उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले करीब 16 लाख बच्चों के लिए मिड डे मील बनाने वाली हेल्परों को 6-6 महीने से मानदेय नहीं मिला जिससे वे खुद भुखमरी के कगार पर हैं. मिड डे मील बनाने वाली इन महिलाओं को क्यों मानदेय नहीं मिला है, इस बारे में प्रशासन तकनीकी खामी को कारण बता रहा है.
हापुड़ के शिवगढ़ी प्राथमिक विद्यालय में 60 साल की गीता शर्मा बच्चों के लिए मिड डे मील बनाती हैं. इसके ऐवज में उनको हर महीना 1500 रुपये मिलते हैं. लेकिन येह मानदेय भी सात महीने से नहीं आया है. गीता शर्मा कहती हैं कि ''कैसे अपने बच्चों सा पेट भरें? यहां आकर खाना बनाते हैं और 8-8 महीने हो जाते हैं, पैसे नहीं मिलते हैं. कैसे काम करें.''
गीता शर्मा अकेले नहीं हैं, मोहसिना के पति बीमार हैं. वे भी अपना घर चलाने के लिए सरकारी स्कूल में मिड डे मील बनाती हैं लेकिन उनका भी मानदेय नहीं मिला है. मोहसिना ने कहा कि ''मेरा पति बीमार रहता है, मैं यहां खाना भी बनाती हूं, फिर मजदूरी करने भी जाती हूं. लेकिन पैसे ही नहीं मिल रहे हैं.''
शिवगढ़ी के इस स्कूल में मिड डे मील बनाने के लिए पहले पांच सहायिका थीं लेकिन पैसे न मिलने से दो रसोईयों ने काम करना बंद कर दिया. इसके चलते अब स्कूल की शिक्षिकाएं ही खाना बनाकर बच्चों को खिला रही हैं.
हापुड़ की सहायक अध्यापिका अश्मीना बानो ने कहा कि ''जब मानदेय नहीं मिला तो मार्च के बाद खाना बनाने का काम उन लोगों ने छोड़ दिया. फिर हमें ही मिलकर खाना बनाना पड़ता है, फिर स्कूल के बच्चों को खिलाते हैं.''
मिड डे मील बनाने वाले रसोईयों को 6-6 महीने से तनख्वाह क्यों नहीं मिल रही? इस संबंध में जब हमने यूपी सरकार की शिक्षा सचिव अनामिका सिंह से बात की तो हमारे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि इस साल मानदेय भुगतान करने में नई तकनीकी का इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके कारण यूपी के 15-16 जिलों में रसोईयों को भुगतान करने में तकनीकी कारणों के चलते विलंब हुआ है.
चूंकि सरकारी स्कूल के गरीब बच्चों का पेट भरने वाली इन गरीब महिला सहायकों की न तो कोई ताकतवर यूनियन है न ही इनकी बड़े अफसरों तक पहुंच, यही वजह है कि ये गरीब महिलाएं दूसरे बच्चों का तो पेट भर रही हैं लेकिन इनके अपने परिवार मुसीबत से घिरे हुए हैं.
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