइट पर लिखा है कि यह JNNURM का यह सबसे मुश्किल प्रोजेक्ट है। पूरी तरह से स्टील का ढांचा है।

25 साल पुरानी यह कंपनी कई तरह के कारोबार से जुड़ी है। जल और पर्यावरण, सिंचाई, ट्रांसपोर्टेशन, बिल्डिंग और इंडस्ट्रियल स्ट्रक्चर, बिजली की सप्लाई, माइनिंग मेंटेनेंस सहित कई कारोबार हैं इसके। कंपनी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज और बीएसई में लिस्टेड भी है। आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर कर्नाटक तक में इस कंपनी के पास ठेके हैं। पुल क्यों गिरा इसकी जांच शुरू हो गई है और कोलकाता की पुलिस हैदराबाद पहुंच गई है। इतने बड़े-बड़े कारोबारों से जुड़े रहने के बाद भी हादसे के बाद इस कंपनी का बयान आता है कि यह 'एक्ट आफ गॉड' है। पुल के गिरने से खुद गॉड का मंदिर ध्वस्त हो गया है। गॉड तो नहीं मगर गॉडेस काली के मंदिर का बरामदा भी गिर गया है इस नामुराद पुल के गिरने से।

कंपनी के इस बयान की इंसानों की दुनिया में काफी आलोचना हुई है। गॉड की तरफ से अपने एक्ट पर सफाई तो नहीं आई मगर गॉड को इस एक्ट में लपेटने वाली कंपनी ने हैदराबाद में सफाई दी कि हो सकता है कि धमाका हुआ हो। शीशे टूटे हैं।

कंपनी को इस पुल को बनाने के लिए पहली डेडलाइन 18 महीने की दी गई थी। 67 महीने बीत गए। IVRCL कंपनी जहां देरी के लिए कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी को समय पर जगह नहीं देने का जिम्मेदार ठहराती है वहीं कोलकाता मेट्रोपोलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी का आरोप है कि कंपनी बहुत धीरे काम कर रही है। लेकिन अभी आरोप क्या है। आरोप यह नहीं है कि पुल बनने में इतना समय क्यों लगा। आरोप यह है कि पुल का साठ मीटर का हिस्सा कैसे गिर गया। वो भी नया वाला हिस्सा कैसे गिरा।

दरअसल 2002 में हैदराबाद नेशनल गेम्स के लिए स्पोर्ट्स विलेज बनाने वाली IVRCL कर्ज़ों और नुकसान से बुरी तरह घिरी हुई है। कंपनी पर करीब 10,000 करोड़ का क़र्ज है। 2015 दिसंबर में इसका घाटा 2000 करोड़ का हो गया है। कंपनी पुल के निर्माण की लगात बढ़वाना चाहती थी। किसका दावा सही-सही और किसका गलत यह कहना मुश्किल है लेकिन पुल गिरने से 25 लोगों को अपनी जान जरूर गंवानी पड़ी है। कोलकाता में कंपनी के 8 लोगों को गिरफ्तार किया गया है, लेकिन अगर पुल बनने में देरी की जिम्मेदार सरकारी अथॉरिटी हैं तो उन्हें भी बख़्शा नहीं जाना चाहिए।

अब आते हैं आज के सवाल पर। क्या फ्लाईओवर इतने जरूरी हैं कि हम कहीं भी कैसे भी बना देते हैं। देश भर में फ्लाईओवर को देखेंगे तो आपको ऐसे बहुत से फ्लाईओवर मिलेंगे तो ढंग के बने हों। छोटे शहरों में कुछ फ्लाईओवरों को देखकर तो जी घबरा ही जाता है। हर जगह ट्रैफिक जाम की समस्या बढ़ती जा रही है। नेता भी लोगों को आश्वस्त करने के लिए प्लाईओवर की आधारशिला रख देते हैं। दिल्ली में जहां पिछले दस-पंद्रह सालों में सौ के करीब फ्लाईओवर तो बने ही होंगे। इस शहर के अनुभव से बता सकता हूं कि कुछ फ्लाईओवर तो कामयाब लगते हैं लेकिन ज्यादातर फ्लाईओवर के बनने के बाद भी जाम की समस्या समाप्त नहीं होती है। मुंबई में 50 फ्लाईओवर बनाने की बात दो दशक से चल रही है। बेंगलुरु में 40 फ्लाईओवर बन गए हैं। चेन्नई में भी खूब फ्लाईओवर बने हैं। आए दिन अखबारों में फ्लाईओवर के शिलान्यास और उद्घाटन की तस्वीरें आप देखते रहते हैं लेकिन क्या कभी देखा है कि इनसे ट्रैफिक की समस्या दूर होती भी है या नहीं।

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ट्रैफिक के अलावा यह भी कहा जाता है कि फ्लाईओवर की वजह से आसपास की सामाजिक व्यवस्था भी प्रभावित होती है। पर्यावरण पर भी असर होता ही होगा। क्या आपको भी लगता है कि फ्लाईओवर आने के बाद से ट्रैफिक जाम की समस्या समाप्त हो गई है। मेरे खुद के अनुभव में तो दोनों ही बातें हैं। अगर दिल्ली के सराय काले खां से ट्रैफिक का हल नहीं हुआ है तो गाज़ीपुर फ्लाईओवर बनने से काफी कुछ हल हुआ है।