भारत सरकार में प्रमुख आर्थिक सलाहकार और अपने इतिहास लेखन के लिए पहचाने वाले संजीव सान्याल ने स्वतंत्रता संघर्ष को केंद्र में रखते हुए इतिहास के पुनर्लेखन पर जोर दिया. नेता जी सुभाष बोस की 123वीं जयंती पर नई दिल्ली में आयोजित 14वें स्मृति व्याख्यान में उन्होंने कहा कि भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने आप में अनोखा था और उसमें अहिंसक आंदोलन का भी अपना महत्व था, लेकिन इसमें क्रांतिकारियों के सशस्त्र प्रयासों को नकार देना कहीं से भी ठीक नहीं है. संजीव के अनुसार ऐसा कहना कि हमने अंग्रेजों से आज़ादी मांगी और उन्होंने हमें बस मांगने भर में आज़ादी दे दी, ठीक नहीं. हमारे आंदोलन में क्रांतिकारियों ने भी प्रयास किए लेकिन उनके प्रयासों को बस व्यक्तिगत प्रयास कह कर उनका महत्व कम कर दिया गया है.
अपने इस व्याख्यान की शुरुआत उन्होंने 1857 से की, जिसके बाद झारखण्ड में बिरसा मुंडा और मणिपुर में 1888-89 में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जो विद्रोह हुआ, वे सब एक तरह से एक ही तरीके से अंग्रेजी हुकूमत के विरोध के लिए उठे थे.
उसके बाद कांग्रेस का समय आया, जो वास्तव में अपने शुरुआती सालों में 'डिबेटिंग सोसाइटी' से ज्यादा नहीं थी. इसी के बाद लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति के रूप में नरमदल का समय आता है और फिर इसी संदर्भ में श्रीअरबिंदो और सावरकर के प्रयास शुरू होते हैं. हालांकि श्रीअरबिंदो को आध्यात्मिक नेता माना जाता था, लेकिन ये उन्हीं के विचार थे, जिनके बल पर देश के अलग-अलग हिस्सों, खासकर बंगाल में छोटी-छोटी (क्रांतिकारियों की) समितियां बनती हैं.
वहीं सावरकर के नेतृत्व में लंदन में भारतीय छात्रों का एक संगठन बनता है. हालांकि ये प्रयास छोटे थे, लेकिन महत्वपूर्ण थे. इन दोनों के प्रयासों के न सिर्फ राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश विरोधी लोग समूहों में आने लगे. उदाहरण के लिए सावरकर के प्रयासों या उनसे प्रेरणा पाकर उत्तरी अमेरिका में ग़दर आंदोलन हो या फिर श्यामजी कृष्ण वर्मा के पेरिस में किए गए प्रयास, सबने एक माहौल पैदा किया.
हालांकि इन लोगों के शुरुआती प्रयास बहुत प्रभाव पैदा तो नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने एक पैटर्न उपलब्ध कराया. लगभग इसी समय सावरकर ने बताया कि 1857 में जो तरीका अपनाया गया था, भारत की मुक्ति के लिए वही सर्वश्रेष्ठ था.'
सान्याल के अनुसार सावरकर का यह विचार अगले 50 साल तक क्रांतिकारियों के लिए केंद्र में रहा और जब 20वीं सदी के दूसरे दशक में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो भारत में रास बिहारी बोस, सचीन्द्र नाथ सान्याल और विदेश (उत्तर अमेरिकी महाद्वीप) में लाला हरदयाल ने सशस्त्र संघर्ष के प्रयास किए. लेकिन ये प्रयास भी असफल हो गए.
विश्व युद्ध के साथ-साथ भारत के क्रांतिकारियों के विद्रोह के प्रयास चलते रहे, जिसमें एक योजना युद्ध से लौटे भारतीय सैनिकों के साथ मिलकर विद्रोह करने की भी थी. इसी संदर्भ में रॉलेट एक्ट आया और फिर जिसके विरोध में जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ. जलियांवाला के बाद ही फिर असहयोग हुआ. तो ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं.
असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद एक बार फिर क्रांतिकारी सक्रिय हुए, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी बनाई, जो कहीं न कहीं आयरिश रिपब्लिकन आर्मी जैसी थी.
संजीव सान्याल के अनुसार क्रांतिकारियों ने पहले, पहले विश्व युद्ध के समय और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय सैनिकों के साथ मिलकर विद्रोह की योजना बनाई. आगे जाकर यही रणनीति थी जो रॉयल इंडियन नेवी में विद्रोह के रूप में सामने आई और तभी अंग्रेजी सत्ता को लगा कि अब यहां और शासन नहीं किया जा सकता.
संजीव सान्याल ने नेताजी द्वारा जर्मनी और जापान की सहायता लेने को क्रांतिकारियों की उसी 'ग्रैंड स्ट्रेटजी' का एक रूप बताया जिसके प्रयास पहले विश्वयुद्ध से चल रहे थे और जिसकी वक़ालत सावरकर ने अपनी किताब में की थी.
लेकिन जब उनसे पूछा गया कि आप इतिहास के पुनर्लेखन पर जोर दे रहे हैं लेकिन पिछले लगभग 6 सालों से केंद्र में वही सरकार है, जिसके साथ आप काम कर रहे हैं तो फिर आख़िर कब इतिहास का पुनर्लेखन होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि इतिहास लेखन बहुत विस्तृत काम है और इसे एकाएक नहीं किया जा सकता. टेक्स्ट बुक बदलना प्रक्रिया का सबसे अंतिम भाग है. उसके लिए और उससे पहले जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक इतिहास लेखन की चर्चा हो, उसके लिए प्रयास हों.
उनके अनुसार इतिहास पुनर्लेखन सिर्फ किसी एक संस्था या सरकार के भरोसे नहीं हो सकता बल्कि इसके लिए कई दिशाओं से एक साथ प्रयास किए जाने चाहिए.
संजीव ने कांग्रेस को सिर्फ गांधीवादी अहिंसक विचारों की कांग्रेस कहने को अधूरा बताया क्योंकि कांग्रेस में रहते हुए नेताजी बंगाल और देश के क्रांतिकारियों का समर्थन करते और उनसे समर्थन पाते थे.
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