नीतीश कुमार और लालू यादव (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला महागठबंधन भारी बहुमत के साथ सत्ता में आने के लिए तैयार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को तमाम एग्जिट पोल के दावों से उलट बेहद कम सीटें मिली हैं। तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने को तैयार नीतीश के नेतृत्व को मिली जीत के पीछे आखिर क्या कारण रहे, आइए देखते हैं :
1.नेतृत्व
बिहार विधानसभा चुनाव इस बार पूरी तरह दो भागों में विभाजित दिखाई दिया - एनडीए बनाम महागठबंधन। जहां महागठबंधन का नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी नीतीश कुमार कर रहे थे, वहीं एनडीए की कमान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ले रखी थी। मतदान से पहले हुए लगभग सभी सर्वेक्षणों में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के सबसे पसंदीदा दावेदार बने रहे, जबकि एनडीए ने अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी स्पष्ट ही नहीं किया। महागठबंधन में नीतीश के नेतृत्व को लेकर कोई असमंजस की स्थिति नजर नहीं आई। नीतीश की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस ने नीतीश के नेतृत्व पर पूरा विश्वास दिखाया।
2. आरक्षण
चुनावी माहौल के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि जाति आधारित आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। इसका यह अर्थ लगाया गया कि केंद्र की सत्ता में बैठे दल की मातृ संस्था जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ है। इस बात को महागठबंधन के नेताओं ने खूब प्रचारित किया। एनडीए की छवि आरक्षण विरोधी की बन गई। प्रधानमंत्री ने इस पर सफाई दी और जान की बाजी लगाने की बात भी कही, लेकिन शायद बिहार की जनता ने उन पर भरोसा नहीं किया।
3. बिहारी बनाम बाहरी
प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश के राजनीतिक डीएनए पर सवाल उठाया था, जिसे नीतीश अपने पक्ष में भुनाने में सफल रहे। उन्होंने पूरे चुनाव में बहुत ही मजबूती से 'बिहारी बनाम बाहरी' का मुद्दा उठाया। एनडीए में स्थानीय नेतृत्व की कमी और राज्य से बाहर के नेताओं की प्रचार अभियान में प्रमुख भूमिका को बिहार की जनता ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया। एनडीए को भी यह बात समझ में आई और दूसरे चरण के मतदान के बाद चुनाव प्रचार के लिए लगाए जा रहे पोस्टरों में स्थानीय नेताओं को प्रमुखता दी जाने लगी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
4. सांप्रदायिकता और असहिष्णुता
एनडीए की ओर से कई बार ऐसे बयान दिए गए, जिनसे सांप्रदायिकता और असहिष्णुता को लेकर पूरे विधानसभा चुनाव के दौरान विवाद जैसी स्थिति बनी रही। चाहे वह पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का गोमांस पर प्रतिबंध लगाने वाला बयान हो या दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चौथे चरण से ठीक पहले 'पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे' वाला बयान भी एनडीए के खिलाफ गया और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के चुनाव लड़ने के बावजूद महागठबंधन ही अल्पसंख्यक समुदाय को आकर्षित करने में सफल रहा।
5. कांग्रेस की चुनाव से दूरी
जिस कांग्रेस के 60 वर्षों के कार्यकाल के खिलाफ भाजपा केंद्र की सत्ता हासिल करने में सफल रही, वही कांग्रेस राज्य चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा होने के बावजूद अलग-थलग बनी रही। इससे चुनावी जंग सीधे-सीधे नीतीश कुमार के साथ या खिलाफ वाली बन गई। रविवार की सुबह शुरुआती बढ़त मिलने और जीत लगभग सुनिश्चित होने के बाद जद (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि यह जीत धनशक्ति पर सिद्धांतों की जीत है। वहीं केंद्र में भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने कहा कि एनडीए ने बिहार चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में लड़ा, इसलिए उन्हें हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और एनडीए को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह हार 'नेतृत्व में कमी' को दर्शाती है।'
