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रोशनी और अंधेरे के बीच गुरु दत्त

गुरु दत्त को याद करना रोशनी और छाया के उस खेल को याद करना है जो उनकी फिल्मों को एक जादुई स्पर्श देता था. उनका कैमरा किरदारों के पीछे चुपके-चुपके चलता रहता और उनके गुस्से, उनकी छटपटाहट के साथ जैसे ख़ुद छटपटाता सा जान पड़ता था.

रोशनी और अंधेरे के बीच गुरु दत्त
रोशनी और अंधेरे के बीच गुरु दत्त
  • गुरु दत्त की फिल्मों में कैमरे का प्रयोग बेहद कल्पनाशील और जीवंत था, जो किरदारों की भावनाओं को गहराई से दर्शाता था.
  • देव आनंद ने गुरु दत्त को निर्देशक के रूप में पहला बड़ा मौका दिया, जिससे उनकी फिल्मी यात्रा की शुरुआत हुई.
  • गुरु दत्त की फिल्मों में रोमानियत और यथार्थ का अनूठा मेल था, जो साहिर और सचिनदेव बर्मन के गीतों और संगीत से सजीव होता था.
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नई दिल्ली:

गुरु दत्त को याद करना रोशनी और छाया के उस खेल को याद करना है जो उनकी फिल्मों को एक जादुई स्पर्श देता था. उनका कैमरा किरदारों के पीछे चुपके-चुपके चलता रहता और उनके गुस्से, उनकी छटपटाहट के साथ जैसे ख़ुद छटपटाता सा जान पड़ता था. 'साहब बीवी और गुलाम' का वह बहुचर्चित दृश्य बार-बार याद आता है जिसमें छोटी बहू अपने हाथ के झटके से गुरु दत्त को निकलने का आदेश देती है और कैमरा इस तरह छिटक कर दूर चला जाता है जैसे वह डर कर पीछे हट गया हो. ऐसे और इससे मिलते-जुलते दृश्य गुरुदत्त की फिल्मों को कविता में बदल डालते थे. हिंदी सिनेमा में कैमरे के इतने कल्पनाशील और जीवंत इस्तेमाल की कोई दूसरी मिसाल तत्काल याद नहीं आती. 

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लेकिन रोशनी और छाया का यह खेल गुरुदत्त की फिल्मों में ही नहीं, उनके जीवन में भी चलता रहा. एक तरफ शोहरत उनका पीछा करती थी और दूसरी तरफ उदासी उन्हें घेरे रहती थी. यह उदासी उनके जीवन से निकल कर उनकी फिल्मों में पसर जाती थी. उनके निधन के बाद कभी देव आनंद ने कहा भी था- इतने नौजवान शख़्स को ऐसी उदास फिल्में नहीं बनानी चाहिए थी.

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बहरहाल, यह देव आनंद थे जिन्होंने गुरु दत्त को निर्देशक के तौर पर पहला बड़ा मौका दिया. कम लोगों को पता होगा कि गुरु दत्त नृत्य की दुनिया से फिल्मों में आए थे. वे उदयशंकर के नृत्य स्कूल में तीन साल रहे. वहां भी एक मोहब्बत की और उसकी सज़ा के तौर पर निष्कासन झेला. बाद में प्रभात फिल्म्स में सहायक का काम किया और फिर "बाज़ी' के रूप में देव आनंद ने वह बाज़ी उनके हाथ सौंपी जिसके बाद ज़िंदगी उनके लिए हमेशा-हमेशा के लिए बदल गई. गुरु दत्त ने बहुत कम फिल्में कीं, लेकिन जो भी कीं, उससे सिनेमा का नया व्याकरण बना दिया. 'बाज़ी' से ही वह रंग दिखना शुरू हो गया था जो उनकी आने वाली फिल्मों में लगातार गाढ़ा हो गया. ‘जाल', ‘आरपार', ‘मिस्टर ऐंड मिसेज़ 55' जैसी कामयाब और चर्चित फिल्मों से आगे बढ़ता उनका सफर जब 'चौदहवीं का चांद', 'प्यासा', 'कागज़ के फूल' और 'साहब बीवी और गुलाम' तक पहुंचा तब तक वे ख़ुद जैसे एक जीती-जागती किंवदंती में बदल चुके थे. इन फिल्मों को ध्यान से देखें तो लगता है वे अपनी ज़िंदगी की ही कहानी उनमें कह और खोज रहे थे- विडंबना ये थी कि यह कहानी भी उनके हाथ में नहीं थी, इसके भी सिरे उलझे हुए थे जो उनके उलझे बालों और बेचैन आंखों में दिखाई पड़ते थे. 

