जब इसी साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड (JDU) के प्रमुख नीतीश कुमार की बराबर सीटों की मांग मान ली थी, उसे BJP की ओर दी गई बड़ी रियायत माना गया था, जिससे नीतीश का सम्मान भी बरकरार रहा, जिनके पास उस वक्त सिर्फ दो ही सांसद थे. लेकिन अब सवाल यह है कि पिछले 14 साल से मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे और केंद्रीय गृहमंत्री व BJP के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा बिहार के मुख्यमंत्री पद के लिए NDA की ओर से चेहरा घोषित कर दिए गए नीतीश कुमार बराबर सीटों की बात से पीछे हटते हुए ज़्यादा सीटें क्यों मांग रहे हैं. नीतीश कुमार ने वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव BJP के साथ और वर्ष 2015 का विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के साथ मिलकर बराबर-बराबर सीटों लड़ा था. वर्ष 2019 में दोनों साझीदारों ने 17-17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, और नीतीश कुल 16 सीटें जीत पाए थे, जबकि BJP सभी 17 सीटें जीती थी. वर्ष 2015 में नीतीश कुमार की JDU और पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की RJD 101-101 सीटों पर लड़े थे, जिनमें से RJD ने 80 सीटें जीत ली थीं, लेकिन नीतीश कुमार सिर्फ 71 सीटों पर जीत हासिल कर पाए थे.
अगर इस स्ट्राइक रेट की तुलना में वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव भी जोड़ दिया जाए, तो गठबंधन सहयोगी BJP ने जिन 102 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ा था, उनमें से 91 पर जीत पाई थी, लेकिन JDU ने उस समय 141 सीटों पर चुनाव लड़कर भी सिर्फ 115 सीटें जीती थीं. सो, इन आंकड़ों से साफ ज़ाहिर है कि JDU के मुकाबले गठबंधन सहयोगियों का स्ट्राइक रेट हमेशा बेहतर रहा है.
लेकिन इससे यह तथ्य भी ज़ाहिर होता है कि JDU का मूलभूत वोटर तो उसके सहयोगी को वोट दे दिया करता है, लेकिन सहयोगियों के मूलभूत वोटरों का वोट JDU के पक्ष में नहीं पहुंचता. शायद इसी वजह से, और अब झारखंड विधानसभा चुनाव में BJP के हाथ से सत्ता चली जाने के बाद नीतीश कुमार ज़्यादा सीटें मांग रहे हैं.
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