नमस्कार, मैं रवीश कुमार। अगर भारतीय सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं के छात्रों की संख्या कम हो जाए तो क्या इससे किसी को फर्क पड़ना चाहिए? अगर किसी को फर्क नहीं पड़ता है तो उन्हें प्रधानमंत्री या किसी मंत्री के यहां वहां हिन्दी बोल देने से खुश भी नहीं होना चाहिए। जिस देश में चालीस साल से भी ज्यादा समय से अगस्त में संस्कृत दिवस मनाया जाता हो, वहां स्कूलों में संस्कृत सप्ताह मनाने पर बवाल हो जाता है। इन सब प्रतीकात्म हरकतों से यह भ्रम फैल जाता है कि कोई पक्ष है जो भारतीय भाषाओं को लेकर बहुत संवेदनशील है। सारा मामला अंग्रेजी के बेतुके विरोध और हिन्दी के वर्चस्व की आशंका में बदल जाता है।
पिछले कई दिनों से दिल्ली में यूपीएससी के परीक्षार्थी प्रदर्शन कर रहे हैं। लुटयिन दिल्ली से लेकर उत्तरी दिल्ली के उन मोहल्लों में जहां ये रहते हैं। इनका आरोप है कि प्रीलिम्स यानी प्रवेश परीक्षा के एक पेपर सी-सैट के कारण इस बार भारतीय भाषाओं के छात्रों की संख्या घट गई है। एक नज़र में लगा कि यह आंदोलन सिर्फ हिन्दी माध्यम के छात्रों का है, लेकिन जल्दी ही इन छात्रों ने भारतीय भाषाओं के साथ तालमेल बिठाकर बात-बात में उत्तर बनाम दक्षिण के खांचे में बिदकने वाले नेताओं के सामने एक नज़ीर भी पेश कर दिया।
सरकार कहती है कि इस पर तुरंत कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि अदालत के निर्देश पर एक कमेटी जांच कर रही है और उसकी रिपोर्ट के बाद ही ठोस फैसला ले पाएगी। तब तक यह मांग उठी कि 24 अगस्त को होने वाली सी-सैट की परीक्षा को रद्द कर दिया जाए। अब यह एक बड़ा फैसला है। यूपीएससी ने औपचारिक रूप से ऐसा कोई एलान नहीं किया है।
संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी ने 2011 में प्रवेश परीक्षा का पर्चा ही बदल दिया। पहले 150 नंबर का जनरल स्टडीज़ होता था, जो अब 2000 नंबर का हो गया। 300 नंबर के इतिहास से लेकर गणित तक के पेपर को हटा दिया गया और इसकी जगह लाया गया एक नया पेपर सी-सैट। सिविल सर्विसेज़ एप्टिटूड टेस्ट। 200 नंबर के इस पेपर में अस्सी सवाल होते हैं। यानी हर सवाल ढाई नंबर का। अस्सी में से आठ या नौ सवाल यानी बीस नंबर के सवाल अंग्रेजी में पूछे जाते हैं। 30−36 सवाल कंप्रीहैंशन के अंग्रेजी और सिर्फ हिन्दी में पूछे जाते हैं।
यानी 80 में से अंग्रेजी के 40 सवाल भाषाई छात्रों पर भारी पड़ गए, क्योंकि इनका हिन्दी अनुवाद बेहद खराब और जटिल था। हिन्दी सहित गुजराती, मराठी छात्रों की समझ से बाहर। गलत जवाब देने पर निगेटिव मार्किंग के कारण नुकसान और बढ़ गया। सी-सैट में गणित के सवाल ज्यादा होने से भी गैर साइंस छात्रों को भारी नुकसान हुआ है।
आंदोलनकारी छात्रों का कहना है कि भारतीय भाषाओं को बराबरी का मौका मिलना चाहिए। सी-सैट भेदभाव करता है। वैसे भी स्टील प्लांट का अनुवाद अगर लोहे का पौधा हो तो आपको ऐसे ही चक्कर आ जाएगा। फिर तो एप्टिटूड की जगह एटीटूड का इम्तहान होना चाहिए, ताकि ऐसे अनुवादों को देखकर भी छात्र अफसर की तरह सब समझ जाने का भाव बनाता रहे।