1.नेतृत्व
बिहार विधानसभा चुनाव इस बार पूरी तरह दो भागों में विभाजित दिखाई दिया - एनडीए बनाम महागठबंधन। जहां महागठबंधन का नेतृत्व मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी नीतीश कुमार कर रहे थे, वहीं एनडीए की कमान खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ले रखी थी। मतदान से पहले हुए लगभग सभी सर्वेक्षणों में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के सबसे पसंदीदा दावेदार बने रहे, जबकि एनडीए ने अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी स्पष्ट ही नहीं किया। महागठबंधन में नीतीश के नेतृत्व को लेकर कोई असमंजस की स्थिति नजर नहीं आई। नीतीश की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस ने नीतीश के नेतृत्व पर पूरा विश्वास दिखाया।
2. आरक्षण
चुनावी माहौल के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत का एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि जाति आधारित आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए। इसका यह अर्थ लगाया गया कि केंद्र की सत्ता में बैठे दल की मातृ संस्था जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ है। इस बात को महागठबंधन के नेताओं ने खूब प्रचारित किया। एनडीए की छवि आरक्षण विरोधी की बन गई। प्रधानमंत्री ने इस पर सफाई दी और जान की बाजी लगाने की बात भी कही, लेकिन शायद बिहार की जनता ने उन पर भरोसा नहीं किया।
3. बिहारी बनाम बाहरी
प्रधानमंत्री मोदी ने नीतीश के राजनीतिक डीएनए पर सवाल उठाया था, जिसे नीतीश अपने पक्ष में भुनाने में सफल रहे। उन्होंने पूरे चुनाव में बहुत ही मजबूती से 'बिहारी बनाम बाहरी' का मुद्दा उठाया। एनडीए में स्थानीय नेतृत्व की कमी और राज्य से बाहर के नेताओं की प्रचार अभियान में प्रमुख भूमिका को बिहार की जनता ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया। एनडीए को भी यह बात समझ में आई और दूसरे चरण के मतदान के बाद चुनाव प्रचार के लिए लगाए जा रहे पोस्टरों में स्थानीय नेताओं को प्रमुखता दी जाने लगी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
4. सांप्रदायिकता और असहिष्णुता
एनडीए की ओर से कई बार ऐसे बयान दिए गए, जिनसे सांप्रदायिकता और असहिष्णुता को लेकर पूरे विधानसभा चुनाव के दौरान विवाद जैसी स्थिति बनी रही। चाहे वह पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का गोमांस पर प्रतिबंध लगाने वाला बयान हो या दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का चौथे चरण से ठीक पहले 'पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे' वाला बयान भी एनडीए के खिलाफ गया और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलिमीन (एआईएमआईएम) के चुनाव लड़ने के बावजूद महागठबंधन ही अल्पसंख्यक समुदाय को आकर्षित करने में सफल रहा।
5. कांग्रेस की चुनाव से दूरी
जिस कांग्रेस के 60 वर्षों के कार्यकाल के खिलाफ भाजपा केंद्र की सत्ता हासिल करने में सफल रही, वही कांग्रेस राज्य चुनाव में महागठबंधन का हिस्सा होने के बावजूद अलग-थलग बनी रही। इससे चुनावी जंग सीधे-सीधे नीतीश कुमार के साथ या खिलाफ वाली बन गई। रविवार की सुबह शुरुआती बढ़त मिलने और जीत लगभग सुनिश्चित होने के बाद जद (यू) के अध्यक्ष शरद यादव ने कहा कि यह जीत धनशक्ति पर सिद्धांतों की जीत है। वहीं केंद्र में भाजपा की सहयोगी पार्टी शिवसेना ने कहा कि एनडीए ने बिहार चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में लड़ा, इसलिए उन्हें हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए और एनडीए को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यह हार 'नेतृत्व में कमी' को दर्शाती है।'
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं