कोरोना वायरस संक्रमण महामारी ने जहां लोगों की रोजी-रोटी पर असर डाला है, वहीं बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव डाला है. छोटे बच्चे भीड़ या अंजान से डरने वाले फोबिया यानी भय का शिकार हो रहे हैं तो बड़े बच्चों में तनाव, चिंता और घबराहट की शिकायतें देखने को मिल रही हैं. ये चिंता की बात इसलिए है क्यूँकि इनमें से कई बच्चों को अस्पतालों में डॉक्टर, काउंसलर और दवा की ज़रूरत पड़ रही है.
मुंबई निवासी नायोमी कोठारी स्पीच एंड लैंग्विज थेरपिस्ट हैं. इनका बेटा एक साल का हो चुका है लेकिन पिछले पांच-छह महीने से घर से बाहर ना निकलने के कारण अनजान चेहरे या भीड़ से डर रहा है. इस डर या फोबिया को ‘आगोराफोबिया'(Agoraphobia) कहते हैं. कोठारी कहती हैं, "हम घर के अंदर पाँच महीने से बंद थे. बाबा कहीं नहीं गया था, गार्डन पब्लिक स्पेसेस भी बंद थे, पाँच महीने के बाद जब हम वैक्सिनेशन के लिए डॉक्टर वोरा के पास गए तो बाबा इतना रोया कि आँख बड़े-बड़े हो गए. लेफ़्ट राइट देखने लगा बाहर क्या है? क्या होता है?"
इस परेशानी को देखकर डॉक्टर परेशान थे कि आखिर एक साल का बच्चा इतना क्यों रो रहा है? SRCC चिल्ड्रन हॉस्पिटल के पीडीट्यट्रिशन डॉ. अमीश वोरा ने कहा, "हमें लगा बारह महीने का बच्चा इतना क्यूँ डर रहा है? मैंने बोला 15 दिन बाद फिर आएँ. 15 दिन के बाद भी वही हालत थी...फिर समझ आया कि ये बच्चा सोशल सोशल आयसोलेशन की वजह से रो रहा है. पिछले छह महीने में वो किसी को मिला नहीं और घर से बाहर कभी निकला नहीं है. छह महीने में बच्चों में जो ग्रोथ होना चाहिए, वो नहीं हो सका लेकिन इस बच्चे को आगोराफोबिया हुआ था. माँ भी थेरपिस्ट हैं तो बच्चे का पूरा ट्रीटमेंट तुरंत मिल गया."
बेंगलुरु स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज, NIMHANS में रोज़ाना क़रीब 40 बच्चे मानसिक इलाज के लिए आ रहे हैं. इनके अलावा 35 बच्चों की फ़ोन पर काउन्सलिंग हो रही है. NIMHANS में डिपार्टमेंन्ट ऑफ चाइल्ड एंड एडोलोसेन्ट सायकिट्रिक के हेड डॉ. जॉन विजय सागर ने बताया, "हमारे अस्पताल में रोज़ाना 35-40 बच्चे जो 6 साल से लेकर 16-17 साल के हैं, वो आ रहे हैं और क़रीब 30-35 बच्चों की टेलीफोनिक काउन्सलिंग हो रही है. पेरेंट्स को देखना पड़ेगा कि बच्चों के लिए रूटीन अच्छा प्लान करें...टाइम टाइम पर कुछ ऐक्टिविटीज़ करवाएँ, और बच्चों के साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताने की कोशिश करें."
कोरोना काल में हमारे बच्चे घरों में क़ैद महसूस कर रहे हैं और कम बोलचाल के साथ-साथ उनके खेलकूद का दायरा भी सिमट चुका है. इस वजह से कई बच्चे मानसिक रूप से बीमार हुए हैं. कई बच्चे तो घरों में क़ैदियों जैसा महसूस कर रहे हैं. घर से बाहर जाने नहीं मिलता..थोड़ा सा बाहर निकले तो मास्क ग्लव्ज़ की कैद में रहना पड़ता है. ये बच्चे अपने फ़्रेंड्स से भी नहीं मिल पा रहे हैं. उनकी पढ़ाई भी ऑनलाइन चल रही है. काउंसलिंग के लिए कई बच्चों ने कहा कि उन्हें घर में अच्छा नहीं लगता, वो बोर फ़ील करते हैं.
डॉक्टर बताते हैं प्री-कोविड की तुलना में बच्चों में मानसिक तनाव के मामले दोगुने हुए हैं. मुंबई के फोर्टिस हॉस्पिटल के कंसल्टेंट साइकिट्रिस्ट डॉ. केदार तिलवे कहते हैं, "प्री कोविड से तुलना करें तो अभी बच्चों में तनाव के मामले दोगुने हुए हैं. शिकाएतें भी अलग देखी जा रही हैं, पहले Attention deficit hyperactivity disorder (ADHD), Scholastic backwardness, बिहेव्यरल इशू की वजह से बच्चे आते थे पर अभी ज़्यादा करके, उदासी, घबराहट, तनाव, चिंता, शारीरिक लक्षण के कारण स्ट्रेस ये कम्प्लेंट की संख्या बढ़ गयी है."
वॉकहार्ट हॉस्पिटल के कंसल्टेंट नियोनैटोलॉजी डॉ. समीर शेख कहते हैं, "अभिभावकों का जॉब लॉस, पेरेंट्स का स्ट्रेस, फ़ाइनैन्स का स्ट्रेस, के देखकर बच्चे भी समझ रहे हैं कि घर के हालात पहले जैसे नहीं हैं. ये सब उनपर भी इम्पैक्ट करता है, उनको समझ आ रहा है कि घर के हालात पहले जैसे नहीं हैं. और फिर बच्चों पर स्ट्रेस बढ़ता है, इस वजह से हमारे पास अलग-अलग तरह की बीमारी का रूप लेकर आते हैं."
बच्चों में मानसिक बीमारी के मामले मेट्रो शहरों के अलावा छोटे शहरों से भी रिपोर्ट हो रहे हैं. एक्स्पर्ट्स के मुताबिक़ फ़्रंटलाइन वर्कर्स जैसे कि पुलिस, डॉक्टर,नर्स, सफ़ाईकर्मी के बच्चों में ज़्यादातर ऐसी मानसिक तनाव की शिकायत देखी जा रही हैं.
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