नमस्कार मैं रवीश कुमार.... केदारनाथ त्रासदी की यह बरसी रस्मी न रह जाए, इसके लिए केंद्रीय जल संसाधान मंत्री उमा भारती ने कहा है कि 17 जून को केदारनाथ त्रासदी में मारे गए लोगों की स्मृति में गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक चुनिंदा जगहों पर नदियों के किनारे वृक्षारोपरण किया जाएगा। नदियों के उद्गम स्थल पर मेडिकेटेड प्लांट यानी औषधीय गुण वाली वनस्पति लगाई जाएगी।
उमा भारती ने यह भी कहा कि केंद्र सरकार पहाड़ों पर बनी उन झीलों में चेतावनी के सिस्टम लगाएगी, जिनका दायरा 50 हेक्टेयर और उससे ज्यादा है। नदियों के तटों को सुरक्षित बनाने के लिए पर्यावरण और पयर्टन मंत्रालय की मदद ली जाएगी। उमा भारती ने कहा कि नदियां मोन्यूमेंट नहीं हैं। इसके निरंतर प्रवाह की रक्षा जनता ही कर सकती है। यह सब तो ठीक है और रस्मी नहीं है, मगर उत्तराखंड की त्रासदी को समझने के लिए आपको केंद्रीय और राज्य स्तरीय एजेंसियों के बीच की राजनीति और तालमेल की कमी को भी समझना होगा।
आप जानते हैं कि 17 जून 2013 की त्रासदी के बाद अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, पिंडर, कालीगंगा, धौली समेत कई नदियों में अचानक बाढ़ आ गई। राज्य सरकार कहती है कि चार हजार से ज्यादा लोग मारे गए और करीब पंद्रह सौ लापता हुए, जबकि नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी ने मृतकों की तादाद दस हजार के करीब बताई… गैर सरकारी आंकड़े तो इस संख्या को और ज़्यादा बता रहे हैं।
ये तबाही क्यों आई? प्राकृतिक, राजनीतिक जिसे मानवीय कहा जाता है और क्या दैवी कारण रहे। तब उमा भारती ने कहा था कि धारी देवी की मूर्ति को विस्थापित करने से ही आपदा आई है। जब बांध निर्माण के कारण धारी देवी को विस्थापित किया जा रहा था, तब 2012 में इस मसले को लेकर आडवाणी सहित बीजेपी के कई नेता राष्ट्रपति से मिले थे। अब ऐसी राय है या नहीं मुझे ज्ञात नहीं है। फिलहाल यह सवाल उठ सकता है कि बांधों या नदियों को लेकर उनकी क्या कोई नई राय बनने जा रही है।
हिन्दू अखबार में छपी रिपोर्ट में उमा भारती ने कहा था कि अगर विशेषज्ञों की राय से गंगा या अन्य नदियों पर बिजली योजनाएं बनती हैं तो कोई दिक्कत नहीं है। विकास के लिए बिजली जरूरी है और यह नदियों की क्षमता के दोहन से पैदा हो सकती है। लेकिन गंगा की 3000 किमी यात्रा पूरी करने के बाद उमा जी का बयान बदलता है और वह अविरल धारा की बात कहती हैं। गंगा समग्र यात्रा के बाद वह अपना रुख साफ करती हैं कि वे बांध या विकास के खिलाफ नहीं है, लेकिन विकास के नाम पर नदियों को बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए।
फिर इस साल उनका बयान आया कि उत्ताराखंड में बांधों के कारण गंगा की सहायक नदियों को बर्बाद किया जा रहा है। सरकारों की गलत योजना और गंगा के प्रति कम श्रद्धा के कारण। हिमालय की इकोलॉजी क्षतिग्रस्त हो रही है। इन तमाम सरकारी योजनाओं के नफे नुकसान का अध्ययन करने के लिए वह एक कमेटी बनाएंगी।
कभी बांध को लेकर हां तो कभी ना उमा भारती के बयानों की इस विकास यात्रा में एक चीज तो निरंतर हैं कि वह नदियों और पहाड़ों को लेकर चिंतित हैं और आने वाले समय में उनके फैसलों में इन चिंताओं की झलक दिखने की उम्मीद रखी जा सकती है, क्योंकि पिछले साल की तबाही के कारण उत्तराखंड में चल रही 70 बांध परियोजनाओं में से 14 की आंशिक और पूर्ण तबाही के बाद बांधों को लेकर फिर से बहस होने लगी और दुनिया के तमाम बड़े जर्नल्स जैसे साइंस, नेचर, करंट साइंस वगैरह में लंबी चौड़ी रिपोर्ट्स आईं। इन सब में बांध एक कॉमन कारण रहा।
