वित्त मंत्री अरुण जेटली और कीर्ति आजाद (फाइल फोटो)।
पटना:
इस समय देश में राजनीति और क्रिकेट की सबसे दिलचस्प जंग जारी है। इस लड़ाई की सबसे रोचक बात है कि पूरे देश में लोग आखिर इस जंग के जीतने वाले से ज्यादा हर दिन होने वाली जुबानी जंग, अदालती सुनवाई में रुचि लेते हैं। सबको मालूम है कि इस लड़ाई से देश की राजनीति पर कोई असर पड़े या नहीं लेकिन केंद्र सरकार की मुश्किलें जरूर बढ़ गई हैं और वह होना लाजिमी है। जब अपने पार्टी के सांसद आरोप लगा रहे हों और खुद केंद्रीय वित्त मंत्री को कोर्ट में जाकर मानहानि का मुकदमा करना पड़े तो सरकार की चाबी पर असर पड़ना स्वाभाविक है।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और बीजेपी से अब निलंबित दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद के बीच हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। इसके लिए दिल्ली की क्रिकेट से ज्यादा बिहार की राजनीति जिम्मेदार रही है। क्रिकेट के मैदान में यह किसी से छिपा नहीं कि जैसे-जैसे अरुण जेटली का प्रभाव बढ़ा उसी अनुपात में कीर्ति आजाद हाशिये पर भी गए और कीर्ति आजाद की नाराजगी का कारण मात्र क्रिकेट नहीं बिहार की राजनीति भी है।
हालांकि कोटला की पिच का अमूमन बिहार की राजनीति के मैदान से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए, लेकिन जेटली और कीर्ति के बीच जारी जंग में दोनों जगह समानांतर सह-मात का खेल चलता रहा। कभी जेटली जीते तो कभी कीर्ति ने उनकी नहीं चलने दी। लेकिन लड़ाई आखिर थी क्या, इसे समझना जरूरी है।
दरअसल कीर्ति आजाद पहली बार 1999 में बिहार के दरभंगा से बीजेपी के टिकट पर सांसद बने। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र दरभंगा के स्थानीय बच्चों के लिए एक क्रिकेट कैंप का आयोजन किया और उसके समापन में उस समय राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव को ले गए। इससे बीजेपी के नेताओं में बड़ी नाराजगी रही। बाद के दिनों में जब वे सांसद थे तभी राष्ट्रीय टीम के चयनकर्ता भी बने लेकिन किसी कारण से एक टर्म के बाद 2004 में न वे संसद रहे और न ही चयनकर्ता। चयन समिति से हटाए जाने के पीछे कीर्ति का मानना था कि जेटली ने उन्हें अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर हटाया है। इसके बाद 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा चुनाव हुए और दोनों बार कीर्ति के एक भी समर्थक को न तो टिकट मिला और न ही उन्हें पार्टी ने प्रचार लायक समझा गया। आप इसे एक संयोग कह सकते हैं कि उस जमाने में अरुण जेटली बिहार चुनाव के बीजेपी प्रभारी होते थे। एक समय नौबत यहां तक आ गई कि कीर्ति ने अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखने के लिए मोटरसाइकिल से प्रचार किया। पार्टी ने उन्हें न तो कभी साधन मुहैया कराया और न ही क्षेत्र में कहीं जाने के लिए कहा।
बाद के दिनों में नीतीश कुमार की सरकार बनी और दरभंगा की राजनीति में संजय झा का प्रवेश हुआ। संजय झा एक जमाने में राजीव प्रताप रूडी के लिए मीडिया का काम देखते थे। बाद के दिनों में जेटली के साथ अपने संबंधों के कारण संजय झा नीतीश कुमार के भी नजदीक हुए और यह माना जाता है कि अरुण जेटली, कीर्ति आजाद के खिलाफ उन्हें विकल्प के रूप में तैयार कर रहे थे। इसमें नीतीश कुमार की मौन सहमति भी थी। