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This Article is From Mar 04, 2015

अभिषेक शर्मा की कलम से : बीफ और आम आदमी

Abhishek Sharma
  • Blogs,
  • Updated:
    मार्च 04, 2015 18:19 pm IST
    • Published On मार्च 04, 2015 18:08 pm IST
    • Last Updated On मार्च 04, 2015 18:19 pm IST

जब से महाराष्ट्र में गौ-वंश हत्या बंदी कानून लागू हुआ है तब से सोशल मीडिया पर हाहाकार मचा हुआ है। कुछ भयावह तौर पर इसे अपनी आज़ादी से जोड़ रहे हैं तो कुछ इसे अपनी भावनाओं से तोल रहे हैं। लेकिन हकीकत इन दोनों के बीच कहीं ठहरी हुई है।

पहली गलतफहमी तो महाराष्ट्र सरकार के कानून के नाम को लेकर ही हुई है। इसे नाम दिया गया है गौ-वंश हत्या बंदी कानून, जिससे ऐसा अहसास होता है कि गौ हत्या को लेकर सरकार पाबंदी लेकर आई है।

सच्चाई कुछ और है। 1976 से महाराष्ट्र में गौ मांस नहीं बिक रहा है। यहां पहले से ही ऐसा कानून है जिसके मुताबिक ऐसा करना अपराध है। महाराष्ट्र के मुंबई में तो गौ मांस 1956 से ही बंद हो गया था। तब आचार्य विनोबा भावे की गुजारिश पर शहर के कुरैशी और हिंदू समाज ने गौ मांस को लेकर पाबंदी शुरू कर दी थी। ये वो दौर भी था जब गाय को लेकर अक्सर दंगे हो जाया करते थे। तब दोनों धर्मों के मांसाहार सेवन करने वालों ने भावनाओं को समझने की कोशिश की थी।

तो फिर सरकार अब क्या करना चाहती है? इस नाम में गौ-वंश क्यों जोड़ा गया? सरकारी दलीलें हैं कि उसका मकसद अब बैल और बछड़ा के मांस पर पाबंदी लाना भी है, ताकि कृषि प्रधान गांवों में भरपूर बैल-बछड़े मौजूद रहें। ये दोनों मांसाहार 'बीफ' की श्रेणी में आते हैं। बीफ के तहत भैंस का मांस भी माना जाता है।

लेकिन आंकड़े बताते हैं कि राज्य में खपत होने वाले बीफ में 80 फीसदी बैल और बछड़े का मांस है। सिर्फ 20 फीसदी अन्य उत्पाद हैं। बड़ा सवाल है कि क्या ये बीफ की खपत सिर्फ एक समुदाय करता है? इस पाबंदी के पक्ष में जो लोग खड़े हैं उनकी दलीलों को सुनेंगे तो शायद आपको यही अहसास होगा। लेकिन हकीकत ये है कि इसका सेवन करने वाले सब हैं, धर्म उसमें कहीं आड़े नहीं आता।

हिंदू-मुस्लमान गरीब के भोजन का हिस्सा ये मांस पहले से रहा है। इसके सबूत बहुतायत में मौजूद रहे हैं। कई बार तो समाज में छुआछूत भी इस बात पर निर्भर हुई है कि आप किस किस्म का मांस खाते हैं। लेकिन बड़ा सवाल है कि क्या राज्य के गरीब लोगों के पास सस्ते मांसाहार के विकल्प मौजूद हैं।

ज़रा आप मांस की कीमतों के फर्क को देखिए। मटन का भाव है 450 रुपये किलो जबकि बीफ चल रहा है करीब 150 रुपये किलो। सस्ता प्रोटीन गरीब के लिये जरूरी है लेकिन तर्क देने वाले कह रहे हैं कि गरीब-अमीर दूसरा मांस क्यों नहीं खा सकते? दूसरा पक्ष कह रहा है कि हम क्या खाएंगे ये कौन तय करेगा? क्यों भोजन परंपराओं का ध्यान नहीं रखा जाएगा?

इन तमाम तर्कों के परे ऐसे भी लोग है जो कह रहे हैं कि किसी भी तरह का मांस खाया ही क्यों जाए?

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