शशिभूषण द्विवेदी का कहानी संग्रह 'कहीं कुछ नहीं' हाल ही में प्रकाशित हुआ है.
क्या कहानियों को हमेशा बहुत सुगठित होना चाहिए- इस तरह कि कथा कभी भटकती न लगे और एक ही लय में बात पूरी हो जाए? ऐसे उस्ताद और माहिर क़िस्सागो होते हैं जो पाठकों को बिल्कुल वशीभूत कर अपने साथ लिए चलते हैं- अनुभव और रोमांच की अपनी रची हुई दुनिया की सैर कराते हैं. पाठक इन कहानियों के संसार से अभिभूत लौटता है.
लेकिन सारी कहानियां ऐसी नहीं होतीं. कुछ क़िस्सागो अपने-आप में खोए होते हैं. वे जैसे अपनी कहानी के साथ भटकते रहते हैं. कहानी उनके लिए ज़िंदगी का ही एक आयाम होती है, ख़ुद को बार-बार खोने-पाने और हर बार नए सिरे से खोजने की प्रक्रिया- जिनके साथ चलते हुए वह कहानी मिलने की उम्मीद बनी रहती है जिसे जीवन में हम जीकर खो चुके हैं या जीवन को जीते हुए जिसकी गुत्थी खोल नहीं पाए. ऐसे कथाकारों को कुछ धीरज से पढ़ना पड़ता है. शशिभूषण द्विवेदी समकालीन हिंदी संसार के ऐसे ही कथाकार हैं. वे अक्सर मद्धिम आवाज़ में कहानी कहते हैं- जैसे दूसरों से नहीं, अपने-आप से बात कर रहे हों. लेकिन यह फिर भी एकालाप नहीं है. उनके भीतर एक पूरा समाज, एक पूरी स्मृति है- उनका अपने-आप से बात करते हुए ढंग से कहानी कहना भी दरअसल दूसरों को उसमें शामिल करते रहना है.
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इसी साल आए उनके कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ की पहली ही कहानी ‘छुट्टी का दिन’ सतह पर बहुत मामूली सी कहानी जान पड़ती है- नई कहानी के दौर के अभावग्रस्त मध्यवर्गीय जीवन और उसमें निहित संघर्षों की याद दिलाने वाली- लेकिन ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि यह उनका दुहराव नहीं है, बल्कि इस बात की पहचान है कि ऊब, बेचैनी और आतंक शायद इस नए दौर की दिनचर्या हैं, कि सोकर उठते ही छुट्टी की याद राहत के साथ-साथ एक वितृष्णा भी पैदा करती है, कि घर के ज़रूरी काम निबटाने की ऊब के साथ-साथ छुट्टी का जो भी संभव हो, उतना भर लुत्फ उठा लेने का सयानापन जीवन को बस एक ढब में बदलता चल रहा है.
लेकिन शशिभूषण द्विवेदी जिस जटिलता और व्यापक समाज-बोध के कथाकार हैं, उसका सुराग संग्रह की दूसरी कहानियां देती हैं. ‘भूतो न भविष्यति’ एक बड़े फ़लक की कहानी है जिसमें भूतों को बक्से में बंद रखने वाले दादाजी के किस्से हैं, गांधी जी के आंदोलन और उनके व्यापक प्रभाव की छाया है, धीरे-धीरे दरकते संयुक्त परिवारों की टूटन है, वैधव्य के साये में जीती स्त्रियों के हिस्से की यंत्रणा है, किशोर प्रेम की कुछ असमंजस भरी यादें हैं और वह ख़ौफ़नाक राजनीतिक पतनशीलता है जिसमें एक लड़की बिल्कुल खिलौने की तरह इस्तेमाल की जाती है- उसकी धज्जियां उड़ा दी जाती हैं.
