"कोई जो मुझसे ये पूछे, तू क्या शर-ए-हालात लिखे, दिल ठहरे तो दर्द बताए, दर्द ठहरे तो बात करे..."
जब मुझसे पूछा जाता है, कश्मीर में क्या हालात हैं, मैं कहना चाहता हूं, "दर्द को रुकने दें, तभी जवाब दे पाऊंगा..." मुझे अब भी चैन नहीं मिला, ताकि मैं इसके बारे में लिख सकूं, बात कर सकूं. हालात पर अभी तक यकीन ही नहीं हुआ है, न एक कश्मीरी के तौर पर, न रिपोर्टर के तौर पर. यह कोई रोज़मर्रा की ख़बर नहीं है, यह मेरी अपनी कहानी है.
हमें हो क्या गया है...?
एक इलाका, जो हिंसा की चपेट में रहा है. यहां के लोगों, जिनका बड़ा हिस्सा कानून और संविधान के साथ रहे हैं और आतंकवाद व अलगाववाद से लड़े हैं, को मजबूर कर दिया गया है.
दो-देशों की थ्योरी को खारिज करने और भारतीय संघ से जुड़ने के फैसले के तहत लोगों को संवैधानिक गारंटियां दी गई थीं, वे अब नदारद हो गई हैं. भारत और पाकिस्तान के संप्रभु राष्ट्र बनने से भी पहले से संप्रभु राष्ट्र के रूप में मौजूद कश्मीर अब संप्रभु नहीं रहा है- वह अब एक केंद्रशासित प्रदेश है. रातोंरात इसने अपना झंडा, संविधान और दंड संहिता - रणबीर दंड संहिता (RPC) खो दिए हैं.
मुझे नहीं पता, राज्य की प्रजा होने के प्रमाणपत्र का अब क्या करूं, जो मुझे राज्य का निवासी बताता है. जम्मू एवं कश्मीर के महाराजा द्वारा 1929 में पेश किया गया यह प्रमाणपत्र हासिल करना बेहद थका देने वाला काम था, लेकिन यह राज्य के निवासियों के लिए पासपोर्ट-सरीखा था. अब यह प्रमाणपत्र रद्दी काग़ज़ का टुकड़ा भर है.
रिपोर्टर के तौर पर मैं बेदखल किया गया महसूस कर रहा हूं. मेरा टेलीफोन बंद है, मेरा लैंडलाइन बंद है, मेरा मोबाइल, इंटरनेट बंद है. मैं अपनी मां से भी बात नहीं कर सकता. पिछले चार दिन से मैं अपनी मां से न मिल पाया हूं, न उनसे बात कर पाया हूं, क्योंकि पाबंदियां ऑनलाइन भी हैं, और लोगों की आवाजाही पर भी.
मैंने अधिकारियों से कर्फ्यू पास देने की गुहार भी की है. अब तक तो मिला नहीं है.
आधिकारिक रूप से यहां कोई कर्फ्यू नहीं है, सिर्फ दफा 144 लागू है, जिसके तहत चार या चार से ज़्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर पाबंदी होती है.
लेकिन ज़मीनी हकीकत यही है कि सख्त कर्फ्यू लागू है. कोई भी खुलेआम कहीं नहीं आ-जा सकता है, बैरिकेड लगे हैं, और निष्ठुर दिखने वाले सुरक्षाकर्मी पूछते हैं - 'कर्फ्यू पास कहां है...?' या कहते हैं - 'इजाज़त नहीं है...'
प्रशासन दिल्ली से आए चुनिंदा लोगों को पास देता रहा है, और मेरे जैसे स्थानीय रिपोर्टर संघर्ष कर रहे हैं. हर चेकपोस्ट पर मुझे सुरक्षाकर्मियों से गुहार करनी पड़ती है कि आगे जाकर सूचना जुटा लेने दें, क्योंकि फोन पर तो मैं कुछ भी हासिल नहीं कर सकता.
कल मैं आंखों की रोशनी से महरूम एक शख्स से मिला. जो किसी की मदद से सड़क पार कर रहा था. मैंने उनसे पूछा कि वह कहां जा रहे हैं, तो उन्होंने बताया कि वह मस्जिद से घर लौट रहे हैं. जब उनसे पूछा कि क्या आप जानते हैं कि आपके आसपास क्या हो रहा है, तो उन्होंने कहा, "मैं सब जानता हूं... अगर वे कह रहे हैं कि अनुच्छेद 370 और विशेष दर्जा खत्म हो जाने और केंद्रशासित प्रदेश बना दिए जाने से कश्मीरी बहुत खुश हैं, तो उनसे कहो कि कर्फ्यू हटा दें..."
उन्होंने आगे कहा, "मैं हिंसा का प्रचार नहीं कर रहा हूं, न मैं ऐसा कभी करने वाला हूं... लोग शांतिपूर्वक इसका जवाब देंगे, लेकिन चुप नहीं बैठेंगे..."
वह उन फौजियों को नहीं देख सकते, जो राज्य के चप्पे-चप्पे में फैले हुए हैं, लेकिन वह हवा में तनाव महसूस कर रहे हैं. और उन्हें गुस्सा भी आ रहा है.
मेरे हिसाब से, कश्मीर के लोगों से कश्मीर बना है. लोगों की इच्छा किसी भी आदेश से ज़्यादा अहम है.
पिछले तीन दिन में मैंने मरीज़ों को परेशान होते देखा है. इमरजेंसी हेल्पलाइन 100 काम नहीं कर रही है. आमतौर पर मेडिकल इमरजेंसी के लिए दर्जनों कॉल आती हैं, लेकिन पिछले तीन दिन में एक भी कॉल नहीं आई है, क्योंकि संचार के सभी माध्यम पूरी तरह बंद हैं. उन मरीज़ों के बारे में सोचिए, जो जानलेवा साबित हो सकने वाली मेडिकल इमरजेंसी का सामना कर रहे होंगे.
संचार सेवाओं के रविवार रात को बंद हो जाने के बाद से फायर सर्विस के पास भी कॉल आने बंद हो गए हैं.
जब मैं आम आदमी की ख़बर देता हूं, उनमें वे लोग भी होते हैं, जो अलग पहचान की बात करते हैं, अलग राज्य की बात करते हैं, आज़ादी की बात करते हैं, अलगाववादी आंदोलन को समर्थन देने वाले भी होते हैं, लेकिन कुछ था, जो उन्हें थामता था, वह अनुच्छेद 370 था, जम्मू एवं कश्मीर की संवैधानिक स्थिति थी. समाज के बड़े हिस्से ने इस संवैधानिक व्यवस्था को स्वीकार कर लिया था. यह हिस्सा संविधान में भरोसा करता था, कानून में यकीन करता था, व्यवस्था में यकीन करता था. मैं समाज के उसी हिस्से का हिस्सा था.
आज मुझे लग रहा है, धोखा हुआ...
जब मैं सुबह घर से निकलता हूं, मेरे बच्चे सो रहे होते हैं. मुझे नहीं पता, वे दिनभर क्या करते हैं, क्योंकि जब मैं लौटता हूं, वे फिर सो चुके होते हैं. वे स्कूल नहीं जा सकते. मैं नहीं जानता, इसका उन पर कितना गहरा असर होगा.
मैं असहाय महसूस कर रहा हूं...
नज़ीर मसूदी श्रीनगर में NDTV के ब्यूरो चीफ हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.