नई दिल्ली:
विवादग्रस्त रहे आध्यात्मिक गुरु ओशो रजनीश की पूर्व निजी सचिव ने एक संस्मरण में कहा है कि ओशो रजनीश अपने नियम और कायदों के समाज का निर्माण करना चाहते थे इसलिए उन्होंने हर कानून, नीति और वैधता को भुला दिया।
ओशो रजनीश की पूर्व सचिव आनंद शीला ने अपने संस्मरण ‘डोन्ट किल हिम। द स्टोरी ऑफ माई लाइफ विद भगवान रजनीश’ में अपने उस समय के अनुभव, अवलोकन और भावनाएं व्यक्त की हैं, जब वे ओशो रजनीश के साथ काम कर रही थीं। 1981 में ओशो रजनीश की सहायक के रूप में नियुक्त हुईं शीला ने 1985 में इस पद को छोड़ दिया था। इसके बाद वे समुदाय के साथी सदस्यों के साथ यूरोप रवाना हो गईं।
शीला के इस ‘विश्वासघात’ पर ओशो बहुत नाराज हुए थे और उन्होंने उस पर जैव-आतंकी हमले की योजना बनाने, हत्या का षड्यंत्र रचने और 55 करोड़ डॉलर लेकर भागने का आरोप लगाया था। शीला इनमें से कुछ आरोपों की दोषी निकलीं और उन्होंने 39 माह जेल में बिताए। और उन्होंने अपने गुरु को माफ भी कर दिया।
शीला कहती हैं कि ओशो बहुत करिश्माई, प्रेरक, शक्तिशाली, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व वाले थे और साथ ही वे बेतुके ढंग से चालाक, प्रतिशोधी, खुद के बारे में सोचने वाले और हानि पहुंचाने वाले भी थे।
‘‘उन्होंने हर समुदाय, समाज और देश के सभी नियमों, नैतिकताओं, नीतियों और वैधताओं का उल्लंघन किया क्योंकि वे अपने नजरिए वाले ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें उनके अपने नियम और कायदे हों।’’
फिंगरप्रिंट द्वारा प्रकाशित अपनी किताब में शीला लिखती हैं, ‘‘मैं इस बात की गवाह बनी कि इस खेल में बॉम्बे और पूना में वे किस तरह शीर्ष पर थे, किस तरह उन्होंने अपना समुदाय खड़ा किया, किस तरह वे लोगों के साथ काम करते थे और किस तरह विवाद पैदा करके उन्होंने मीडिया को बरगलाया।’’
ओशो के पतन के बारे में शीला लिखती हैं, ‘‘उनका पतन ओरेगन में दर्दनिवारक दवाओं और अन्य नशीले पदाथरें पर उनकी निर्भरता से शुरू हुआ। जिसके फलस्वरूप गिरावट आनी शुरू हो गई और फिर समुदाय का विघटन हो गया।’’
वर्ष 1949 में बड़ौदा के एक गुजराती परिवार में जन्मीं शीला अंबालाल पटेल कहती हैं कि वे ओशो से बहुत प्रेम करती थीं और उनपर आंख मूंदकर भरोसा करती थीं।
शीला को लगता है कि ओशो को उनके अपने ही लोगों ने लूट लिया। वह कहती हैं, ‘‘मेरे दिल में उनकी शिक्षाओं के लिए बहुत आदर भाव है और आज भी मैं उनकी भक्त हूं।’’
‘‘आज उनकी सन्यासी शिष्याएं भी रजनीशपुरम के बारे में बात करने में डर और शर्म महसूस करती हैं। मेरी राय में लोगों ने उनके जीवन के बहुत महत्वपूर्ण समय के बारे में बात न करके उन्हें कमजोर कर दिया।’’
ओशो की मौत के बारे में शीला लिखती हैं कि उन्हें आज भी इस बात पर यकीन नहीं होता कि ओशो की मौत प्राकृतिक थी। ओशो के दिल ने 1989 में 58 साल की उम्र में काम करना बंद कर दिया था।
शीला दावा करती हैं, ‘‘आज भी मैं यह नहीं मानती कि वह एक प्राकृतिक मौत थी। अगर वह प्राकृतिक होती तो मैं उसे जरूर महसूस करती।’’ किताब के शुरुआती अध्यायों में उस समय का जिक्र है जब लेखिका रजनीशपुरम छोड़कर गईं और उन्हें कानूनी कार्रवाईयों का सामना करना पड़ा।