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‘कहीं कुछ नहीं’ संग्रह की सबसे अच्छी, सबसे लंबी और सबसे जटिल कहानी है. एक कुमार साहब हैं जो लेखक से अपनी जीवनी लिखवाना चाहते हैं. उनहें लगता है कि खुद लिखेंगे तो झूठ लिख देंगे. लेखक कुछ हिचक के साथ यह काम शुरू करना चाहता है- वह उनसे बात करता है, उनकी पुरानी डायरियां खंगालता है, उनके पुराने घरों में जाकर, पुराने परिचितों से बात करता है. लेकिन इस समूचे उपक्रम में उसके सामने जो खुलता है, वह कुमार साहब का जीवन भर नहीं है, वह एक पूरे समाज का जीवन है जिसकी ढेर सारी गुत्थियां हैं. यह बात बहुत सपाट ढंग से कही जा रही है, क्योंकि कहानी में जिस तरह वर्णित है, उस तरह यहां आ नहीं सकती. दरअसल यह एक औपन्यासिक वृत्तांत है जिसे शशिभूषण द्विवेदी ने लंबी कहानी की शक्ल दी है. इसमें ढेर सारे किरदार हैं, ढेर सारी घटनाएं हैं, इन घटनाओं के अलग-अलग ब्योरे हैं. अपने पिता की धार्मिकता और कंगाली के शिकार कुमार साहब अपने मौसाजी की हवेली में पले जहां मौसाजी के एक बेटे रामप्रताप से उनकी ख़ूब पटी. यह हवेली औपनिवेशिक भारत में फूली-फली जमींदारियों के पतन की जर्जर निशानी है जिसमें बच्चों का उत्पीड़न है, औरतों की चीखें हैं, क्रांतिकारी बनने की कोशिशें हैं और यौन-शुचिता की टूटती पर्देदारियां हैं.
यह कहानी हवेली तक सीमित नहीं है, वह शहर भी आती है और कुमार साहब के बुढ़ापे और अंततः उनकी मौत तक जाती है. इस दौरान कातरता, कृतघ्नता, विवशता, धोखा, ज़ोर-ज़बरदस्ती, रचनात्मकता, कविता सब मिलती है और कुछ इस तरह मिलती है कि इनकी मार्फत हम जीवन को कुछ-कुछ और पहचानने की कोशिश कर सकते हैं. ‘शालिग्राम’ एक ईमानदार और सख़्त पिता की कहानी है जो अपने सामने अपनी कई मान्यताओं की धज्जियां उड़ता देखता है. शराब से बहुत सख़्त नफ़रत करने वाला यह पिता कहानी के अंत में अपने नशे में लड़खड़ाते बेटे को सहारा देकर घर लाता है, उसके कपड़े बदलता है और खाना खिलाता है- यह एक करुण दृश्य है.
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संग्रह की आख़िरी तीन कहानियां ‘अभिशप्त’ ‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’ और ‘काला गुलाब’ कुछ छोटी और अपने ‘ट्रीटमेंट’ में कुछ अलग सी कहानियां हैं. कुछ ख़तरा उठाकर इन्हें सामाजिक से ज़्यादा मनोवैज्ञानिक कहानियां कहा जा सकता है. अपनी महत्वाकांक्षी प्रेमिका और पत्नी के हाथों धोखा खाया ‘अभिशप्त’ का नायक अपने दूसरे प्रेम के साथ भी पुरानी स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पा रहा. कोई आत्मघाती इच्छा बार-बार उसके भीतर सिर उठाती है. लेकिन अंततः उसकी नई दोस्त उसे इस इच्छा से दूर ले जाती है- यह कहते हुए कि ‘हम घर की तरफ ही चल रहे हैं.‘
‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’ का नायक बेशक कुरु-कुरु स्वाहा के थ्री-इन-वन मनोहर श्याम जोशी की याद दिलाता है जब लेखक कहता है कि उसके भीतर एक लफंगा रहता है, एक पोंगा पंडित रहता है और एक फ़िलॉसफ़र भी. यह कहानी बस एक स्टेशन के बाहर बने ढाबे पर घटित होती है जहां एक किरदार के भीतर बसे ये तीनों किरदार वहीं आए दो पुरुषों और एक लड़की के बीच के रिश्तों का तरह-तरह से अनुमान लगा रहे हैं.
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आख़िरी कहानी ‘काला गुलाब’ का नायक बरसों बाद उस जगह लौटा है जहां उसके पिता ने आख़िरी सांस ली थी. यहां भी अचानक हुए एक प्रेम की स्मृति है. अवसाद और मृत्यु की छाया के बीच जीवन देखने का जतन है और अंततः एक क्लाइमेक्स है जिसमें बहुत सारे सवाल गड्डमड्ड रह जाते हैं.