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में जब टिकट का बंटवारा हो रहा था उस समय सुधांशु मित्तल को असम का सह प्रभारी बनाए जाने पर अरुण जेटली बिहार की लिस्ट पर चर्चा होने के ठीक पहले पार्टी से रूठकर संसदीय बोर्ड की बैठक से अलग हो गए। इसका फायदा सीधे कीर्ति को मिला। वह राजनाथ, सुषमा और आडवाणी के समर्थन से टिकट लेने में सफल हो गए। फिर वे चुनाव भी जीते लेकिन उनका हमेशा दर्द यही रहा कि सांसद भले वे हों लेकिन प्रशासन में चलती संजय झा की है, जिनके ऊपर अरुण जेटली और नीतीश कुमार का हाथ है। शायद यही कारण रहा कि जिस तरीके से दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन की बैठक में आपने देखा होगा कीर्ति जेटली को निशाना बना रहे हैं उसी तरीके से उन्होंने एक बार समीक्षा बैठक में नीतीश कुमार के खिलाफ भी जमकर बोला था। नीतीश ने उसके बाद कीर्ति को अपने पास फटकने नहीं दिया।
सन 2014 में कीर्ति फिर मोदी लहर में सांसद चुने गए। यह भी संयोग रहा कि जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर संजय झा भी उनके खिलाफ मैदान में थे लेकिन वे जमानत भी नहीं बचा पाए। लेकिन राजनीति के मैदान में भले कीर्ति जेटली को मात देते जा रहे हों लेकिन दिल्ली क्रिकेट में उनकी पूछ दिनोंदिन कम होती जा रही थी। इसका मलाल कीर्ति को हमेशा रहा और इस बीच स्टेडियम निर्माण के कागजात उनके हाथ लग गए। जेटली के खिलाफ अगर कीर्ति ने मोर्चा खोला तो उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी के कई नेताओं का समर्थन हासिल था। यह उन नेताओं का तबका था जो मानता था कि उनकी वर्तमान राजनैतिक स्थिति के लिए जेटली कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।
निश्चित रूप से आने वाले दिनों में यह लड़ाई और तेज होगी, लेकिन कूछ बातें स्पष्ट हैं कि बिहार से कीर्ति को राजनीतिक बोरिया-बिस्तर समेत जाना पड़ेगा, क्योंकि बिहार बीजेपी में जिन नेताओं की चलती है उनके साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा हैं। कीर्ति जितना बोलेंगे उतनी मुश्किलें वे बीजेपी और अरुण जेटली के लिए बढ़ाते रहेंगे जिसका मजा लालू , नीतीश और कांग्रेस के नेता फिलहाल उठाना चाहेंगे।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और बीजेपी से अब निलंबित दरभंगा के सांसद कीर्ति आजाद के बीच हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। इसके लिए दिल्ली की क्रिकेट से ज्यादा बिहार की राजनीति जिम्मेदार रही है। क्रिकेट के मैदान में यह किसी से छिपा नहीं कि जैसे-जैसे अरुण जेटली का प्रभाव बढ़ा उसी अनुपात में कीर्ति आजाद हाशिये पर भी गए और कीर्ति आजाद की नाराजगी का कारण मात्र क्रिकेट नहीं बिहार की राजनीति भी है।
हालांकि कोटला की पिच का अमूमन बिहार की राजनीति के मैदान से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए, लेकिन जेटली और कीर्ति के बीच जारी जंग में दोनों जगह समानांतर सह-मात का खेल चलता रहा। कभी जेटली जीते तो कभी कीर्ति ने उनकी नहीं चलने दी। लेकिन लड़ाई आखिर थी क्या, इसे समझना जरूरी है।
