शेयर बाजार से बहुत लोग पैसा कमाना चाहते हैं. कई बार तो अपने किसी करीबी को देखकर मन में ख्याल आता है कि शेयर बाजार में निवेश किया जाए. कहा जाता है कि शेयर बाजार में सजगता के साथ निवेश करने पर रिटर्न की अपेक्षा होती है. महंगाई से ज्यादा रिटर्न मिल जाता है यानी पैसा बढ़ने की पूरी उम्मीद है. फाइनेंशियल प्लानर हमेशा एक लाइन पर गौर करते हैं और सभी को इस बात से आगाह करते हैं कि बचत और निवेश में रिटर्न हमेशा महंगाई दर से ज्यादा होना चाहिए. शेयर बाजार में निवेश के लिए जरूरी है कि आप जो शेयर खरीदें वह अच्छा रिटर्न दे. ऐसे में अच्छा रिटर्न वाले शेयर की पहचान कैसे की जाए. इसी पहचान के लिए कुछ मेट्रिक होते हैं जिसे देखकर पढ़कर किसी शेयर की चाल को समझा जा सकता है.
किसी भी कंपनी के हेल्थ को जानने के लिए अलग-अलग रेशियो को देखा जाता है. किसी कंपनी का फंडामेंटल एनालिसिस करने के लिए इन रेशियो के बारे में जानकारी होनी चाहिए. इसे आप कंपनी का रेशियो एनालिसिस कह सकते हैं. रेशियो से कंपनी का मुनाफा, शॉर्ट टर्म लॉन्ग टर्म कर्ज यानि संपति के मुक़ाबले कंपनी पर कर्जा कितना है, आदि जाना जा सकता है. साथ ही कंपनी के शेयर की कीमत कितनी ज्यादा है, या कम है? यह पता चलता है.
सबसे पहले बात करते हैं कि प्रोफिटेबिलिटी रेशियो
प्रोफिटेबिलिटी रेशियो (Profitably ratio) से कंपनी के प्रोफिट के बारे में पता किया जा सकता है. इसमें कंपनी कितना प्रोफिट कमा सकती है, कितने समय में कमा सकती है?, मार्जिन कितना है? पता चल सकता है. साथ ही यह भी तुलना की जा सकती है कि सेम सेक्टर की अन्य कंपनियां कैसा कर रही है.
इसके लिए सबसे पहले प्रोफिट मार्जिन रेशियो (Profit Margin Ratio) को देखना होगा. इसका फॉर्मूला
Profit Margin = Net Profit/Sales Revenue. यानी कंपनी के नेट सेल्स को सेल्स रेवेन्यू से भाग करने पर यह मिलता है. बता दें कि प्रोफिट मार्जिन (Profit margin) तुलनात्मक देखने पर आप बेहतर कंपनी का चयन कर सकते हैं.
इसके बाद लिक्विडिटी रेशियो (Liquidity Ratio) की बात करते हैं. लिक्विडिटी रेशियो यानि कंपनी के पास कितना लिक्विड मनी है. यानी कितनी जल्दी वह कंपनी अपने कर्ज को चुका सकती है. इससे पता चलता है कि कंपनी की स्थिति मजबूत है और उसके दिवालिया होने की उम्मीद उस समय नहीं है. इसी के साथ करेंट रेशियो (Current Ratio) को समझना चाहिए. करेंट रेशियो क्या है.करेंट रेशियो = करेंट एसेट्स / करेंट लायेबिलिटीज (Current Ratio – Current assets/Current liabilities) होता है. इससे यह पता चल सकता है कि कंपनी की अपनी संपत्ति उसकी देनदारी से बेहतर है या नहीं. देखा जाए तो यह भी कंपनी की मजबूती को दर्शाता है.
सॉलवेंसी रेशियो (Solvency Ratio)
सॉलवेंशी रेशियो भी लिक्विडिटी की तरह ही होता है. दोनों में अंतर इतना है कि इसमें लॉन्ग टर्म लोन देखा जाता है. इसमें सबसे ज्यादा नजर डेट रेशियो (Debt Ratio) पर रखी जाती है.
डेट रेशियो (Debt Ratio) क्या है
डेट रेशियो = कुल लायेबिलिटी / कुल एसेट (Debt ratio= Total Liabilities/Total asset)
डेट रेशियो बताता है कि कंपनी के कुल एसेट में डेट यानी कर्ज का कितना हिस्सा है. इससे साफ है कि ये जितना ज्यादा होगा उतना रिस्क ज्यादा होगा.
ईपीएस (अर्निंग पर शेयर EPS mean Earning Per Share)
किसी कंपनी के शेयर में निवेश करने पर कितनी आय हो रही है. इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. यह कंपनी के नेट प्रोफिट से नंबर ऑफ ऑउटस्टैंडिंग शेयर का भाग करने से प्राप्त होता है. (EPS = Net profit/no of outstanding shares) इसे इस प्रकार समझा जा सकता है. EPS यानि earning per shares की 1 share पर कितना profit आ रहा है यह पता लगता है.