शशिभूषण द्विवेदी की कहानियों की इस बहुत स्थूल किस्म की चर्चा के बाद भी बहुत सारे सवाल बचे रहते हैं. इन अलग-अलग कहानियों में वह ख़ास बात क्या है जो इस लेखक का अपना आस्वाद बनाती है. इन कहानियों को फिर से पलट कर देखने की इच्छा या ज़रूरत क्यों महसूस होती है? क्यों यह लेखक पहले एक असुविधा पैदा करता है और फिर धीरे-धीरे अनुराग विकसित करता है? ऐसे सवालों के सपाट जवाब नहीं हो सकते. लेकिन कुछ बातें इन कहानियों के बीच फिर भी समझ में आती हैं. पहली बात तो यह कि शशिभूषण द्विवेदी कहीं से राहत देने वाले लेखक नहीं हैं. कहने का मन होता है कि वे जीवन के स्याह पक्षों के लेखक हैं- लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं लगती. वे बस इतना करते हैं कि जीवन की कोमलता के साथ होने वाले क्रूर खिलवाड़ों को चुपचाप दर्ज कर लेते हैं. उनके बेबस नायक कमज़ोरियों के शिकार होते हैं. वे जिन परिवारों का जिक्र करते हैं, उनकी कई गोपन कथाएं होती हैं, वे जिन हवेलियों में जाते हैं उनकी दीवारों में यातनाएं चिनवाई हुई होती हैं. वे शायद सामंती मूल्यबोध में विकसित हुए जीवन और समाज के तहखानों की कहानियां चुनते और कहते हैं- या चुनते भी नहीं, उनकी तीव्र घ्राण शक्ति उन्हें मजबूर करती है कि वे इस जीवन के पीछे छुपी दुर्गंध को भी पकड़ें.
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दूसरी बात यह कि उनकी लगभग सारी कहानियों का एक सार्वजनिक-एक राजनीतिक पक्ष है. वे अपने नायकों की पैदाइश की तारीख़ इतिहास की घटनाओं के बीच दर्ज करते हैं. वे व्यक्तियों की कथा कहते-कहते राजनीतिक विडंबनाओं की कहानी भी कहने लगते हैं. इन कहानियों में गांधी का आंदोलन मिलता है, उग्र हिंदुत्व की विचारधारा का विस्तार मिलता है और 2002 का गुजरात और उसके बाद का परिदृश्य भी मिलता है. जैसे इन सारी कहानियों के पीछे एक राजनीतिक पर्दा टंगा हुआ है और हम चाहें तो उनके किरदारों को इस राजनीति के परिप्रेक्ष्य में भी पहचान सकते हैं. यहां तक कि ‘काला गुलाब’ में पिता की बीमारी और आसन्न मृत्यु और अपनी प्रेमिका की स्मृति के बीच भी नायक शरद को इतिहास की मायावी छायाओं का खयाल आता है- नीरो, रासपुतिन, हिटलर चले आते हैं. बेशक, इनके पहले नचिकेता भी आता है. दरअसल यह वह चीज़ है जो शशिभूषण द्विवेदी की इस कहानी को एक अलग रंग देती है- इतिहास की छाया में बने मनोविज्ञान की वह गुत्थी जो प्रेम और मृत्यु के बीच जीवन का दरवाज़ा खोज-खोल रही है.
तीसरी बात यह कि लगभग इन तमाम कहानियों में स्त्री-यौनिकता का एक दुविधापूर्ण आख्यान मिलता है. कहीं लंपट ज़मींदार अपनी रिश्तेदारों का शोषण कर रहे हैं, कहीं एक दोस्त अपने दोस्त की बीवी से बलात्कार कर रहा है, कहीं राजनीति स्त्री देह का इस्तेमाल कर रही है, कहीं एक महत्वाकांक्षी स्त्री अपनी देह को ही औजार बना रही है और अंततः पिट जा रही है. मुश्किल यह है कि यहां भी शशिभूषण इस बात को अपनी ओर से सही या गलत ठहराने की कोशिश करते नज़र नहीं आते. वे बस यह बात सामने रख देते हैं कि अक्सर स्त्री-यौनिकता के सवाल से मुंह चुराने वाला समाज अपनी स्त्रियों के लिए कैसी विकट और क्रूर विडंबनाएं रचता है. इन कहानियों में निस्संदेह कहीं-कहीं प्रेम भी है- अपनी कोमलता में पगा हुआ, लेकिन यहां भी जीवन की सच्चाइयां उसका जादू अक्सर तो़ड़ती नजर आती हैं.