किताब के दूसरे भाग में शीला शुरुआत से कहानी बयां करती हैं, जब 1972 में 20 साल की उम्र में वे ओशो के अभियान में शामिल हुई थीं।
ओशो रजनीश की पूर्व सचिव आनंद शीला ने अपने संस्मरण ‘डोन्ट किल हिम। द स्टोरी ऑफ माई लाइफ विद भगवान रजनीश’ में अपने उस समय के अनुभव, अवलोकन और भावनाएं व्यक्त की हैं, जब वे ओशो रजनीश के साथ काम कर रही थीं। 1981 में ओशो रजनीश की सहायक के रूप में नियुक्त हुईं शीला ने 1985 में इस पद को छोड़ दिया था। इसके बाद वे समुदाय के साथी सदस्यों के साथ यूरोप रवाना हो गईं।
शीला के इस ‘विश्वासघात’ पर ओशो बहुत नाराज हुए थे और उन्होंने उस पर जैव-आतंकी हमले की योजना बनाने, हत्या का षड्यंत्र रचने और 55 करोड़ डॉलर लेकर भागने का आरोप लगाया था। शीला इनमें से कुछ आरोपों की दोषी निकलीं और उन्होंने 39 माह जेल में बिताए। और उन्होंने अपने गुरु को माफ भी कर दिया।
शीला कहती हैं कि ओशो बहुत करिश्माई, प्रेरक, शक्तिशाली, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व वाले थे और साथ ही वे बेतुके ढंग से चालाक, प्रतिशोधी, खुद के बारे में सोचने वाले और हानि पहुंचाने वाले भी थे।
‘‘उन्होंने हर समुदाय, समाज और देश के सभी नियमों, नैतिकताओं, नीतियों और वैधताओं का उल्लंघन किया क्योंकि वे अपने नजरिए वाले ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जिसमें उनके अपने नियम और कायदे हों।’’
फिंगरप्रिंट द्वारा प्रकाशित अपनी किताब में शीला लिखती हैं, ‘‘मैं इस बात की गवाह बनी कि इस खेल में बॉम्बे और पूना में वे किस तरह शीर्ष पर थे, किस तरह उन्होंने अपना समुदाय खड़ा किया, किस तरह वे लोगों के साथ काम करते थे और किस तरह विवाद पैदा करके उन्होंने मीडिया को बरगलाया।’’
ओशो के पतन के बारे में शीला लिखती हैं, ‘‘उनका पतन ओरेगन में दर्दनिवारक दवाओं और अन्य नशीले पदाथरें पर उनकी निर्भरता से शुरू हुआ। जिसके फलस्वरूप गिरावट आनी शुरू हो गई और फिर समुदाय का विघटन हो गया।’’
वर्ष 1949 में बड़ौदा के एक गुजराती परिवार में जन्मीं शीला अंबालाल पटेल कहती हैं कि वे ओशो से बहुत प्रेम करती थीं और उनपर आंख मूंदकर भरोसा करती थीं।
शीला को लगता है कि ओशो को उनके अपने ही लोगों ने लूट लिया। वह कहती हैं, ‘‘मेरे दिल में उनकी शिक्षाओं के लिए बहुत आदर भाव है और आज भी मैं उनकी भक्त हूं।’’
‘‘आज उनकी सन्यासी शिष्याएं भी रजनीशपुरम के बारे में बात करने में डर और शर्म महसूस करती हैं। मेरी राय में लोगों ने उनके जीवन के बहुत महत्वपूर्ण समय के बारे में बात न करके उन्हें कमजोर कर दिया।’’
ओशो की मौत के बारे में शीला लिखती हैं कि उन्हें आज भी इस बात पर यकीन नहीं होता कि ओशो की मौत प्राकृतिक थी। ओशो के दिल ने 1989 में 58 साल की उम्र में काम करना बंद कर दिया था।
शीला दावा करती हैं, ‘‘आज भी मैं यह नहीं मानती कि वह एक प्राकृतिक मौत थी। अगर वह प्राकृतिक होती तो मैं उसे जरूर महसूस करती।’’ किताब के शुरुआती अध्यायों में उस समय का जिक्र है जब लेखिका रजनीशपुरम छोड़कर गईं और उन्हें कानूनी कार्रवाईयों का सामना करना पड़ा।
किताब के दूसरे भाग में शीला शुरुआत से कहानी बयां करती हैं, जब 1972 में 20 साल की उम्र में वे ओशो के अभियान में शामिल हुई थीं।
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