दरअसल कीर्ति आजाद पहली बार 1999 में बिहार के दरभंगा से बीजेपी के टिकट पर सांसद बने। उन्होंने अपने संसदीय क्षेत्र दरभंगा के स्थानीय बच्चों के लिए एक क्रिकेट कैंप का आयोजन किया और उसके समापन में उस समय राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू यादव को ले गए। इससे बीजेपी के नेताओं में बड़ी नाराजगी रही। बाद के दिनों में जब वे सांसद थे तभी राष्ट्रीय टीम के चयनकर्ता भी बने लेकिन किसी कारण से एक टर्म के बाद 2004 में न वे संसद रहे और न ही चयनकर्ता। चयन समिति से हटाए जाने के पीछे कीर्ति का मानना था कि जेटली ने उन्हें अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर हटाया है। इसके बाद 2005 में बिहार में दो बार विधानसभा चुनाव हुए और दोनों बार कीर्ति के एक भी समर्थक को न तो टिकट मिला और न ही उन्हें पार्टी ने प्रचार लायक समझा गया। आप इसे एक संयोग कह सकते हैं कि उस जमाने में अरुण जेटली बिहार चुनाव के बीजेपी प्रभारी होते थे। एक समय नौबत यहां तक आ गई कि कीर्ति ने अपने आपको प्रासंगिक बनाए रखने के लिए मोटरसाइकिल से प्रचार किया। पार्टी ने उन्हें न तो कभी साधन मुहैया कराया और न ही क्षेत्र में कहीं जाने के लिए कहा।
बाद के दिनों में नीतीश कुमार की सरकार बनी और दरभंगा की राजनीति में संजय झा का प्रवेश हुआ। संजय झा एक जमाने में राजीव प्रताप रूडी के लिए मीडिया का काम देखते थे। बाद के दिनों में जेटली के साथ अपने संबंधों के कारण संजय झा नीतीश कुमार के भी नजदीक हुए और यह माना जाता है कि अरुण जेटली, कीर्ति आजाद के खिलाफ उन्हें विकल्प के रूप में तैयार कर रहे थे। इसमें नीतीश कुमार की मौन सहमति भी थी। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में जब टिकट का बंटवारा हो रहा था उस समय सुधांशु मित्तल को असम का सह प्रभारी बनाए जाने पर अरुण जेटली बिहार की लिस्ट पर चर्चा होने के ठीक पहले पार्टी से रूठकर संसदीय बोर्ड की बैठक से अलग हो गए। इसका फायदा सीधे कीर्ति को मिला। वह राजनाथ, सुषमा और आडवाणी के समर्थन से टिकट लेने में सफल हो गए। फिर वे चुनाव भी जीते लेकिन उनका हमेशा दर्द यही रहा कि सांसद भले वे हों लेकिन प्रशासन में चलती संजय झा की है, जिनके ऊपर अरुण जेटली और नीतीश कुमार का हाथ है। शायद यही कारण रहा कि जिस तरीके से दिल्ली क्रिकेट एसोसिएशन की बैठक में आपने देखा होगा कीर्ति जेटली को निशाना बना रहे हैं उसी तरीके से उन्होंने एक बार समीक्षा बैठक में नीतीश कुमार के खिलाफ भी जमकर बोला था। नीतीश ने उसके बाद कीर्ति को अपने पास फटकने नहीं दिया।
सन 2014 में कीर्ति फिर मोदी लहर में सांसद चुने गए। यह भी संयोग रहा कि जनता दल यूनाइटेड के टिकट पर संजय झा भी उनके खिलाफ मैदान में थे लेकिन वे जमानत भी नहीं बचा पाए। लेकिन राजनीति के मैदान में भले कीर्ति जेटली को मात देते जा रहे हों लेकिन दिल्ली क्रिकेट में उनकी पूछ दिनोंदिन कम होती जा रही थी। इसका मलाल कीर्ति को हमेशा रहा और इस बीच स्टेडियम निर्माण के कागजात उनके हाथ लग गए। जेटली के खिलाफ अगर कीर्ति ने मोर्चा खोला तो उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पार्टी के कई नेताओं का समर्थन हासिल था। यह उन नेताओं का तबका था जो मानता था कि उनकी वर्तमान राजनैतिक स्थिति के लिए जेटली कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं।
निश्चित रूप से आने वाले दिनों में यह लड़ाई और तेज होगी, लेकिन कूछ बातें स्पष्ट हैं कि बिहार से कीर्ति को राजनीतिक बोरिया-बिस्तर समेत जाना पड़ेगा, क्योंकि बिहार बीजेपी में जिन नेताओं की चलती है उनके साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा रहा हैं। कीर्ति जितना बोलेंगे उतनी मुश्किलें वे बीजेपी और अरुण जेटली के लिए बढ़ाते रहेंगे जिसका मजा लालू , नीतीश और कांग्रेस के नेता फिलहाल उठाना चाहेंगे।
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