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चौथी बात- शशिभूषण द्विवेदी के पास बहुत अच्छी भाषा है. बहुत अच्छी भाषा का मतलब चमकीली शब्दावली या स्मार्ट वाक्य विन्यास वाली भाषा नहीं, बल्कि सोचती-विचारती एक भाषा जो फ़ैसला करती नहीं, दूसरों पर छोड़ती है. बेशक, वह जहां उंगली रखना चाहती है, वहां उंगली रखने में कामयाब होती है. यह भाषा इन कहानियों को एक अलग ऊंचाई देती है. वह कहानियों में दिख रहे सार्वजनिक विमर्श के बीच निजी दुखों-संतापों और संशयों की छाया इतनी सहजता से ले आती है कि अचानक कथाएं करुण हो उठती हैं.
निस्संदेह इन सबके बीच यह बात भी अलक्षित नहीं की जा सकती कि शशिभूषण के कथा-विन्यास में कहीं-कहीं शिल्पगत टूटन और भटकाव भी मिलते हैं. एक बड़ी चूक या लापरवाही एक कहानी में दिखती है- महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई, जबकि कहानी के मुताबिक इसकी तारीख़ 31 जनवरी 1947 है. जाहिर है, यह सिर्फ़ लेखकीय चूक नहीं, एक स्तर पर प्रकाशकीय लापरवाही भी है. वरना किसी मोड़ पर यह चूक बड़ी आसानी से पकड़ में आ जाती.
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आख़िरी सवाल- आख़िर इन कहानियों का हासिल क्या है? शायद नए सिरे से यह एहसास कि कोई भी जीवन इकहरा नहीं होता, वह बहुत सारे दबावों के बीच बनता या गढ़ा जाता है. दूसरी बात यह कि वह जीवन चाहे जितना भी वैयक्तिक दिखता हो, अंततः अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की कोख से ही पैदा होता है. तीसरी बात यह कि जीवन के कोमल पक्षों को लगातार अपने समय की क्रूरताओं से टकराना पड़ता है और आख़िरी बात यह कि फिर भी जीवन इतना ढीठ होता है कि अंततः बचा रहता है, अपने हिस्से की कहानियां लिख डालता है.
कहीं कुछ नहीं: शशिभूषण द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, मूल्य 125 रुपये (पेपरबैक)
लेकिन सारी कहानियां ऐसी नहीं होतीं. कुछ क़िस्सागो अपने-आप में खोए होते हैं. वे जैसे अपनी कहानी के साथ भटकते रहते हैं. कहानी उनके लिए ज़िंदगी का ही एक आयाम होती है, ख़ुद को बार-बार खोने-पाने और हर बार नए सिरे से खोजने की प्रक्रिया- जिनके साथ चलते हुए वह कहानी मिलने की उम्मीद बनी रहती है जिसे जीवन में हम जीकर खो चुके हैं या जीवन को जीते हुए जिसकी गुत्थी खोल नहीं पाए. ऐसे कथाकारों को कुछ धीरज से पढ़ना पड़ता है. शशिभूषण द्विवेदी समकालीन हिंदी संसार के ऐसे ही कथाकार हैं. वे अक्सर मद्धिम आवाज़ में कहानी कहते हैं- जैसे दूसरों से नहीं, अपने-आप से बात कर रहे हों. लेकिन यह फिर भी एकालाप नहीं है. उनके भीतर एक पूरा समाज, एक पूरी स्मृति है- उनका अपने-आप से बात करते हुए ढंग से कहानी कहना भी दरअसल दूसरों को उसमें शामिल करते रहना है.
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इसी साल आए उनके कहानी संग्रह ‘कहीं कुछ नहीं’ की पहली ही कहानी ‘छुट्टी का दिन’ सतह पर बहुत मामूली सी कहानी जान पड़ती है- नई कहानी के दौर के अभावग्रस्त मध्यवर्गीय जीवन और उसमें निहित संघर्षों की याद दिलाने वाली- लेकिन ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि यह उनका दुहराव नहीं है, बल्कि इस बात की पहचान है कि ऊब, बेचैनी और आतंक शायद इस नए दौर की दिनचर्या हैं, कि सोकर उठते ही छुट्टी की याद राहत के साथ-साथ एक वितृष्णा भी पैदा करती है, कि घर के ज़रूरी काम निबटाने की ऊब के साथ-साथ छुट्टी का जो भी संभव हो, उतना भर लुत्फ उठा लेने का सयानापन जीवन को बस एक ढब में बदलता चल रहा है.