आरोप है कि यहीं पर अंग्रेजी में दक्ष होने के कारण अंग्रेजी या साइंस के छात्र बाज़ी मार ले गए। आंदोलनकारी छात्रों ने यूपीएससी के आंकड़ों के आधार पर एक तस्वीर पेश की है जिसे समझना ज़रूरी है। उदाहरण तो हिन्दी माध्यम से जुड़ा है, मगर अन्य भाषाओं के स्तर पर भी इसकी जांच होनी चाहिए। 2005−10 तक अंतिम परिणाम में हिन्दी माध्यम के 10−15 प्रतिशत उम्मीदवार थे। 2013 यानी इस बार घटकर 2−3 प्रतिशत पर आ गए। 2013 के 1122 सफल उम्मीदवारों में से 26 ही हिन्दी माध्यम के हैं। उसी तरह प्री लिम्स में 2008−10 के बीच हिन्दी माध्यम के 40−45 प्रतिशत उम्मीदवार सफल हुए, लेकिन 2011 में सी सैट लागू होते ही 15 प्रतिशत पर आ गए।
तो क्या सी सैट के पेपर का असर ये हुआ कि यूपीएससी की परीक्षा में हिन्दी, मराठी, गुजराती और उड़ीया माध्यम के छात्रों की सफलता का प्रतिशत कम हो गया। क्या यूपीएससी की परीक्षा पूरी तरह से अंग्रेजीयत का शिकार होती जा रही है। पिछले साल मार्च में भी यूपीएससी की मुख्य परीक्षा में आए बदलाव को लेकर खूब हंगामा हुआ था, जिसके कारण यूपीएससी को अपने दो नियम हटाने पड़े थे। तब हमने इस विषय पर हमलोग कायर्क्रम किया था
नया नियम बना कि अंग्रेजी में पास करना अनिवार्य ही नहीं होगा, बल्कि इसका नंबर भी जुड़ेगा। इससे हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं के छात्रों को लगा कि नंबर जुड़ने से अंग्रेजी माध्यम वालों को ज्यादा लाभ होगा। साथ ही एक और नियम यह बना कि आप संस्कृत या पाली या हिन्दी जैसे विषय तभी ले सकेंगे, जब इन विषयों में स्नातक हो। संसद तक में हंगामा हुआ और यूपीएससी को इन दोनों प्रावधानों से टाटा-टाटा, बाय बाय करना पड़ा। तब हमारे एक वक्त पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम ने साफ-साफ कहा था कि ऐसे नियमों से यूपीएससी में भारतीय भाषाओं के छात्र पिछड़ जाएंगे।
प्रशासनिक अधिकारी का काम है कि वह भारतीय भाषाओं में संवाद करे और सोचे तभी वह लोगों की समस्याओं से वास्ता रख पाएगा। टीएसआर ने यहां तक कहा कि होना यह चाहिए कि अंग्रेजी के अलावा कोई भारतीय भाषा नहीं जानता है तो उसे लिया ही नहीं जाना चाहिए।
एक और रिटायर्ड अधिकारी योगेंद्र नारायण का मत था कि ऐसे बदलाव से खास फर्क नहीं पड़ेगा। इस ग्लोबल दौर में अंग्रेजी की ज़रूरत है। चंद्रभान प्रसाद ने कहा था कि अगर दसवीं स्तर का अंग्रेजी का पर्चा नहीं पास कर सकते तो आईएएस की सोचते ही क्यों हैं? चंद्रभान ने सवाल उठाया था कि क्या आप पाली या मैथिली में विज्ञान पढ़ते हैं? क्या आप इन विषयों में डॉक्टर होने की मांग करते हैं, जो आईएएस के लिए छूट चाहते हैं।
इसका ज़िक्र इसलिए किया कि टीएसआर सुब्रमण्यम की चिन्ता कहीं सच तो नहीं लग रही है। क्या वाकई भारतीय भाषाओं या ह्यूमैनिटिजी यानी मानविकी यानी इतिहास, राजनीति शास्त्र, भूगोल आदि के छात्र सिस्टम से बाहर हुए। ये सब बाते हैं। प्राइम टाइम
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