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कई बार ऐसा लगता है कि उनकी फिल्मों की पटकथा बहुत रोमानी होती थी- ज़िंदगी के यथार्थ से कतई दूर. लेकिन वे इस रोमान में ही हकीकत को इस तरह गूंथ देते थे कि ज़िंदगी और ज़माने की सच्चाई बिल्कुल खुल कर सामने चली आती थी. यह अनायास नहीं था कि ‘प्यासा' जैसी फिल्म के लिए उन्होंने साहिर जैसा गीतकार चुना जिसके यहां भी यही ख़ूबी रही- रोमानियत और हकीकत को बिल्कुल एक साथ देख और बयान कर सकने का सलीका. 'प्यासा' के कम से कम दो गीत ऐसे हैं जो इस हकीकत का आईना है. 'जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं' जैसा गीत फिल्म में शामिल कर उन्होंने पचास के दशक के उस गुलाबी सपने को उधेड़ कर रख दिया जिसे सब जीने की कोशिश कर रहे थे. इसी तरह जब ‘प्यासा' का शायर गाता है- 'ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया'- तब गुरु दत्त की सिने-कला का चरम प्रभाव दिखता है. एक तरफ साहिर का गीत, दूसरी तरफ सचिनदेव बर्मन का संगीत, तीसरी तरफ मोहम्मद रफी की आवाज़, चौथी तरफ भरी सभा में धीरे-धीरे दाख़िल होते गुरुदत्त का अपना प्रभाव और फिर वह कैमरा जो इस पूरे दृश्य को एक मार्मिक कविता में बदल डालता है. और फिर अंत में आती है रफी की गूंजती हुई आवाज़- 'जला दो इसे फूंक डालो ये दुनिया / मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया / तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया / ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'- गुरु दत्त के क्लोज अप से यह दृश्य शुरू होता है. फिर गुरु दत्त हॉल के दरवाज़े पर दिखते हैं- रोशनी और उजाले में किसी देवदूत की तरह- और फिर वहीदा रहमान दिखती हैं, और वह हुज़ूम जो अपने शायर को दूर जाता देख रहा है. 

शायद ऐसे ही किसी शायर में गुरु दत्त की आत्मा बसती थी. वे अभिनेता और निर्देशक रहे, उनके अभिनय की भी बहुत तारीफ हुई, लेकिन दरअसल भीतर से कहीं वे कवि थे. फिल्मों में इस कविता से वे समझौता नहीं करते थे. वह जहां-तहां अलग-अलग माध्यमों में चली आती थी. कहते हैं, वे फिल्मों में जितने अनुशासित रहते थे, ज़िदगी में उतने ही अराजक. 

उनकी फिल्में दुनिया की महान फिल्मों में गिनी गईं. बीसवीं सदी की 100 बेहतरीन फिल्मों के बीच उन्हें रखा गया. लेकिन अंततः उन्होंने ये दुनिया एक दिन छोड़ दी. यह भी एक पहेली है कि कौन सी चीज़ इस ज़िंदगी पर भारी पड़ी. यह सच है कि जिस गीता रॉय से उन्होंने सबसे विद्रोह कर शादी की, उनके साथ उनका कायदे से निबाह नहीं हो सका. वहीदा रहमान उनके दिल के बेहद करीब रहीं लेकिन बहुत लोगों के मुताबिक उनके जीवन के झंझावात की वजह भी रहीं. शोहरत की चमक के बीच एक गुमनाम अंधेरा था जिसे गुरु दत्त अकेले जीते रहे. एक रात महज 39 साल की उम्र में वे चल दिए- पीछे छूट गई शराब जिसको लेकर संदेह बना रहा कि इसमें कहीं उन्होंने नींद की गोलियां तो नहीं मिला ली थीं, वे फिल्में जिनमें उन्हें काम करना था- मसलन के आसिफ की 'लव ऐंड गॉड',  वे योजनाएं जो पूरी नहीं हो सकीं, और मुरीदों का वह हुजूम जो लगातार बड़ा होता जा रहा है और इस नए दौर में भी उनकी पुरानी फिल्में देख चकित होता रहता है.

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