लेकिन शशिभूषण द्विवेदी जिस जटिलता और व्यापक समाज-बोध के कथाकार हैं, उसका सुराग संग्रह की दूसरी कहानियां देती हैं. ‘भूतो न भविष्यति’ एक बड़े फ़लक की कहानी है जिसमें भूतों को बक्से में बंद रखने वाले दादाजी के किस्से हैं, गांधी जी के आंदोलन और उनके व्यापक प्रभाव की छाया है, धीरे-धीरे दरकते संयुक्त परिवारों की टूटन है, वैधव्य के साये में जीती स्त्रियों के हिस्से की यंत्रणा है, किशोर प्रेम की कुछ असमंजस भरी यादें हैं और वह ख़ौफ़नाक राजनीतिक पतनशीलता है जिसमें एक लड़की बिल्कुल खिलौने की तरह इस्तेमाल की जाती है- उसकी धज्जियां उड़ा दी जाती हैं.
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‘कहीं कुछ नहीं’ संग्रह की सबसे अच्छी, सबसे लंबी और सबसे जटिल कहानी है. एक कुमार साहब हैं जो लेखक से अपनी जीवनी लिखवाना चाहते हैं. उनहें लगता है कि खुद लिखेंगे तो झूठ लिख देंगे. लेखक कुछ हिचक के साथ यह काम शुरू करना चाहता है- वह उनसे बात करता है, उनकी पुरानी डायरियां खंगालता है, उनके पुराने घरों में जाकर, पुराने परिचितों से बात करता है. लेकिन इस समूचे उपक्रम में उसके सामने जो खुलता है, वह कुमार साहब का जीवन भर नहीं है, वह एक पूरे समाज का जीवन है जिसकी ढेर सारी गुत्थियां हैं. यह बात बहुत सपाट ढंग से कही जा रही है, क्योंकि कहानी में जिस तरह वर्णित है, उस तरह यहां आ नहीं सकती. दरअसल यह एक औपन्यासिक वृत्तांत है जिसे शशिभूषण द्विवेदी ने लंबी कहानी की शक्ल दी है. इसमें ढेर सारे किरदार हैं, ढेर सारी घटनाएं हैं, इन घटनाओं के अलग-अलग ब्योरे हैं. अपने पिता की धार्मिकता और कंगाली के शिकार कुमार साहब अपने मौसाजी की हवेली में पले जहां मौसाजी के एक बेटे रामप्रताप से उनकी ख़ूब पटी. यह हवेली औपनिवेशिक भारत में फूली-फली जमींदारियों के पतन की जर्जर निशानी है जिसमें बच्चों का उत्पीड़न है, औरतों की चीखें हैं, क्रांतिकारी बनने की कोशिशें हैं और यौन-शुचिता की टूटती पर्देदारियां हैं.
यह कहानी हवेली तक सीमित नहीं है, वह शहर भी आती है और कुमार साहब के बुढ़ापे और अंततः उनकी मौत तक जाती है. इस दौरान कातरता, कृतघ्नता, विवशता, धोखा, ज़ोर-ज़बरदस्ती, रचनात्मकता, कविता सब मिलती है और कुछ इस तरह मिलती है कि इनकी मार्फत हम जीवन को कुछ-कुछ और पहचानने की कोशिश कर सकते हैं. ‘शालिग्राम’ एक ईमानदार और सख़्त पिता की कहानी है जो अपने सामने अपनी कई मान्यताओं की धज्जियां उड़ता देखता है. शराब से बहुत सख़्त नफ़रत करने वाला यह पिता कहानी के अंत में अपने नशे में लड़खड़ाते बेटे को सहारा देकर घर लाता है, उसके कपड़े बदलता है और खाना खिलाता है- यह एक करुण दृश्य है.