सुप्रीम कोर्ट ने भी अगस्त 2013 में उत्तराखंड में किसी भी नई पनबिजली परियोजना को पर्यावरण की मंजूरी पर रोक लगा दी। कोर्ट ने अलकनंदा और भागीरथी घाटियों में 24 पनबिजली परियोजनाओं के पर्यावरण पर असर का अध्ययन का आदेश दिया। इस आदेश के बाद पर्यावरण मंत्रालय ने स्वतंत्र विशेषज्ञों का एक पैनल बनाया, जिसके अनुसार पनबिजली परियोजनाएं और बीते साल मची तबाही काफी करीब से एक दूसरे से जुड़ी हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक मंदाकिनी और अलकनंदा घाटी में बांध निर्माण के दौरान पहाड़ों को तोड़ने से पैदा हुई मिट्टी ने भारी तबाही मचाई है। कुंड से लेकर तिलवाड़ा तक मंदाकिनी नदी में बांध बनाने के दौरान पैदा हुई गाद और नदियों के कच्चे किनारों से निकली मिट्टी ने पानी के बहाव के साथ भारी तबाही मचाई। विष्णुप्रयाग में आई तबाही की एक बड़ी वजह वह बैराज रहा, जिसने तेज रफ्तार से पानी के साथ आ रहे मलबे को रोका। इस मलबे और पानी के मिले-जुले जोर ने बैराज को तोड़ते हुए आसपास के इलाके में भारी तबाही मचा दी।
श्रीनगर की घाटी में आई तबाही से श्रीनगर पनबिजली प्रोजेक्ट के अधिकारी नहीं बच सकते। इन अधिकारियों ने बांध निर्माण के दौरान तमाम नियमों को ताक पर रखते हुए लाखों टन गाद नदी किनारे डंप कर दी थी। ऊपर से तेजी के साथ आई नदी इस गाद को अपने साथ बहा ले गई और आगे श्रीनगर शहर के निचले इलाकों पर ले जाकर उसे डाल दिया, जिसकी वजह से वहां भयानक नुकसान हुआ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिमालय के संकटों और संभावनाओं का अध्ययन करने के लिए एक हिमालयन युनिवर्सिटी बनाने की लगातार बात कर रहे हैं। क्या इसी की कमी के कारण संकट गहराता है या कोई ठोस राजनीतिक समझ नहीं बन पाती है। नेपाल और भारत में कई ऐसी संस्थाएं हैं जो इस वक्त हिमालय के अलग-अलग पहलुओं का अध्ययन कर रही हैं।
इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट- आईसीआईएमओडी, हिमालय से जुड़े सभी पहलुओं पर समग्रता से अध्ययन करने वाला ये सबसे बड़ा संस्थान काठमांडू में है। भारत में इसी तर्ज पर जीबी पंत इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन इंवॉयरमेंट एंड डेवलपमेंट है, जिसका मुख्यालय अल्मोड़ा में है। देहरादून के वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में हिमालय के भौगोलिक पहलुओं का अध्ययन होता है। चंडीगढ़ और लेह में स्नो एंड एवेंलांच स्टडी इस्टैब्लिशमेंट है। चेन्नई में ग्लेशियर की मॉडलिंग पर शोध के लिए इंस्टिट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंसेज है।
इसके अलावा भी कई संस्थान हैं :
Indian Institute of Science, बेंगलुरु
National Geophysical Research Institute−NGRI, हैदराबाद
Indian Institute of Remote Sensing- IIRS, देहरादून
Indian Space Research Organisation- ISRO
Forest Research Institute− FRI, देहरादून
Geological Survey of India
Botanical Survey of India
Zoological Survey of India
फिर भी आपको लगे कि पढ़ाई लिखाई या रिसर्च के मामले में कुछ होता ही नहीं, तो आप इस सूची में कुछ और विश्वविद्यालयों के नाम जोड़ सकते हैं जहां अध्ययन होता है-
HNB Garhwal Central University Srinagar −
Kumaon University Nainital
Himachal University Shimla
Jammu Central University Jammu
इसके अलावा उत्तर पूर्व राज्यों के भी कई विश्वविद्यालय है। तो हिमालय पर अध्ययन करने वाले संस्थानों की कमी नहीं है। अब मैं यह बता सकने की स्थिति में नहीं हूं कि सरकार फैसले लेते वक्त इन अध्ययनों का क्या करती है या इन संस्थाओं के बीच अध्ययनों को लेकर कितना तालमेल है। हिमालयन टेक्नालजी युनिवर्सिटी बन जाएगी तो अच्छा तो है मगर उससे हिमालय कैसे बचेगा। हिमालय तो बचेगा उन फैसलों से जो राजनीतिक तौर पर लिए जाते हैं विकास के नाम पर।
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