नई दिल्ली: निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के मुद्दे सुर्खियों में ज़रूर आए, लेकिन आखिरकार जो रुख उभरकर सामने आया, वह यही था कि महिलाओं को आज भी सुरक्षा की ज़रूरत है। यह कहना था सेफ्टीपिन (Safetipin) की सह-संस्थापक तथा जगोरी की पूर्व प्रमुख कल्पना विश्वनाथ का।
वीमैन ऑफ वर्थ कॉन्क्लेव के दौरान 'हम जिस तरह से देखने के आदी हैं...' विषय पर आयोजित चर्चा में कल्पना ने कहा कि हम लोगों ने एक अभियान चलाया था - 'घूरना तकलीफ देता है' (Staring hurts)। कल्पना ने कहा, घूरने और देखने में फर्क होता है। पुरुष घूरने के लिए महिलाओं की पोशाकों को दोष देते हैं, और हमारे समाज का माहौल कुछ ऐसा है कि खुद पर सभी प्रकार के नियंत्रण महिलाओं द्वारा ही लागू किए जाने की उम्मीद की जाती है।
वकील, शोधकर्ता तथा मानवाधिकार एवं महिला अधिकार कार्यकर्ता वृंदा ग्रोवर ने कहा कि घूरना एक ऐसा अपराध है, जिसकी रिपोर्ट शायद ही कभी होती हो, क्योंकि कोई भी महिला पुलिस के पास जाकर रिपोर्ट करने और फिर अपराध को साबित करने के झंझटों में नहीं पड़ना चाहती।
इस अवसर पर बॉलीवुड की दिग्गज अभिनेत्री शबाना आज़मी ने कहा कि समस्या की जड़ हमारी पितृ-सत्तात्मक मानसिकता है, जहां लड़के के पैदा होते ही उसे यह एहसास दिलाया जाता है कि वह महिलाओं से बेहतर है। आज जब औरत आज़ादी की बात करती है, खास किस्म के कपड़े पहनती है, यही कहा जाता है - 'वह 'यह' चाहती है'
राजनेता कलिकेश नारायण सिंह देव ने कहा कि हमारी महिला सहयोगियों को संसद तक पहुंचने के लिए हमसे ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है। राजनीति अब भी पुरुष-प्रधान है, लेकिन अब चीज़ें बदल रही हैं। आज एक महिला विधायक बनकर उससे कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हो जाती है, जितना मैं पहली बार विधायक बनकर हुआ था।
समाजविज्ञानी शिव विश्वनाथन का विचार था कि आज़ादी को खतरे के रूप में देखा जाता है। बराबरी को खतरे के रूप में देखा जाता है। पुरुषों द्वारा किया जाने वाला दमन दरअसल सिर्फ ताकत नहीं, डर का भी प्रतीक है, क्योंकि भारत में लिंगभेद को दरअसल ताकत के ही विकल्प के रूप में देखा जाता है।