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संग्रह की आख़िरी तीन कहानियां ‘अभिशप्त’ ‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’ और ‘काला गुलाब’ कुछ छोटी और अपने ‘ट्रीटमेंट’ में कुछ अलग सी कहानियां हैं. कुछ ख़तरा उठाकर इन्हें सामाजिक से ज़्यादा मनोवैज्ञानिक कहानियां कहा जा सकता है. अपनी महत्वाकांक्षी प्रेमिका और पत्नी के हाथों धोखा खाया ‘अभिशप्त’ का नायक अपने दूसरे प्रेम के साथ भी पुरानी स्मृतियों से मुक्त नहीं हो पा रहा. कोई आत्मघाती इच्छा बार-बार उसके भीतर सिर उठाती है. लेकिन अंततः उसकी नई दोस्त उसे इस इच्छा से दूर ले जाती है- यह कहते हुए कि ‘हम घर की तरफ ही चल रहे हैं.‘
‘मोना डार्लिंग और जॉर्ज बुश’ का नायक बेशक कुरु-कुरु स्वाहा के थ्री-इन-वन मनोहर श्याम जोशी की याद दिलाता है जब लेखक कहता है कि उसके भीतर एक लफंगा रहता है, एक पोंगा पंडित रहता है और एक फ़िलॉसफ़र भी. यह कहानी बस एक स्टेशन के बाहर बने ढाबे पर घटित होती है जहां एक किरदार के भीतर बसे ये तीनों किरदार वहीं आए दो पुरुषों और एक लड़की के बीच के रिश्तों का तरह-तरह से अनुमान लगा रहे हैं.
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आख़िरी कहानी ‘काला गुलाब’ का नायक बरसों बाद उस जगह लौटा है जहां उसके पिता ने आख़िरी सांस ली थी. यहां भी अचानक हुए एक प्रेम की स्मृति है. अवसाद और मृत्यु की छाया के बीच जीवन देखने का जतन है और अंततः एक क्लाइमेक्स है जिसमें बहुत सारे सवाल गड्डमड्ड रह जाते हैं.
शशिभूषण द्विवेदी की कहानियों की इस बहुत स्थूल किस्म की चर्चा के बाद भी बहुत सारे सवाल बचे रहते हैं. इन अलग-अलग कहानियों में वह ख़ास बात क्या है जो इस लेखक का अपना आस्वाद बनाती है. इन कहानियों को फिर से पलट कर देखने की इच्छा या ज़रूरत क्यों महसूस होती है? क्यों यह लेखक पहले एक असुविधा पैदा करता है और फिर धीरे-धीरे अनुराग विकसित करता है? ऐसे सवालों के सपाट जवाब नहीं हो सकते. लेकिन कुछ बातें इन कहानियों के बीच फिर भी समझ में आती हैं. पहली बात तो यह कि शशिभूषण द्विवेदी कहीं से राहत देने वाले लेखक नहीं हैं. कहने का मन होता है कि वे जीवन के स्याह पक्षों के लेखक हैं- लेकिन यह बात पूरी तरह सही नहीं लगती. वे बस इतना करते हैं कि जीवन की कोमलता के साथ होने वाले क्रूर खिलवाड़ों को चुपचाप दर्ज कर लेते हैं. उनके बेबस नायक कमज़ोरियों के शिकार होते हैं. वे जिन परिवारों का जिक्र करते हैं, उनकी कई गोपन कथाएं होती हैं, वे जिन हवेलियों में जाते हैं उनकी दीवारों में यातनाएं चिनवाई हुई होती हैं. वे शायद सामंती मूल्यबोध में विकसित हुए जीवन और समाज के तहखानों की कहानियां चुनते और कहते हैं- या चुनते भी नहीं, उनकी तीव्र घ्राण शक्ति उन्हें मजबूर करती है कि वे इस जीवन के पीछे छुपी दुर्गंध को भी पकड़ें.
