मनरेगा का गणित : क्या है असली मुश्किल

मनरेगा का गणित : क्या है असली मुश्किल

पाली, राजस्‍थान:

राजस्थान के उदयपुर से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पाली ज़िले के दो दर्जन गांवों में रहने वाले गरसिया आदिवासी परेशान हैं। यहां खेती से लोगों का बहुत अधिक गुजारा नहीं हो पाता, क्योंकि साल में सिर्फ एक फसल होती है बरसात के वक्त। पिछले कुछ सालों से यहां लोगों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम मिल रहा था, जिससे लोगों को राहत थी, लेकिन अब पांच महीनों से वह काम मिलना भी बंद हो गया है।

काम के इंतजार में लोग
एक सामाजिक कार्यकर्ता वगता राम देवासी हमें कई लोगों से मिलाते हैं। यहां बाली ब्लॉक के गांवों में जिन लोगों से हम मिले, उनके पास नए जॉब कार्ड नहीं हैं। ये लोग हमें बताते हैं कि वो काम मांगने जाते हैं, लेकिन काम नहीं मिल रहा। 30 साल की नकी बाई को जॉब कार्ड की जांच करने पर पता चलता है कि उन्हें पिछले तीन साल से काम नहीं मिला। उनके खाते में आखिरी बार पैसा भी दो साल पहले आया था। लेकिन इसी गांव की कालीबाई को पिछले साल पूरे 100 दिन काम मिला। उनके खाते में साढ़े सात हज़ार रुपये भी इसी साल ट्रांसफर हुए हैं। फिर भी कालीबाई को पांच महीने से काम का इंतज़ार है।

 

राज्यों ने केंद्र सरकार से मनरेगा के तहत साल 2016-17 के लिए कुल 314.92 करोड़ पर्सन डेज़ (व्यक्ति दिन) का वक्त मांगा था। केंद्र की ओर से राज्यों को कुल 216.95 करोड़ व्यक्ति दिन का ही काम दिया गया है। यानी 98 करोड़ दिनों की कमी। हालांकि अलग-अलग राज्यों का आंकड़ा देखें तो राजस्थान के लिए केंद्र सरकार ने मांग से 50 लाख पर्सन डेज़ अधिक काम मंज़ूर किया है।  फिर भी यहां के गांवों में काम न मिलने की ये मिसाल हैरान करने वाली है।

क्या हैइसकी असली वजह?
असली वजह है पैसे की कमी। नरेगा की वेबसाइट पर जाने से पता चलता है कि केंद्र की ओर से राज्यों को कुल साढ़े पंद्रह हज़ार करोड़ (आंकड़े 15 अप्रैल तक के हैं) दिए जाने हैं, जिसमें 5901 करोड़ रुपया तो मज़दूरों का भुगतान किया जाना है। हालांकि केंद्र सरकार ने अप्रैल के पहले हफ्ते में 12220 करोड़ रुपये राज्यों को देने की बात कही। लेकिन सिर्फ इतनी रकम से काम नहीं चलने वाला है।

मनरेगा का कानून कहता है कि अप्रैल से सितंबर में सरकार उस रकम का 50% रिलीज़ करेगी, जितना काम उसने पूरे साल के लिए मंज़ूर किया है। इस आधार पर हमने उस आंकड़े का पता लगाने की कोशिश की जो सरकार को मनरेगा स्कीम के लिए चाहिए।
 
कुछ इस तरह है हिसाब
हर रोज़ सरकार को एक व्यक्ति की रोज़ाना मज़दूरी और मटीरियल की कीमत मिला कर 238 रुपये खर्च करने होते हैं। (ये आंकड़ा पिछले साल का है... इस साल महंगाई को जोड़ दें तो ये खर्च शर्तिया अधिक होगा लेकिन हम यहां एहतियात के लिये पिछले साल का खर्च ही ले रहे हैं।)

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सरकार की ओर से कुल 217 करोड़ दिन मंज़ूर किए गए है और इस हिसाब से कुल खर्च (217x238) 51646 करोड़ रुपये बैठता है। इस खर्च में अगर हम पिछले साल का बकाया 12000 करोड़ रुपये जोड़ दें, तो सरकार को पूरे साल कुल 63,646 करोड़ रुपये चाहिए, लेकिन उसका कुल आवंटित बजट ही सिर्फ 38,500 करोड़ रुपये है। यानी सरकार को जिनता पैसा मनरेगा स्कीम को अभी की मंज़ूरी के हिसाब से चलाने के लिए चाहिए होगा,  उससे (63, 646- 38, 500) 25146 करोड़ रुपये की कमी है।
 
असली समस्या यही है। सरकार के पास अगर पूरे साल के लिए खर्च होने वाली रकम से 25,000 करोड़ रुपये से अधिक की कमी अभी दिख रही है तो नकीबाई और कालीबाई जैसे लोगों के पास काम की कमी होना लाजिमी है। सवाल ये भी है कि अगर सरकार मनरेगा के तहत होने वाले काम के लिए पहले ही पैसा रिलीज़ नहीं करेगी तो काम के अवसर कैसे पैदा होंगे।