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This Article is From Apr 20, 2018

Book Review: श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' का नया वर्जन है 'मदारीपुर जंक्शन'

बालेंदु द्विवेदी की रचना 'मदारीपुर जंक्शन' किताब न सिर्फ समीक्षा की कसौटी पर खड़ी उतरती है, बल्कि पाठकों को भी गांव और इंडिया से इतर भारत के परिदृश्य को समझाने में मददगार साबित होती है. 

Book Review: श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' का नया वर्जन है 'मदारीपुर जंक्शन'
किताब समीक्षा: मदारीपुर जंक्शन
नई दिल्ली: किसी भी कृति यानी रचना की सफलता पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं की प्रतिक्रिया के आधार पर तय होती है. किताबों-उपन्यासों की सफलता अब न सिर्फ समीक्षाएं तय करती हैं, बल्कि बेस्ट सेलिंग कैटेगरी होना भी उसका मानक बन गया है. हालांकि, कुछ किताबें ऐसी होती हैं कि जो समीक्षा के इतर पाठक उससे अपने आप को इस कदर कनेक्ट करता है, कि न वह सिर्फ उसे पढ़ता है, बल्कि कईयों को सजेस्ट भी करता है. इसी कड़ी में आज पेश है एक किताब- 'मदारीपुर जंक्शन'. बालेंदु द्विवेदी की रचना 'मदारीपुर जंक्शन' किताब न सिर्फ समीक्षा की कसौटी पर खड़ी उतरती है, बल्कि पाठकों को भी गांव और इंडिया से इतर भारत के परिदृश्य को समझाने में मददगार साबित होती है. 

दरअसल, किसी परिघटना या फिर देश-काल के परिदृश्य को सहज और सरल तरीके से सबके सामने रख पाना न तो आसान होता है और न ही इस विधा में अधिकतर लोग श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाई और प्रेमचंद सरीखे पारंगत होते हैं, जो व्यंग और आंचलिकता को साथ लेकर पूरी अभिव्यक्ति को एक शब्दों के साथ पीरो दे. अगर आप श्रीलाल शुक्ल की किताब राग दरबारी पढ़ी होगी, तो आप इसे उसका नया वर्जन ही पाएंगे. बहरहाल, व्यंग करना इतना आसान कभी नहीं रहा. क्योंकि व्यंग कब फुहरता और अश्लीलता के रंग में रंग जाता है, ये कोई नहीं जानता. मगर मदारीपुर जंक्शन में बालेंदु द्विवेदी ने अपनी व्यंग की शैली को साहित्य की सीमा में रखते हुए जिस तरह से किताब के ताने-बाने को बुना है, वह इस बात पर यकीन करने से रोक देता है कि बालेंदु की यह पहली रचना है. सच कहूं तो भाषा, प्रवाह, शैली और आंचलिकता का उत्कृष्ट उदाहरण है यह मदारीपुर जंक्शन. इतना ही नहीं, मदारीपुर जंक्शन व्यंग, रोमांच और रोमांस का जबरदस्त संगम है. 

अब अगर मदारीपुर जंक्शन की बात करें तो यह पूरी तरह से ग्रामीण परिवेश का चित्रण है, जिसे लेखक ने विशेष तौर पर उत्तर भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र की ओर इशारा किया है. यानी कि मदारीपुर जंक्शन एक कल्पनाशीलता का एक बेहतरीन उदाहरण है जिसे पढ़ते वक्त पाठक अपने गांव से रिलेट कर सकता है. अगर पाठक गांव और उसके परिवेश से परिचित है तो सच कहूं तो यह उपन्यास सीधे तौर पर सहज तरीके से उसके मन में समा जाएगा और उसे अपने गांव की तस्वीर साफ-साफ दिखाई देगी. 

दरअसल, शुरू में यह उपन्यास मदारीपुर गांव के परिवेश और उसके पात्रों को समझाने की बेहतरीन कोशिश है. इसमें गांव और असली भारतीय परिवेश को उसी रूप में चित्रित करने के लिए लेखक ने उन शब्दों और गालियों का भी प्रयोग किया है, जिसे हमारे समाज में आम-बोल चाल में प्रयोग में लाया जाता है. लेकिन गौर करने वाली बात है कि लेखक ने उन शब्दों को यहां जबरदस्ती फीट नहीं किया है, बल्कि स्थान, पात्र और परिवेश की मांग पर लेखक ने उन गालियों और आंचलिक शब्दों का इस्तेमाल किया है. उपन्यास मदारीपुर के प्रधान पद के दो दावेदार बैरागी बाबू और छेदी बाबू के बीच आपसी वर्चस्व वाले संघर्ष की एक शानदार कथा है. यानी कि मदारीपुर जंक्शन मुख्य रूप से इन्हीं दो पात्रों के ईर्द-गिर्द घुमती जरूर है, मगर किरदार ऐसे-ऐसे हैं जो कहीं भी उपन्यास के लय को तोड़ने नहीं देते. छेदी बाबू और बैरागी बाबू बचपन के दोस्त होते हैं, दूर के रिश्ते में चाचा-भतीजा होते हैं और फिर बाद में दुश्मन तो होते हैं. 

उपन्यास में रोमांस को शुरुआत में ही काफी बेहतरीन तरीसे से चित्रित किया गया है. दरअसल, मदारीपुर में एक भालू बाबा होते हैं, जो कहने को तो बाबा हैं, मगर हैं तो बड़े वाले रसिया. रसिया प्रसंग में भालू बाबा शिवालय के पूजारी होते हैं. ये बाबा कम गंजेरी और गंजेरियों के सरदार ज्यादा होते हैं. वो ऐसे रसिक मिजाज के होते हैं कि पास के तालाब में स्नान करती महिलाओं को नित्य देखना उनकी दिनचर्या का ज़रूरी हिस्सा होता है. मगर एक दिन इसी की वजह से उनकी ऐसी पिटाई होती है कि कोई जान भी नहीं पाता कि आखिर गांव से भालू बाबा गये कहां?

एक और अन्य प्रसंग में लेखक ने उस दौर के परिवेश को चित्रित करने की कोशिश की है, जब नसबंदी को लेकर कई तरह की समाज में अफवाहें उड़ा करती थीं. आज कल जिस तरह से सोशल मीडिया के जमाने में अफवाह की संस्कृति विकसित हो रही है, इसकी बानगी मदारीपुर जंक्शन में साफ देखी जा सकती है. दरअसल, एक दिन मीडिया वाले गांव में आते हैं, फिर गांव में ऐसी हवा उठती है कि नसबंदी करने आए हैं और सरकार जबरन सबका नसंबदी कर रही है. इसमें एक के बाद एक कई सारे ऐसे रोचक और प्रासंगिक प्रसंग है कि पाठक किताब को एक पल के लिए भी अपने से दूर कर पाने की स्थिति में नहीं होता है और उसे अंत-अंत तक जकड़े रखती है. 

उपन्यास में बार-बार आपको चवन्नी और अठन्नी पट्टी से सामना करना पड़ सकता है, इसलिए कन्फूज मत होइयेगा. छेदी बाबू जहां चवन्नी पट्टी में वर्चस्व रखते हैं, वहीं बैरागी बाबू अट्ठन्नी पट्टी में. दरअसल, उपन्यास में ये दोनों पट्टी ही गांव की धूरी हैं. गांव में प्रधानी पद का चुनावी घमासान इस उपन्यास का केन्द्रीय घटनाक्रम है और इसके दो मुख्य पात्र हैं छेदी बाबू और बैरागी बाबू. सच कहूं तो मदारीपुर जंक्शन पाठक को अंत-अंत तक बांधे रखती है. इसमें एक भी ऐसा प्रसंग नहीं है जो पाठक को लगे कि लेखक ने जबरन घुसाया है. मदारीपुर जंक्शन भारतीय ग्रामीण समाज की मूल अवधारणा को दर्शाती है, जो शायद अब भी गांवों में थोड़ी-बहुत बसती है. इसलिए पाठक को यह पढ़ते वक्त इसका एहसास जरूर होगा. 

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