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दूसरी बात यह कि उनकी लगभग सारी कहानियों का एक सार्वजनिक-एक राजनीतिक पक्ष है. वे अपने नायकों की पैदाइश की तारीख़ इतिहास की घटनाओं के बीच दर्ज करते हैं. वे व्यक्तियों की कथा कहते-कहते राजनीतिक विडंबनाओं की कहानी भी कहने लगते हैं. इन कहानियों में गांधी का आंदोलन मिलता है, उग्र हिंदुत्व की विचारधारा का विस्तार मिलता है और 2002 का गुजरात और उसके बाद का परिदृश्य भी मिलता है. जैसे इन सारी कहानियों के पीछे एक राजनीतिक पर्दा टंगा हुआ है और हम चाहें तो उनके किरदारों को इस राजनीति के परिप्रेक्ष्य में भी पहचान सकते हैं. यहां तक कि ‘काला गुलाब’ में पिता की बीमारी और आसन्न मृत्यु और अपनी प्रेमिका की स्मृति के बीच भी नायक शरद को इतिहास की मायावी छायाओं का खयाल आता है- नीरो, रासपुतिन, हिटलर चले आते हैं. बेशक, इनके पहले नचिकेता भी आता है. दरअसल यह वह चीज़ है जो शशिभूषण द्विवेदी की इस कहानी को एक अलग रंग देती है- इतिहास की छाया में बने मनोविज्ञान की वह गुत्थी जो प्रेम और मृत्यु के बीच जीवन का दरवाज़ा खोज-खोल रही है.
तीसरी बात यह कि लगभग इन तमाम कहानियों में स्त्री-यौनिकता का एक दुविधापूर्ण आख्यान मिलता है. कहीं लंपट ज़मींदार अपनी रिश्तेदारों का शोषण कर रहे हैं, कहीं एक दोस्त अपने दोस्त की बीवी से बलात्कार कर रहा है, कहीं राजनीति स्त्री देह का इस्तेमाल कर रही है, कहीं एक महत्वाकांक्षी स्त्री अपनी देह को ही औजार बना रही है और अंततः पिट जा रही है. मुश्किल यह है कि यहां भी शशिभूषण इस बात को अपनी ओर से सही या गलत ठहराने की कोशिश करते नज़र नहीं आते. वे बस यह बात सामने रख देते हैं कि अक्सर स्त्री-यौनिकता के सवाल से मुंह चुराने वाला समाज अपनी स्त्रियों के लिए कैसी विकट और क्रूर विडंबनाएं रचता है. इन कहानियों में निस्संदेह कहीं-कहीं प्रेम भी है- अपनी कोमलता में पगा हुआ, लेकिन यहां भी जीवन की सच्चाइयां उसका जादू अक्सर तो़ड़ती नजर आती हैं.
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चौथी बात- शशिभूषण द्विवेदी के पास बहुत अच्छी भाषा है. बहुत अच्छी भाषा का मतलब चमकीली शब्दावली या स्मार्ट वाक्य विन्यास वाली भाषा नहीं, बल्कि सोचती-विचारती एक भाषा जो फ़ैसला करती नहीं, दूसरों पर छोड़ती है. बेशक, वह जहां उंगली रखना चाहती है, वहां उंगली रखने में कामयाब होती है. यह भाषा इन कहानियों को एक अलग ऊंचाई देती है. वह कहानियों में दिख रहे सार्वजनिक विमर्श के बीच निजी दुखों-संतापों और संशयों की छाया इतनी सहजता से ले आती है कि अचानक कथाएं करुण हो उठती हैं.
निस्संदेह इन सबके बीच यह बात भी अलक्षित नहीं की जा सकती कि शशिभूषण के कथा-विन्यास में कहीं-कहीं शिल्पगत टूटन और भटकाव भी मिलते हैं. एक बड़ी चूक या लापरवाही एक कहानी में दिखती है- महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई, जबकि कहानी के मुताबिक इसकी तारीख़ 31 जनवरी 1947 है. जाहिर है, यह सिर्फ़ लेखकीय चूक नहीं, एक स्तर पर प्रकाशकीय लापरवाही भी है. वरना किसी मोड़ पर यह चूक बड़ी आसानी से पकड़ में आ जाती.
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आख़िरी सवाल- आख़िर इन कहानियों का हासिल क्या है? शायद नए सिरे से यह एहसास कि कोई भी जीवन इकहरा नहीं होता, वह बहुत सारे दबावों के बीच बनता या गढ़ा जाता है. दूसरी बात यह कि वह जीवन चाहे जितना भी वैयक्तिक दिखता हो, अंततः अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की कोख से ही पैदा होता है. तीसरी बात यह कि जीवन के कोमल पक्षों को लगातार अपने समय की क्रूरताओं से टकराना पड़ता है और आख़िरी बात यह कि फिर भी जीवन इतना ढीठ होता है कि अंततः बचा रहता है, अपने हिस्से की कहानियां लिख डालता है.
कहीं कुछ नहीं: शशिभूषण द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, मूल्य 125 रुपये (पेपरबैक)
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