पीई रेशियो (PE ratio mean Price to earning ratio)
पीई रेशियो निकालने के लिए किसी कंपनी के प्रति शेयर बाजार मूल्य में अर्निंग्स प्रति शेयर का भाग देना होता है. अर्निंग पर शेयर (EPS) की गणना आप टैक्स चुकाने के बाद मुनाफा में कंपनी के कुल शेयरों का भाग देकर कर सकते हैं. बता दें कि किसी भी कंपनी का जितना अधिक पीई रेशियो होता है, उसका शेयर उतना ही महंगा होता है. अर्थात यह शेयर मुनाफे के हिसाब से बेहतर नहीं होता है. वहीं, पीई रेशियो जितना कम होगा, शेयर उतना ही सस्ता होगा. बाजार के जानकार कहते हैं कि ऐसे शेयर खरीदने पर मुनाफे की संभावना ज्यादा होती है. किसी शेयर का ऊंचा पीई बताता है कि उस शेयर की बाजार में मांग अधिक है, इसलिए उसकी वैल्यूएशन ज्यादा है. इसी ऐसे भी समझा जा सकता है. पीई रेशियो का मतलब यह हुआ कि आप इतने प्रोफिट के लिए कितना पैसा दे रहे हैं.
रिटर्न ऑन इक्विटी (Return on Equity)
ये रिटर्न ऑन इक्विटी (ROE) क्या होता है. ROE किसी कंपनी के प्रदर्शन और लाभ को समझने का बाजार की भाषा में एक तरीका है. इससे पता लगाया जा सकता कि किसी कंपनी में पैसा लगाना मुनाफा देगा या नहीं. आरओई से यह पता चलता है कि किसी कंपनी ने शेयरधारकों का पैसे का कितनी सफलता से प्रयोग किया है. जिस कंपनी का ROE लगातार बढ़िया बना रहता है तो इससे पता चलता है कि कंपनी सही हाथों में चल रही है. ये बताता है कि कंपनी पर कर्ज कम है और ब्याज का खर्च भी बेहद मामूली है. ROE यह भी समझ में आता है कि कंपनी भविष्य में डिविडेंड देगी, देती रहेगी या नहीं. साथ ही यह भी समझ में आ जाता है कि कंपनी के पास शेयरधारकों को भुगतान करने के लिए जरूरी पूंजी है या नहीं.
ROE पता करने के लिए सबसे पहले कंपनी की कुल कमाई यानी नेट इनकम निकाली जाता है. फिर कंपनी की कुल आय में से ब्याज, कंपनी के खर्च, टैक्स और बाकी अन्य खर्चों को घटाया जाता है. फिर जो रकम बचती है उसे नेट इनकम कहते हैं. इसके बाद नेट इनकम को शेयरधारकों की इक्विटी से भाग दिया जाता है. इसके बाद जो भी आंकड़ा आता है वह ROE होता है.
ROE= Net Income (Revenue-Expenses, Tax, Interest and other Expenses)/ Shareholders Equity
रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड (ROCE रिटर्न ऑन कैपिटल एंप्लॉयड )
शेयर बाजार में किसी कंपनी के शेयर की चाल को समझने के लिए आरओसीई रेशियो (ROCE Ratio) को समझना भी जरूरी है. इससे यह जानकारी मिलती है कि कोई कंपनी अपने कुल कैपिटल निवेश (total Capital Employed) पर कितना मुनाफा कमा रही है. रिटर्न ऑन कैपिटल एम्पलॉए़ड ( Return On Capital Employed) से यह पता लगता है कि कंपनी ने बिज़नेस में जो पैसा लगाया है उन सभी पैसों पर कितना रिटर्न दे रही है. बता दें कि यह रिटर्न हमेशा कर्ज के ब्याज से अधिक होना चाहिए. जब ऐसा होगा ऐसा होगा तभी निवेशकों को कुछ मुनाफा होगा.
ROCE की निकालने के लिए प्रयोग किया जाने वाला फॉर्मूला कुछ इस प्रकार है:
रिटर्न ऑन कैपिटल एम्प्लॉइड: ब्याज और टैक्स से पहले का लाभ/ कैपिटल एम्प्लॉइड
यहां पर, कैपिटल एम्प्लॉइड: शेयरधारक के फंड + डिबेंचर + लंबी अवधि के ऋण , या, कैपिटल एम्प्लॉइड - नॉन- करंट एसेट + कार्यशील पूंजी.
संभावना है कि कुछ बातें और हैं जिन पर लिखा जा सकता है. लेकिन अभी इतना ही...
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